अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: हारने के बाद भी सिरदर्द बने रहेंगे ट्रम्प

By अभय कुमार दुबे | Published: November 11, 2020 01:06 PM2020-11-11T13:06:45+5:302020-11-11T13:16:12+5:30

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प हार गए हैं. हालांकि वे हार मानने से इनकार करते रहे हैं. अमेरिका में हारने वाले की दावेदारी आसानी से खत्म नहीं होती.

Abhay Kumar Dubey blog: Donald Trump will continue to be a headache even after losing for America | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: हारने के बाद भी सिरदर्द बने रहेंगे ट्रम्प

अमेरिका में ट्रम्प की पराजय ट्रम्पवाद की पराजय नहीं है (फाइल फोटो)

Highlightsअमेरिका में आनुपातिक चुनाव प्रणाली है, हारने वाले उम्मीदवार के हिस्से में भी कई प्रांत आते हैंअमेरिकी राजनीति में चुनाव हारने वाला भी अपनी आवाज और अहमियत कायम रख सकता है

भारत में एक राष्ट्रीय चुनाव आयोग है जो सारे देश में अपने केंद्रीय प्राधिकार के तहत सुव्यवस्थित आचार-संहिता के मुताबिक चुनाव कराता है. इसके उलट अमेरिका में आनुपातिक चुनाव प्रणाली है जो ‘पहले मारे सो मीर’ के भारतीय फॉर्मूले पर नहीं चलती. न ही अमेरिका में कोई राष्ट्रीय चुनाव आयोग है. वहां का संघवाद अलग है.

हारने वाले उम्मीदवार के हिस्से में भी कई प्रांत आते हैं जहां के इलेक्टोरल वोट उसे मिलते हैं. वह चुनाव हारने के बावजूद अमेरिकी राजनीति में अपनी आवाज और अहमियत कायम रख सकता है. चुनावी प्रतियोगिता खत्म जरूर हो जाती है, लेकिन लोकतांत्रिक प्रतियोगिता के जीतने वाले के पक्ष में बहुत ज्यादा झुकने का अंदेशा नहीं रहता. यह इसके बावजूद होता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के कार्यकारी अधिकार भारत के प्रधानमंत्री से अधिक होते हैं.

अमेरिका में हारने वाले की दावेदारी आसानी से खत्म नहीं होती. इस प्रवृत्ति का सबसे दिलचस्प उदाहरण तो मौजूदा चुनाव ही है. डेमोक्रेटिक उम्मीदवार जोसेफ बाइडन को अमेरिकी इतिहास के सबसे ज्यादा वोट मिले, और इलेक्टोरल कॉलेज की फैसलाकुन दौड़ में भी वे रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प से बहुत आगे साबित हुए. 

ट्रम्प की पराजय ट्रम्पवाद की पराजय नहीं

इसके बावजूद ट्रम्प न केवल चुनावी दृष्टि से बल्कि विचारधारात्मक दृष्टि से या अमेरिकी समाज पर अपने प्रभाव के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण बने रहेंगे. इतने महत्वपूर्ण कि अभी से उन्हें चार साल बाद 2024 में राष्ट्रपति पद के दावेदार के रूप में देखा जाने लगा है. चूंकि डेमोक्रेटिक पार्टी इन दोनों सदनों में आरामदेह बहुमत जीत पाने में नाकाम रही है इसलिए वह सुप्रीम कोर्ट में अपनी पसंद के जजों की भी नियुक्ति नहीं कर पाएगी.

लेकिन, जो बात इससे भी ज्यादा जरूरी है, वह कुछ और है. ट्रम्प की पराजय ट्रम्पवाद की पराजय नहीं है. ट्रम्पवाद एक खोखली और अतिवादी किस्म की विचारधारा है जिसने अमेरिकी समाज को दो हिस्सों में बांट दिया है.

