ब्लॉग: अपने-अपने कर्मों के लिए हम खुद ही होते हैं जिम्मेदार
By गिरीश्वर मिश्र | Published: May 23, 2024 11:05 AM2024-05-23T11:05:35+5:302024-05-23T11:11:03+5:30
स्मरणीय है कि बुद्ध के पहले कर्म की अवधारणा कर्मकांड से जुड़ी हुई थी। जैन विचारकों ने उसके नैतिक पक्ष की ओर ध्यान आकर्षित किया, विशेष रूप से हिंसा को ध्यान में रख कर।
गौतम बुद्ध का जोर कर्म पर था। कर्म का शाब्दिक अर्थ है क्रिया। क्रिया सही या गलत हो सकती है। कर्म करना और भविष्य में (समानांतर अच्छे-बुरे) परिणाम इसे अभी या आगे के जन्म में अनुभव करने होंगे ही, यह बात हिंदू, बौद्ध और जैन सभी स्वीकार करते हैं। आखिर बीज बोएंगे तो फसल तो होगी ही! कर्म का नैतिक मूल्य होता है। कर्ता के लिए अच्छे कर्म का अच्छा और बुरे कर्म का बुरा परिणाम होगा ही होगा।
स्मरणीय है कि बुद्ध के पहले कर्म की अवधारणा कर्मकांड से जुड़ी हुई थी। जैन विचारकों ने उसके नैतिक पक्ष की ओर ध्यान आकर्षित किया, विशेष रूप से हिंसा को ध्यान में रख कर। बौद्ध मत ने नैतिकता के पक्ष को पुष्ट किया। वे कर्म को मंतव्य या कर्म करने की इच्छा (इंटेंशन) तक ले गए। मात्र विचार या मन की दशा से भी कर्म होता है। वैसे तो सभी प्राणी समान नैतिक दायित्व रखते हैं परंतु जन्म के समय पूर्व जन्म के सभी कर्मों के अधीन होते हैं। पर आगे ठीक होने का अवसर मिलता है। अच्छे मंतव्य से मन पवित्र होता है। साथ ही ध्यान से भी शुद्धि होती है। बुद्ध ने यह आर्य सत्य देखा- दुःख सबको होता है। इच्छा दुःख का कारण है। हम वह सब चाहते हैं जो असंभव है।
इच्छा न करना ही दुःख दूर करने का उपाय है। बुद्ध ने इससे उबरने के लिए नैतिक उपाय बताए। उनका आर्य अष्टांगिक मार्ग सम्यक पर जोर देता है: सम्यक् आचरण, मानसिक प्रशिक्षण। चूंकि दुःख प्रत्येक व्यक्ति का निजी होता है, समाधान भी उसी से जुड़ा होगा। यहां ईश्वर की आवश्यकता नहीं है। हम सब अपने-अपने कर्म के लिए जिम्मेदार हैं। बुद्ध परम व्यावहारिक हैं। वे खुद को एक ‘शल्य चिकित्सक’ कहते हैं जो इच्छा के बाण को निकालता है। जैसे समुद्र का एक ही स्वाद होता है कि वह चारों ओर नमकीन होता है, वैसे ही बुद्ध के सभी उपदेशों का एक ही अर्थ है–मुक्ति या निर्वाण।
बुद्ध की दृष्टि में हमारे जीवन में जो कुछ है और जो भी अनुभव होते हैं वे सिर्फ प्रक्रिया होते हैं। वे अनुभव का प्रामाण्य स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि यदि भिन्न जानकारी मिले तो अनुभव को ही प्रमाण मानो। कुछ भी कारण से स्वतंत्र नहीं होता है। सभी चीजें कारण से जुड़ी हैं या कहें सबकुछ कारण से पैदा होता है। पर इस विश्व का न आरंभ है न कोई अंतिम कारण है, हां कुछ कड़ियां जरूर होती हैं। विश्व में प्रक्रियाएं होती हैं जो यादृच्छिक (रैंडम) नहीं हैं पर बहुत स्पष्टता से निर्धारित भी नहीं हैं।
कर्म नैतिक कारणता या दायित्व से जुड़ा होता है। पर कर्म ही एकमात्र कारण नहीं है। कर्म एक सामान्य दशा या परिप्रेक्ष्य पैदा करता है पर और भी कारण होते हैं जैसे बीमारी। नए कर्म में चुन सकते हैं पर एक सीमा के ही भीतर। कर्म को केंद्र में लाकर बुद्ध ने आत्म की जगह प्रक्रिया को स्थापित किया जो अनुभवगम्य है। वह परिवेश से जुड़ता है। कर्म के लिए सभी जिम्मेदार लोग प्रयास से निर्वाण पा सकते हैं।