राहुल का ‘गले लगाना’ आकस्मिक नहीं था!

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: July 27, 2018 01:54 AM2018-07-27T01:54:26+5:302018-07-27T01:54:26+5:30

अविश्वास प्रस्ताव लाना विपक्ष का जन्मसिद्ध अधिकार है। लेकिन उसे भी अस्वीकार कर दिया गया। इसलिए गले लगाने में कुछ भी गलत नहीं है। इस प्रकार राहुल की सोच शुक्रवार को कार्यरूप में परिणत हो गई।

rahul gandhi hug and wink was not accidental in lok sabha | राहुल का ‘गले लगाना’ आकस्मिक नहीं था!

राहुल का ‘गले लगाना’ आकस्मिक नहीं था!

हरीश गुप्ता

कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभालने के बाद से ही राहुल गांधी तेजी से राजनीति के गुर सीख रहे हैं। एक तरफ जहां उन्होंने पिछले सप्ताह कांग्रेस वर्किग कमेटी में कुछ पुराने नेताओं को बाहर करके पार्टी और राजनीतिक पर्यवेक्षकों को चकित कर दिया, वहीं उन्होंने एक स्पष्ट संकेत भी दिया कि पीढ़ीगत बदलाव का समय आ गया है। फिर अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान लोकसभा में उनका ‘हग एंड विंक’ (गले लगाने और आंख से इशारा करने का) तूफान आया। 

अविश्वास प्रस्ताव पर बहस पृष्ठभूमि में चली गई और ‘हग एंड विंक’ स्तंभकारों के बीच दिन-रात चर्चा का विषय बन गया। ऊपर से, राहुल गांधी खुद ही इस मामले में विरोधाभासी संकेत दे रहे हैं। उन्होंने उसी दिन एक टीवी चैनल से कहा था कि उनका ‘गले लगाना’ एक सहजस्फूर्त निर्णय था, जब वे अपना भाषण खत्म करके बैठे ही थे और फिर उठकर मोदी के पास चले गए। आंख का इशारा भी तात्कालिक था। लेकिन जब वे मंगलवार को महिला पत्रकारों से इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में हाई-टी पर मिले तो उनसे कहा कि वे पिछले कुछ समय से इसके बारे में सोच रहे थे।

राहुल ने आगे खुलासा नहीं किया। लेकिन उनके करीबी सूत्रों का कहना है कि राहुल गांधी ने अपनी ‘हग’ योजना पर काफी विचार किया था। इन सूत्रों ने यह भी बताया कि पार्टी से जुड़े आंतरिक कोर ग्रुप में सोनिया-राहुल और प्रियंका ने इस तरह के कदमों के संभावित परिणामों पर विचार-विमर्श किया। सोनिया गांधी थोड़ी चिंतित भी थीं कि यह संसदीय प्रोटोकॉल के अनुरूप नहीं हो सकता है। लेकिन प्रियंका ने कहा कि मोदी ने बजट सत्र के दौरान अविश्वास प्रस्ताव की अनुमति नहीं देकर संसदीय प्रोटोकॉल को तोड़ा है। 

अविश्वास प्रस्ताव लाना विपक्ष का जन्मसिद्ध अधिकार है। लेकिन उसे भी अस्वीकार कर दिया गया। इसलिए गले लगाने में कुछ भी गलत नहीं है। इस प्रकार राहुल की सोच शुक्रवार को कार्यरूप में परिणत हो गई। वास्तव में, राहुल गांधी का भाषण इतना प्रभावशाली था कि वे अभिभूत हो गए और बैठ गए थे। अचानक उन्हें अहसास हुआ कि वे पूर्व योजना के अनुसार ‘हग’ करना भूल गए थे। वे पुन: उठ खड़े हुए और एक मिनट से भी कम समय के लिए बोलना शुरू कर दिया। इसके बाद वे मोदी के पास चले गए और उन्हें गले लगा लिया। अगले दिन सुर्खियों में अविश्वास प्रस्ताव नहीं बल्कि उनका गले मिलना था। 

