गिरिश्वर मिश्र का ब्लॉग: पांडित्य-परंपरा की अनोखी संपदा को खोना उचित नहीं

By गिरीश्वर मिश्र | Published: October 18, 2022 03:09 PM2022-10-18T15:09:05+5:302022-10-18T15:13:33+5:30

आज के युग में जब ज्ञान सूचनामूलक होता जा रहा है, निजी अनुभव से अधिक तकनीकी पर निर्भर करने लगा है और ज्ञान की सार्थकता रुपए पैसे कमाने की संभावना से आंकी जाने लगी है, तब परंपरागत शास्त्र-ज्ञान को सुरक्षित रखना कठिन होने लगा है।

It is not proper to lose the unique wealth of the pedantic tradition | गिरिश्वर मिश्र का ब्लॉग: पांडित्य-परंपरा की अनोखी संपदा को खोना उचित नहीं

गिरिश्वर मिश्र का ब्लॉग: पांडित्य-परंपरा की अनोखी संपदा को खोना उचित नहीं

Highlightsसैद्धांतिक अमूर्तन की दिशा में पांडित्य परंपरा ने विशेष उपलब्धि प्राप्त की है।कहना न होगा कि अनेक प्राचीन ग्रंथों में विभिन्न विषयों को लेकर गहन चिंतन प्राप्त होता है जिसकी गुणवत्ता और परिपक्वता संदेह से परे है।ज्ञान की यह परंपरा विद्यार्थी से कठिन साधना की अपेक्षा करती है।

भारत में ज्ञान का अनुभव और सृजन प्राचीन काल से वाचिक परंपरा में होता आया है। भारतीय ज्ञान परंपरा के बौद्धिक परिवेश में प्रवेश करने पर ज्ञान के प्रति निश्छल उत्सुकता और अदम्य साहस के प्रमाण पग-पग पर मिलते हैं। इसमें आलोचना और परिष्कार का कार्य भी सतत होता रहा है। पंडित जन विषय से जुड़े प्रश्नों के प्रतिपादनों पर अनुशासित ढंग से वाद-विवाद और संवाद में भी संलग्न होते रहते हैं। 

सैद्धांतिक अमूर्तन की दिशा में पांडित्य परंपरा ने विशेष उपलब्धि प्राप्त की है। इस दृष्टि से शास्त्रार्थ की अद्भुत परंपरा चिंतन द्वारा सूक्ष्म तत्वों के अवगाहन तथा उसके खंडन-मंडन की एक पारदर्शी एवं सार्वजनिक विमर्श की व्यवस्था को दर्शाती है। कहना न होगा कि अनेक प्राचीन ग्रंथों में विभिन्न विषयों को लेकर गहन चिंतन प्राप्त होता है जिसकी गुणवत्ता और परिपक्वता संदेह से परे है। 

ज्ञान की यह परंपरा विद्यार्थी से कठिन साधना की अपेक्षा करती है। आज के युग में जब ज्ञान सूचनामूलक होता जा रहा है, निजी अनुभव से अधिक तकनीकी पर निर्भर करने लगा है और ज्ञान की सार्थकता रुपए पैसे कमाने की संभावना से आंकी जाने लगी है, तब परंपरागत शास्त्र-ज्ञान को सुरक्षित रखना कठिन होने लगा है। इसके लिए जरूरी एकनिष्ठ आस्था और समर्पण अब दुर्लभ वस्तु होती जा रही है। 

इसे ध्यान में रख कर भारत सरकार ने शास्त्र-परंपरा में निष्णात संस्कृतज्ञ विद्वानों को राष्ट्रपति सम्मान और बादरायण सम्मान द्वारा अलंकृत करने की सराहनीय परंपरा आरंभ की थी। यह डॉक्टर  सर्वपल्ली राधाकृष्णन के राष्ट्रपति काल में आरंभ हुई थी और अनवरत चल रही थी। विगत तीन वर्षों से यह स्थगित हो गई है। ज्ञान-परंपरा की सामाजिक प्रतिष्ठा की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण पहल थी। 

ऐसा सुनाई पड़ा है कि विद्वानों के चयन के मानदंड पर पुनर्विचार हो रहा है और शोध प्रकाशनों की संख्या को अनिवार्य आधार के रूप में ग्रहण करने पर विचार हो रहा है। आजकल शोध प्रकाशनों को लेकर जो स्थिति देश में खड़ी हुई है वह चिंताजनक हो रही है। पारंपरिक ज्ञान परंपरा में वाचिकता महत्वपूर्ण रही है और शास्त्रीय ज्ञान में पांडित्य के मूल्यांकन का आधार शास्त्र-ज्ञान, उसका प्रतिपादन और संरक्षण होना चाहिए। 

आज जब सरकार द्वारा लागू की जा रही नई शिक्षा नीति भारत की ज्ञान परंपरा की ओर उन्मुख हो रही है और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस के नए पद को स्वीकृति दे रहा है तो पांडित्य परंपरा को उसके स्वाभाविक रूप में समादृत करना उचित होगा। उसे नई चाल में ढाल कर ज्ञान की धरोहर के साथ न्याय न हो सकेगा। शिक्षा मंत्रालय को इस प्रतिष्ठित सारस्वत आयोजन को उसके मौलिक रूप में संचालित करना चाहिए।

Web Title: It is not proper to lose the unique wealth of the pedantic tradition

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