Afghanistan Taliban: तालिबान से रिश्तों में मिठास क्यों?

By विकास मिश्रा | Updated: January 23, 2025 06:37 IST2025-01-23T06:37:26+5:302025-01-23T06:37:26+5:30

Afghanistan Taliban: तालिबान ने यदि साथ दिया होता तो अजहर मसूद जैसे आतंकवादी को शायद हमें छोड़ने को मजबूर नहीं होना पड़ता!

Afghanistan Taliban Why sweetness in relations with Taliban blog Vikas Mishra | Afghanistan Taliban: तालिबान से रिश्तों में मिठास क्यों?

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Highlightsतालिबान के साथ देने का कोई सवाल ही नहीं था.कट्टर नजरिये का भारत हमेशा ही आलोचक रहा.फिर से तालिबान सत्ता में आ जाएगा.

Afghanistan Taliban: करीब 24 वर्ष पहले की घटना याद कीजिए जब आतंकियों ने काठमांडू से उड़े इंडियन एयरलायंस के एक विमान का अपहरण कर लिया था और अमृतसर, लाहौर, दुबई होते हुए वे विमान को अफगानिस्तान के कंधार शहर में ले गए थे. तब अपहरणकर्ताओं से बातचीत में भारत सरकार को काफी दिक्कत हुई थी क्योंकि उस समय सत्ता पर काबिज तालिबान के साथ कोई सीधा संपर्क नहीं था. इसे एक बड़ी विफलता के रूप में देखा गया था क्योंकि तालिबान ने यदि साथ दिया होता तो अजहर मसूद जैसे आतंकवादी को शायद हमें छोड़ने को मजबूर नहीं होना पड़ता!

तालिबान के साथ देने का कोई सवाल ही नहीं था क्योंकि उसके कट्टर नजरिये का भारत हमेशा ही आलोचक रहा. मगर हामिद करजई और अशरफ गनी के राष्ट्रपति काल में भारत ने अफगानिस्तान की बेहतरी के लिए भरसक कोशिश की. तब किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि अफगानिस्तान के लोकतंत्र समर्थकों को मझधार में छोड़ कर अमेरिका वापस चला जाएगा और फिर से तालिबान सत्ता में आ जाएगा.

लेकिन तालिबान सत्ता में आया और सबसे ज्यादा खुशी पाकिस्तान को हुई. तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खान ने तो यहां तक कह दिया कि अफगानिस्तान के लोगों ने गुलामी की जंजीरें तोड़ दी हैं. पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के अधिकारी तालिबान को मुबारकबाद देने अफगानिस्तान जा पहुंचे. भारत के लिए यह सब वाकई बड़ा झटका था.

तालिबान यदि पाकिस्तान की गोद में खेलने लगता तो निश्चय ही आतंकवाद को हवा मिलती. मगर तालिबान को पाकिस्तान की नीयत पर संदेह था इसलिए उसने भारत की ओर आशा भरी नजरों से देखा. दुनिया के दूसरे देशों की तरह ही भारत ने भी तालिबान की सत्ता को मान्यता नहीं दी क्योंकि महिलाओं के प्रति उसका रवैया क्रूर है लेकिन भारत ने रिश्तों की डोर बनाए रखने का निर्णय लिया.

एक अधिकारी को खासतौर पर यह जिम्मेदारी सौंपी कि वे तालिबान के संपर्क में बने रहें. भारत के विदेश सचिव विक्रम मिस्री और तालिबान के कार्यकारी विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी की दुबई में हुई मुलाकात इसी निरंतर संपर्क का नतीजा है. दिलचस्प बात यह है कि इस मुलाकात की जितनी चर्चा भारत में नहीं हुई, उससे ज्यादा पाकिस्तान में हो रही है.