ट्रम्पिज्म का मतलब है अश्वेतों के खिलाफ नस्लवादी नजरिया, स्त्रियों के प्रति तिरस्कारपूर्ण रवैया रखना, पर्यावरण और पारिस्थितिकी संबंधी संकट की परवाह न करना, आप्रवासियों को संदेह की नजर से देखना, एक राष्ट्र के रूप में उग्र रूप से अमेरिका को श्वेतांग समुदाय के रूप में कल्पित करना, तरह-तरह की कांस्पिरेसी थियरीज को उछालते रहना, अपने विरोधियों और आलोचकों के प्रति अशिष्ट व्यवहार करना और किसी भी तरह के वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अंगूठा दिखाना. 

डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने चार साल के कार्यकाल में यही सब किया है. लेकिन विडंबना यह है कि अमेरिकी जनता के काफी बड़े और प्रभावी हिस्से ने उनकी इन हरकतों को पसंद किया है. वे डेमोक्रेटिक पार्टी के उदारतावादी रवैये से खुश नहीं हैं. ट्रम्प का दावा रहा है कि यह उदारतावाद मुख्य तौर से पाखंडी किस्म का है. एक अर्थ में उनकी बात सही भी है. 

दुनिया में  उदारतावाद क्यों हो रहा है विफल

दुनिया में किसी भी तरह का उदारतावाद (यहां मतलब मानस की उदारता से न होकर लिबरलिज्म से है जो एक पश्चिमी विचारधारा है जो उन्नीसवीं सदी में उपनिवेशवाद का समर्थन करती रही है) अपनी समझौता परस्ती और पाखंड के कारण आलोचना का शिकार हुआ है. जनता ने लंबे अरसे तक इसके अहलकारों को सत्ता में बैठाया, लेकिन अब हर जगह इसकी विफलताओं और अभिजन चोचलेबाजी के चलते इसकी पिटाई हो रही है.

ट्रम्पवाद के कारण हुआ यह है कि अमेरिकी समाज में असहिष्णुता बढ़ी है. राजनेताओं के प्रति अविश्वास की भावना वोटरों के बीच आम है. 73 फीसदी अमेरिकी मानते हैं कि देश की दोनों प्रमुख पार्टियां बुनियादी बातों पर असहमत हैं इसलिए राष्ट्रीय सहमति का पूरी तरह से अभाव हो गया है. पांच में से एक अमेरिकी मानता है कि अगर उनकी पसंद का व्यक्ति चुनाव न जीते तो उन्हें हिंसा करने का अधिकार है. 

60 फीसदी वोटरों को यकीन है कि उनकी विरोधी पार्टी के कारण अमेरिका खतरे में है इसलिए उसे राष्ट्रघाती के तौर पर देखा जा सकता है. चालीस फीसदी वोटर अपने विरोधियों को दुष्ट मानते हैं. बीस फीसदी तो इस हद तक चले गए हैं कि विरोधी उनकी निगाह में जानवर से भी बदतर हैं.

श्वेत अमेरिकी मजदूर वर्ग उग्र राष्ट्रवादी की हद तक

श्वेत अमेरिकी मजदूर वर्ग उग्र राष्ट्रवादी बनने की हद तक चला गया है. वह मानने लगा है कि अमेरिकी राष्ट्रत्व को आप्रवासियों और अश्वेतों से बचाने की जरूरत है. 

ट्रम्प को अपनी असहिष्णु विचारधारा के बावजूद अफ्रीकी मूल के अमेरिकनों के बीच 13 से 18 फीसदी के बीच समर्थन मिला है. डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जीत जरूर गए हैं लेकिन भारतवंशियों के बीच उनका समर्थन पहले की अपेक्षा घटा है.

ये सब तथ्य अमेरिका के वजूद को संकट में डालने वाले हैं. क्या यह एक विडंबना नहीं है कि अमेरिकी राजनीति पर रिपब्लिकन पार्टी के प्रभुत्व की शुरुआत अब्राहम लिंकन की राष्ट्रपति पद पर जीत से 1860 में हुई थी. वह जीत नस्लवाद और दासता के ऊपर मानवता की जीत का प्रतीक थी. लेकिन, उसी पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प नस्लवादी भावनाओं की नुमाइंदगी कर रहे हैं. नए राष्ट्रपति जो बाइडेन को अभी बहुत से घावों पर मरहम लगाना है. 

Web Title: Abhay Kumar Dubey blog: Donald Trump will continue to be a headache even after losing for America

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