प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल: संहार के विरुद्ध सृजन का पर्व है वसंत पंचमी
By प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल | Published: February 16, 2021 10:41 AM2021-02-16T10:41:51+5:302021-02-16T10:44:37+5:30
वसंत पंचमी के दिन सरस्वती पूजा की परंपरा रही है. वसंत पंचमी को लेकर कई कथाएं हैं. कामदेव से इस दिन का जुड़ाव है। वहीं, इसी दिन गुरु गोविंद सिंह का भी विवाह हुआ था.
वसंत को ऋतुराज कहते हैं. ऋतुराज का अर्थ ही है जिसमें सब कुछ सुशोभित हो. प्रकृति अपने जीवन चक्र में यौवनावस्था में होती है. कालिदास ऋतु संहार में इसको विवेचित करते हुए एक ऐसे वातावरण को प्रस्तुत करते हैं जिसमें आम बौराया है. पुष्प सुगंध बिखेर रहे हैं. सर्वत्र नवलता है. वसंत पंचमी इसी नवलता का स्वागत है.
स्वागत प्रकृति के सर्वोत्तम सृजन परख रूप का. पत्ते पुष्प से सुगंधित. नर-नारी उल्लास से भरपूर. इसलिए इस अवसर पर सरस्वती पूजा का विधान है. भारत में विद्या परंपरा शुष्क युक्ति की नहीं है. केवल तर्क से, विश्लेषण से विद्या प्रतिष्ठित नहीं होती है. उसे सृजनात्मकता का सहकार्य चाहिए.
विज्ञान को कला और कला को विज्ञान का साथ चाहिए. तकनीक को शिल्प और शिल्प को तकनीक चाहिए. इसीलिए श्वेत वस्त्रधारणी, गौरवर्णा सरस्वती वीणा और पुस्तक दोनों धारण करती हैं. कमलासना हैं, हंसवाहिनी हैं. नीर और क्षीर का विवेक जो कर सके, वही विद्यावान है.
इसलिए वसंत में सरस्वती की पूजा का तात्पर्य है इसका विवेक होना कि जीवन में कितना काम आवश्यक है और कितना तर्क. कितना पदों और संबंधों पर आधारित समाज अपेक्षित है और कितना सृजन धर्मी, संवेदना, संवेग व कमनीयता पर आधारित मानव जीवन.
कामदेव और भगवान शिव से भी जुड़ी है वसंत पंचमी की कथा
आज जब मनुष्य ने उत्पादकता की होड़ में संवेदना को तिलांजलि दी है, उद्यान में फलमंजिरी वह आम की हो या कटहल की, उसका सुवासित होना महत्वपूर्ण नहीं रहा. अपितु फलवान होना महत्वपूर्ण है, ऐसी मान्यता विकसित हो गई है.
ऐसे में वसंत के स्वागत और उस स्वागत में साहित्य, संगीत और कला की अधिष्ठात्नी का पूजन महत्वपूर्ण है. वसंत पूजन की यह परंपरा भारत में मदनोत्सव से प्रारंभ होती है. यह भी मान्यता है कि कामदेव ने वसंत के महीने में पंचधन्वा से शिव पर जो आक्रमण किया था और फलस्वरूप कामारि शिव ने कामदेव का दहन किया, तब से काम अनंग हो गया.
अनंग काम, साकार काम से ज्यादा ही खतरनाक है. क्योंकि अनंग काम चेतना का हिस्सा बनता है. बुद्धि को सम्मोहित कर लेता है. अनंग है इसलिए पकड़ में नहीं आता. उसको बांधने की हर कोशिश फिसल जाती है. फलत: सर्वत्र कामना, लालच, ऐंद्रिकता और मांसलता प्रभावी होने लगती है.
मदनोत्सव इसीलिए होता था कि मदन का उत्सर्जन करना है, उसे निचोड़ना है, आसवित करना है. आज तो ये गायब हो गया है. आज केवल मिट्टी की सरस्वती की पूजा वसंत उत्सव का पर्याय है.
वसंत उत्सव का सरस्वती पूजा के रूप में जो स्वरूप है, वह पूर्वोत्तर में दिखता है. जब सर्वत्र उस समय शिल्प के मेले लगते हैं. मनुष्य की सृजनात्मकता का विपणन आस्था के साथ होता है. इस आस्थाजनित विपणन को जीवन व्यवहार का हिस्सा बनाना ही वसंत पंचमी है.