पाकिस्तानी इस बात से परेशान हैं कि अफगानिस्तान से उनके संबंध खराब हो रहे हैं और भारत दोस्ती बढ़ा रहा है. मजेदार बात यह भी है कि बातचीत उस देश संयुक्त अरब अमीरात में हुई जो इन दिनों पाकिस्तानियों को वीजा देने से बच  रहा है. पाकिस्तानी वहां वीजा लेकर जाते हैं और भीख मांगते हैं. इसका पूरा गिरोह चल रहा है.

पाकिस्तानी इस बात को लेकर बेचैन हैं कि भारतीय विदेश सचिव और तालिबान के कार्यवाहक विदेश मंत्री के बीच क्या बात हुई? वे इस बात से भी परेशान हैं कि जिस तालिबान के कंधे पर वे बंदूक रखना चाह रहे थे, उसने उन्हीं की तरफ बंदूक तान रखी है. पाकिस्तानी तालिबान लगातार हमले करता रहा है और जवाब में पाकिस्तान ने तो अफगानिस्तान पर बम भी बरसा दिए हैं.

इधर भारत ने अफगानिस्तान में 500 से अधिक परियोजनाओं पर तीन अरब डॉलर से भी ज्यादा का निवेश कर रखा है. सड़कों से लेकर अस्पताल, डैम और यहां तक कि संसद भवन का निर्माण भी भारत ने ही किया है. तालिबान चाहता है कि भारत अधूरी परियोजनाओं को पूरा करे और व्यापार में उसका सहयोग भी करे. इधर भारत चाहता है कि ईरान के चाबहार पोर्ट के माध्यम से मध्य एशिया तक अपनी पैठ बनाए.

अभी इसके लिए पाकिस्तान से ट्रांजिट अधिकार की जरूरत पड़ती है जो पाकिस्तान देता नहीं है. कुछ लोग यह सवाल भी पूछते हैं कि तालिबान की क्रूरता के किस्से जगजाहिर हैं तो भारत जैसे देश को क्या उससे दोस्ती करनी चाहिए? क्या अफगानी महिलाओं के प्रति यह अवहेलना का भाव नहीं होगा?

यह बात अपनी जगह कुछ हद तक सही हो सकती है लेकिन सवाल यह है कि इस मामले में दूसरे देशों का रवैया क्या है? कहने को यह कहा जा सकता है कि किसी देश ने तालिबान की सत्ता को अधिकृत रूप से मान्यता नहीं दी है लेकिन यह भी सच है कि 40 से ज्यादा देशों ने किसी न किसी रूप में तालिबान से कूटनीतिक संबंध कायम कर रखे हैं.

चीन ने तो घोषित रूप से वहां अपना राजदूत भी रखा हुआ है. सब अपने हितों का खेल खेलने में लगे हैं तो भारत क्यों पीछे रहे? और दूसरी बात यह है कि जब संबंध कायम रहेंगे और तालिबान को लगेगा कि संबंधों के बिना उसका काम नहीं चल सकता तो वह बाकी दुनिया की थोड़ी-बहुत बात मान भी सकता है. यदि संबंध ही न रहें तो बातचीत कैसे होगी? दबाव कैसे बनाया जाएगा?

एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि क्या भारत को तालिबान पर भरोसा करना चाहिए? क्या भारतीय हितों की वह रक्षा करेगा? यह कहना अभी थोड़ा मुश्किल है लेकिन इतना फायदा तो होगा ही कि तालिबान किसी भी रूप में पाकिस्तान की भाषा नहीं बोलेगा. उसे पता है कि भारत जैसे देश ने यदि उससे दोस्ती का कदम बढ़ाया है तो यह उसके लिए भी बड़ी बात है.

भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने 2023 में कहा था कि अफगानिस्तान के साथ भारत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध हैं. उम्मीद करनी चाहिए कि इस रिश्ते में मिठास घोलने की कोशिश दोनों ओर से होगी. उम्मीद तो यह भी करनी चाहिए कि तालिबान इस बात को भी समझेगा कि लड़कियों की पढ़ाई कितनी जरूरी है. शायद भारत उसे यह बात समझा पाए..!

Web Title: Afghanistan Taliban Why sweetness in relations with Taliban blog Vikas Mishra

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