विवेक दत्त मथुरिया, मथुराः
श्रीकृष्ण का जीवन संघर्ष जन्म से शुरू होता जीवन पर्यंत चलता रहता है, वह ही चेहरे पर मोहिनी मुस्कान लिए, जो उनको सम्पूर्ण बनाती है। उनका मुस्कराते हुए जीवन संघर्ष करना उनके योगयोगेश्वर और तत्वज्ञानी होने की पुष्टि है। आप ही बतयाइए संघर्ष के बीच भला कोई मुस्कराता भी है। एक कृष्ण ही हैं जो संघर्ष की शाश्वता को स्वीकार करते हुए कर्मयोग करते हैं। उनका जीवन के प्रति यह नजरिया अन्याय और उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष का महानायक बनाता है। विचार, जीवन, धर्म-दर्शन, कर्म, न्याय, अन्याय, सरोकार की दृष्टि से गर कुछ भी सनातन है, तो वह स्वयं मे श्रीकृष्ण हैं।
श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण जीवन सनातनता का संदेश है। उनकी सनातनता उनके सरोकारों से युक्त कर्मयोग है। जो कर्म अपनी खुशी के लिए न होकर अपनो की खुशी के लिए किए जाए उसे निष्काम कर्मयोग कहते हैं। यही खासियत एक क्रांतिकारी में होती है। श्रीकृष्ण का मूल स्वभाव बागी है। बागी गहन संवेदनशील मन होता है, जो उत्पीड़न और अन्याय की स्थिति में स्वतः ही आक्रामक तेवरों के साथ मुखर हो उठता है।
बगावत अन्याय के विरुद्ध संवेदनशील मन मे ही जन्म लेती है। क्योंकि संवेदनशील मन प्रेम औऱ करुणा से लवरेज रहता है। प्रेम की अपनी एक सूक्ष्म दृष्टि होती है और वह भी तार्किक। प्रेम में सवाल करने की शक्ति होती है वह भी पूरी तार्किकता साथ, इसलिए प्रेम कभी भी अंधा नहीं होता।
श्रीकृष्ण का गीता का संपूर्ण व्याख्यान अन्याय के विरुद्ध तार्किक मानवीय प्रेम का ही दर्शन है, जिस तरह बिना प्रेम के सेवा संभव नहीं है, ठीक उसी प्रकार बिना प्रेम के क्रांति संभव नहीं है। श्रीकृष्ण के जीवन का विचार, कर्म और सरोकार की दृष्टि से सबसे बड़ा संदेश महाभारत को अवश्यसंभावी बनाना। महाभारत 'धृतराष्ट्री' राजव्यवस्था के खिलाफ खुली बगावत यानी क्रांति थी।
श्रीकृष्ण ने महाभारत रूपी क्रांति के औचित्य को कुरुक्षेत्र में अर्जुन को दिए गए गीता संदेश मे सिद्ध किया है। संघर्ष पथ पर वह मोह को अवरोध नहीं बनने देते। गीता के संदेश के माध्यम से 'अपनों' के मोहपाश में फंसे अर्जुन को मुक्ति कर युद्ध के लिए प्रेरित किया।
श्रीकृष्ण ने दुर्योधनी अहंकार से युक्त धृतराष्ट्री राजव्यवस्था में शामिल भीष्म पितामह, दोर्णाचार्य, कृपाचार्य जैसे लोगो को भी क्षमा नहीं किया, जो लोग आततायी राजसत्ता के समक्ष नतमस्तक रहे। श्रीकृष्ण जीवन की विसंगतियों और विरोधाभास के साथ उसी प्रकार से सन्तुलन बनाये रखते हैं हैं जैसे हम प्रकृति में देखते हैं। श्रीकृष्ण की अद्वितीयता उन्हें पूर्ण ब्रह्म के रूप में स्थापित करती है।
अफसोस तो इस बात का है कि जमाने को श्रीकृष्ण के सरोकारों से दूर रहने में ही समझदारी नजर आती है। गीता का पाठ करने के बाद भी अर्जुन की तरह मोहपाश से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। अन्याय उत्पीड़न के विरुद्ध युद्ध को अवश्यसंभावी का सन्देश गीता के प्रवचन के रूप में प्रत्यक्ष है, उस नजरिए से उसे पढ़ने की कोई जोखिम नहीं उठाना चाहता। इसलिए श्रीकृष्ण जैसे कालजयी क्रांतिकारी महानायक को पूजा पाठ में सीमित कर उनके निष्काम कर्मयोग के संदेश को तिलांजलि दे रखी।
बोलो राधे राधे