जीवन की आपाधापी में गुम होते रिश्तों के बीच वक्त पाने के लिए वक्त से ही दौड़ लगाता इंसान
By राहुल मिश्रा | Published: May 3, 2018 10:46 AM2018-05-03T10:46:55+5:302018-05-03T10:47:31+5:30
वक़्त की बात करते करते बस एक ही बात कही जा सकती है- ''आज फिर से वही वक्त आया है, बस किरदार बदल गए हैं।''
समय कभी किसी के लिए नहीं रुकता, घड़ी की इन सुइयों को देखकर यही लगता है कि हम ठीक उसी तरह खुद को भूल चुके हैं जैसे कोई नींद के आगोश में खुद को भुला देता है या भूल जाना चाहता है। हालांकि, बीती हुई जिंदगी के तमाम पहलू, वो तमाम बातें, वो तमाम प्यार भरी, उलटी-सीधी हरकतें यादें बनकर आ ही जाती हैं और हम खुद को मदहोश कर लेते हैं उन यादों में, क्योंकि शायद फर्क यादों का होता है।
एक बार यादों की नगरी में प्रवेश कर जाओ, बस फिर क्या, हर एक याद आपसे आपका हाल चाल पूछ बैठेगी। कहिये जनाब क्या हाल हैं आपके? आपका आना आजकल इधर कम हो गया है और आप हैं कि कमोबेश मुस्कुरा भर रह जाते हैं, लेकिन वो हंसी बनावटी नहीं होती. क्या फर्क पड़ता है वो क्लोज-अप स्माइल हो या कोई और आपको वहाँ पोज नहीं देना, वहाँ तो बस आप हैं और वो यादें।
बचपन में हमारे पापा हम दोनों भाइयों के लिए एक जैसे से ही कपडे बनवाते थे ताकि कोई ये ना कह सके कि मेरा वाला अच्छा है या तेरा वाला या उस समय की तंग हालत और बंद मुट्ठी ऐसा करवाती हो। खैर! अच्छा लगता था लेकिन वक़्त बीतते बीतते दिल में तमन्नाएं घर बना लेती हैं। पापा हम नहीं पहनेंगे ये एक से कपडे, क्या आप एक से ही कपडे बनवाते हैं।
हम फ़िरोज़ाबाद(आगरा) से हैं हम लोगों ने ताजमहल कितनी बार देखा कह नहीं सकते, अब तो याद भी नहीं। उन दिनों तो ताजमहल के नीचे जहां कब्र भी हैं वहाँ भी जाने के लिए सीढियां खुली हुई थीं। ये ऊंची ऊंची दीवारें और उन दीवारों पर क्या चित्रकारी थी, जी कमाल! और बहुत अच्छा अच्छा लिखा हुआ था, तब हमारे अंकल जी की पोस्टिंग वहीं थी ताजमहल पर ही, बस ये ना पूंछो क्या मौज आती थी। नीचे कब्र वाले इलाके में जाकर बड़ा मजा आता था। जब भाई पुकारता 'छोटे' और वो आवाज चारों और गूँज जाती ऊपर से नीचे तक, दाएं से बायें तक और वो छोटे की हंसी की गूँज, 'बड़े भैया' 'बड़े भैया' जब मैं जोर जोर से आवाजें लगाता और वो हंसी की गूँज, वाह क्या दिन थे लेकिन बड़ी जल्दी बीत गए और बन गए याद।
माँ कहती थी एक बार जब हम गाँव गए तो गाँव की सभी औरतें अपने घर के बाहर चबूतरे पर निकल आईं। बस वो दिन आखिरी दिन था, हमारी दादी ने कभी एक से कपड़े ना बनवाने की हिदायत पापा को दे दी। कभी सोचता हूँ तो बहुत प्यार आता है उन एक से कपड़े पहनने पर।
ये यादें भी अजीब होती हैं। कभी हँसाती हैं तो कभी रुलाती हैं और जब ये जिंदगी ले जाती है हमें दूर अपनों से, तब रह रहकर याद आता है वो बचपन, वो शरारतें, वो यादें, वो बातें, माँ का प्यार, भाई का झगड़ना, बहन की फरमाइशें और ना जाने क्या क्या यादें, हाँ यादें।
इन यादों के साथ वक़्त साथ ही रहता है, जो हर वक़्त अपनी रफ़्तार से आपके साथ चलता रहता है। कई बार बीता हुआ वक़्त वापस आता है लेकिन अपने साथ कई चीजों को बदल देता है। वक़्त की बात करते करते बस एक ही बात कही जा सकती है- ''आज फिर से वही वक्त आया है, बस किरदार बदल गए हैं।''