वसंत पंचमी को लेकर कई और भी हैं कथाएं
वसंत पंचमी को लेकर ढेरों कथाएं हैं. जब मैं वसंत पंचमी की याद कर रहा हूं तो मुङो वीर हकीकत राय की याद आ रही है, जिसने अपनी आस्था के लिए अपने आपको बलिदान कर दिया और जब वीर हकीकत राय के किशोर सौम्य मुख मंडल को देख जल्लाद के हाथ से तलवार छूट गई तब उन्होंने जल्लाद से कहा, 'मैं अपने धर्म का पालन करता हूं, तुम अपने धर्म का पालन करो.'
वसंतोत्सव धर्मपालन का उत्सव है. फिर मैं जब वसंतोत्सव का विचार करता हूं तो मुझे गुरु गोविंद सिंह की याद आती है जिनका विवाह आज के ही दिन हुआ था और उस विवाह की परिणति एक ऐसे परिवार की निर्मिति के रूप में होती है जिसमें सब के सब ने अधर्म, अनाचार, अत्याचार के विरु द्ध अपने को बलि पर चढ़ा दिया.
नामधारी संप्रदाय के सद्गुरु रामसिंह कूका की याद आती है जिनका जन्म वसंत पंचमी को ही हुआ था और जिन्होंने भारत को अंग्रेजी शासन से मुक्ति के लिए स्वदेशी और बहिष्कार जैसे महान हथियार दिए थे.
कान्यकुब्ज भोज का हुआ था वसंत पंचमी के दिन जन्म
मुझे स्वाभाविक तौर पर इस अवसर पर भारत की महान परंपरा के बीच कान्यकुब्ज भोज की भी याद आती है, जिनका जन्म आज के ही दिन हुआ था और जिन्होंने शास्त्रार्थ की ऐसी एक स्वस्थ परंपरा निर्मित की, जिसका अनुकरण भारतीय ज्ञान परंपरा में निरंतरता के साथ हो रहा है और इस शास्त्रार्थ परंपरा या शास्त्रार्थ के स्थल को सरस्वती कंठाभरण कहा.
शास्त्रार्थ है, प्रश्न है, उत्तर है, फिर प्रश्न है, फिर उत्तर है, यही किसी जीवंत, श्रेष्ठ लोकतांत्रिक समाज की ताकत भी है. विद्या और ज्ञान की अधिष्ठात्री के पूजन का यह अवसर इसी प्रकार के सुगम्य, सांगीतिक, युक्ति-प्रयुक्ति की परंपरा स्थापित करने का प्रतीक दिन है.
इस महान परंपरा में समकालीन परिदृश्य बहुत अच्छा नहीं दिख रहा है. जब यह अहं मान्यता घर करती जा रही है कि हम जो कह रहे हैं वही अंतिम है. हमारी बातें मानी जाती हैं तो लोकतंत्र है.
ऐसे में वसंतोत्सव उल्लास का, उत्साह का, नवलता का पर्व नहीं हो सकता है. केवल प्रकृति में नवलता होने से जीवन नया नहीं होता है. जीवन नवल हो, सुवासित हो, समाज समंजित हो, इसके लिए समरसता की जरूरत है. बिना मिले, बिना समरस हुए, एक रस हुए, अलग-अलग बजना और अलग-अलग बोलना संगीत को नहीं सृजित करता है.
विविध स्वर जब समन्वित होते हैं, साथ आते हैं तभी संगीत बनता है. समाज जीवन का संगीत भी इससे अलग नहीं हो सकता है. केवल तर्क से भी सरस समाज नहीं बनेगा, केवल तर्क से ही यांत्रिकता आएगी और पुर्जे टकराएंगे. स्वर होगा, लय होगा, कोमलता होगी तो सामंजस्य बनेगा, सहकार बनेगा.
वसंत विविध रंगों के पुष्प, पर सब में सौंदर्य, विविध स्वाद के फल, पर सब में पोषण की क्षमता, विविध नदियों के जल, किंतु सब में रस के भाव को मनुष्य और उसके समाज में जागृत करने का पर्व है. विविधता में भी एक साथ आने की ताकत है.