भारतीय जीवन में आस्था के सजीव आधार भगवान श्रीकृष्ण के जितने नाम और रूप हैं वे मनुष्य की कल्पना की परीक्षा लेते से लगते हैं.
देवकीसुत, यदुनंदन, माधव, मुकुंद, केशव, श्याम, गोपाल, गोपिका-वल्लभ, गोविंद, अच्युत, दामोदर, मोहन, यशोदानंदन, वासुदेव, राधावर, मधुसूदन, गोवर्धनधारी, कन्हैया, नंद-नंदन, मुरारी, लीला-पुरुषोत्तम, बांके-बिहारी, मुरलीधर, लालबिहारी, वनमाली, वृंदावन-विहारी आदि सभी नाम खास-खास देश-काल से जुड़े हुए हैं और उनके साथ जुड़ी हुई हैं अनेक रोचक और मर्मस्पर्शी कथाएं जो श्रीकृष्ण की अनेकानेक छवियों की सुधियों में सराबोर करती चलती हैं. पूरे भारत में साहित्य, लोक-कला, संगीत, नृत्य, चित्न-कला तथा स्थापत्य सभी क्षेत्नों में श्रीकृष्ण की अमिट छाप देखी जा सकती है.
श्रीकृष्ण सब के प्रिय हैं और उनका स्मरण करते हुए एक ऐसे मोहक चरित्न की छवि उभरती है जो सबके साथ सदैव योग-क्षेम का वहन करती है. यह लोक हर तरह के लोगों से भरा पड़ा है. इसमें दुष्ट, सज्जन, सबल, निर्बल, सात्विक, राजसिक, तामसिक सभी तरह के स्वभाव वाले आते हैं. सबका समावेश करना आसान नहीं होता.
पर कृष्ण हैं कि सबको देखते संभालते हैं. कृष्ण के जीवन में मथुरा में जन्म से लेकर द्वारिका में देह-विसर्जन तक की घटनाएं सीधी रेखा में नहीं घटती हैं. बड़े ही घुमावदार और अप्रत्याशित मोड़ों से गुजरते हुए कृष्ण कृष्ण बनते हैं. वसुदेव और देवकी के पुत्न कृष्ण का जन्म घुप्प अंधेरी अमावस की रात में कारावास में हुआ, तत्काल उन्हें पालन-पोषण के लिए नंद और यशोदा को सौंप दिया गया.
उन्हीं के आंगन में उनका बचपन बीतता है, बचपन से ही नाना प्रकार की बाधाओं और चुनौतियों के साए में वे पलते-बढ़ते हैं. शिशु कृष्ण की बाल-लीलाएं सब का मन मोह लेती हैं जिनका मनोरम चित्न भक्त कवि सूरदासजी ने खींचा है. किशोर कृष्ण की गाथा राधा रानी के साथ अभिन्न रूप से जुड़ कर आगे बढ़ती है. श्रीकृष्ण का स्मरण ‘राधे-श्याम’ युग्म के रूप में ही प्रचलित है.
गोपिकाओं के साथ कृष्ण का मैत्नी, प्रेम और भक्ति का मिलाजुला अद्भुत रिश्ता है. रास लीला कृष्ण, राधा और गोपियों की निश्छल प्रेम माधुरी को प्रकट करती है. श्रीकृष्ण मैत्नी के अनोखे प्रतीक हैं और एक बड़ी मित्न मंडली के बीच रहना उन्हें भाता है. वे शांति काल हो या युद्ध भूमि, हर कीमत पर मित्नता निभाते को तत्पर रहते हैं. वे संबंधों का भरपूर आदर करते हैं पर दुष्ट का संहार भी करते हैं.
वे मुरलीधर हैं और बांसुरी बजाना उनको बड़ा प्रिय है जिसकी धुन पर सभी रीझते हैं. पर वे सुदर्शन चक्र भी धारण करते हैं और अपराधी को कठोर दंड भी देते हैं. वे जन-नायक हैं और लोक हित के लिए राजा, देवता, राक्षस हर किसी से लोहा लेने को तैयार दिखाते हैं. वे नेतृत्व करते हैं और नीतिवेत्ता भी हैं. महाभारत में पांडवों की सहायता की और अर्जुन के रथ पर सारथी रहे तथा उनको परामर्श भी दिया.
सच कहें तो अत्यंत व्यस्त और अनथक यात्नी श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व गत्यात्मकता का विग्रह है. उन्हें तनिक भी विश्रम नहीं है. जिस किसी दुखी ने कातर भाव से पुकारा नहीं कि वे हाजिर हो जाते हैं. उनका खुद का कुछ भी अपना नहीं है, पर वे सबके हैं. द्वापर युग में श्रीकृष्ण विष्णु के अवतार हैं और उनका हर रूप भारतीय मन के लिए आराध्य है.
भक्तवत्सल कृष्ण शरणागत की रक्षा करते हैं और उनकी कृपा के लिए पत्न, पुष्प, फल या जल कुछ भी श्रद्धा से समर्पित करना पर्याप्त होता है. वैसे वे सबके हृदय में बसते हैं उनकी उपस्थिति से ही जीवन का स्पंदन होता है. कृष्ण योगेश्वर भी हैं और भगवद्गीता के माध्यम से सारे उपनिषदों का सारभूत ज्ञान उपस्थित करते हैं. वे गुरु भी हैं और राज-योग, ज्ञान-योग और भक्ति-योग की सीख देते हैं.
अर्जुन के साथ उनका संवाद शिक्षा का प्रारूप प्रस्तुत करता है. कृष्ण जाने कितनों से जुड़े और जोड़ते रहे, पर स्वयं को अप्रभावित रखा और कहीं ठहरे नहीं. द्वापर युग की समाप्ति वेला में कृष्ण उपस्थित होते हैं. उनके बाद महाभारत युद्ध की परिणति के साथ परीक्षित राजा होते हैं और यही समय है जब कलियुग का आरंभ होता है.
उपस्थित हो रहे युगांतर की संधि में कृष्ण प्रकाश स्तंभ की तरह हैं. उनका सूत्न चरैवेति चरैवेति ही था. कृष्ण की जिंदगी के लगाव और उसमें मार्ग की तलाश, समत्व के लिए सतत प्रयत्न ऐसा सूत्न है जो आज भी बासी नहीं है. आज के दौर में युक्त आहार, विहार, चेष्टा और विश्रम जीवन के लिए और अधिक जरूरी हो गया है.