-संतोष देसाईअखबारों की रिपोर्ट के अनुसार रेलवे आरक्षण चार्ट अब इतिहास बन गए हैं। और भारतीयों की पूरी पीढ़ी के लिए रेल यात्र का अर्थ बदल गया है। जिस रेल यात्र को हम जानते थे, वह कदम-दर-कदम बदलती जा रही है।
हम अपनी चाय और कॉफी थर्मस फ्लास्क में लेकर चलते हैं। कुल्हड़ चाय अब स्मृतियों में ही बस कर रह गई है और ‘चाय गरम’ की आवाज कहीं सुदूर अतीत में गूंजती मालूम होती है। यात्र की शुरुआत की छाप छोड़ने वाले स्टीम इंजन अब नहीं हैं। स्टेशनों में लगने वाले एस्केलेटर्स एक प्लेटफार्म से दूसरे पर जाने के लिए ओवरब्रिज पर होने वाली भागदौड़ को अनावश्यक बनाते जा रहे हैं। बोतल बंद पानी ने हर स्टेशन पर ट्रेन पहुंचते ही नलों पर पानी के लिए लगने वाली जोखिम भरी होड़ को गैरजरूरी बना दिया है। आधुनिक तकनीकों की वजह से शौचालयों से रेलवे ट्रैक पर होने वाली गंदगी भी अब इतिहास की बात बनती जा रही है।
रेलवे आरक्षण के चार्ट पुराने दिनों में हाथ से लिखे जाते थे और उसमें अपना नाम तलाश करना कम चुनौती भरा नहीं था। टाइपराइटर के आगमन के साथ आरक्षण चार्ट के क्षेत्र में एक लंबी छलांग लगी, हालांकि उसमें गलत टाइप हुए नामों को हाथ से लिखकर दुरुस्त किया जाता था और उसमें होने वाली त्रुटियां यात्रियों के बीच कई बार विवाद का कारण बनती थीं। तब बर्थ आरक्षित करवाना भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं था। बसों में आरक्षण का तरीका तब दिलचस्प था।
बस में चढ़ने को आतुर भीड़ के बीच कई लोग बस की खिड़की से सीट पर अपना रूमाल डाल देते थे और यह तरीका आश्चर्यजनक रूप से सफल था। वही यात्री जो बस में चढ़ने के लिए एक-दूसरे को ठेलते थे, कुहनियों का वीरतापूर्वक इस्तेमाल करते थे, सीट पर रखी किसी की रूमाल के आधिपत्य को इस तरह स्वीकार कर लेते थे जैसे वह किसी के वैध कब्जे की निशानी हो। ट्रेनों में बर्थ आरक्षित करवाना तब आज के बटन पर एक क्लिक करने जैसा आसान नहीं था। विविधताओं से भरी रेल यात्र में तकनीक नित नए परिवर्तन ला रही है और अब पुराने दिन स्मृतियों में सिमटते जा रहे हैं।(संतोष देसाई एक जाने-माने स्तंभकार हैं। वह विज्ञापन की दुनिया में खासी पैठ रखते है।)