राहुल का पीएम कार्ड

कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक के बाद जब से ‘सूत्रों’ ने मीडिया से कहा है कि राहुल गांधी पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद का चेहरा होंगे, तब से हंगामा मच गया है। कार्यकारिणी की बैठक के पहले तक राहुल गांधी स्पष्ट संकेत भेज रहे थे कि उनका लक्ष्य 2019 में मोदी को हराना है, न कि खुद प्रधानमंत्री बनना। करीब   डेढ़ साल पहले उन्होंने पत्रकारों के एक समूह - जिसमें मैं भी शामिल था - के साथ अनौपचारिक बातचीत में कहा था कि वे 2024 या उसके आगे तक इंतजार करने को तैयार हैं, लेकिन मोदी को 2019 में जाना होगा। सूत्रों के अनुसार कार्यकारिणी की रिपोर्ट से नुकसान हो सकता था, क्योंकि मायावती, ममता बनर्जी, शरद पवार आदि नाराज हो सकते थे। राहुल गांधी ने शरद पवार के साथ तीन अवसरों पर अपनी जो लंबी चर्चा की थी, यह उसके भी खिलाफ था। लेकिन राहुल ने मंगलवार को यह नुकसान होने से बचा लिया, जब महिला पत्रकारों से उन्होंने कहा कि कोई भी प्रधानमंत्री बन सकता है, चाहे वे ममता हों या माया। राहुल ने कहा कि 2019 में कांग्रेस किसी भी ‘गैर-आरएसएस समर्थित प्रधानमंत्री’ को समर्थन देने को तैयार है। यह पूछे जाने पर कि क्या कांग्रेस महिला प्रधानमंत्री को स्वीकारने के लिए तैयार है, उन्होंने कहा कि कोई भी, जो आरएसएस समर्थित न हो, स्वीकार्य है। प्रधानमंत्री पद के मुद्दे पर कांग्रेस के ऐसा कहने से इस पद के दावेदारों के चेहरे खिल गए हैं।

ममता चाहती हैं गठबंधन

अब यह स्पष्ट हो रहा है कि कांग्रेस आने वाले लोकसभा चुनावों में बसपा और तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन करेगी। माकपा महासचिव सीताराम येचुरी प। बंगाल में कांग्रेस के साथ गठबंधन के इच्छुक थे, लेकिन चीजें काम नहीं कर रही हैं। एक कारण यह है कि कांग्रेस और वामपंथी दल केरल में कट्टर प्रतिद्वंद्वी हैं। कांग्रेस के रणनीतिकारों ने राहुल गांधी को सलाह दी है कि वामपंथी दल समान विचारधारा वाली पार्टियों की सरकार को बाहर से समर्थन देंगे ही। इसलिए, वाम दलों को प। बंगाल, केरल और त्रिपुरा में अकेले ही चुनाव लड़ने दिया जाए। अन्य राज्यों में तीन-चार सीटों पर उनका दावा है, जिसे बाद में सहानुभूतिपूर्वक माना जा सकता है। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को ममता बनर्जी के साथ जाना चाहिए। प। बंगाल में 42 सीटों में से 7-8 सीटों पर कांग्रेस का हक है। लेकिन तृणमूल उसे 5-6 सीटें देने की इच्छुक है। तृणमूल-कांग्रेस गठबंधन 39 लोकसभा सीटें जीत सकता है, क्योंकि वामपंथी दलों के अधिकांश कैडर या तो भाजपा में चले गए हैं या तृणमूल में। तृणमूल को 2014 के लोकसभा चुनाव में 34 सीटें मिली थीं। कांग्रेस और तृणमूल दोनों ने  तब अलग-अलग चुनाव लड़ा था। ममता के खिलाफ एंटीइन्कम्बेंसी, गोरक्षा, हिंदू भावनाओं और मोदी लहर के बल पर भाजपा का लक्ष्य प। बंगाल में 21 सीटें जीतने का है। सत्ता विरोधी लहर से उबरने और  प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में उभरने की उम्मीद में ममता कांग्रेस के हाथ मिलाना चाहती हैं।

सीट बंटवारे का फामरूला

सपा-बसपा ने उत्तर प्रदेश में सीटों के बंटवारे का फामरूला बनाया है और कांग्रेस तथा रालोद को इसके बारे में बताया है। फामरूला यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में जिस पार्टी ने जिस सीट पर जीत हासिल की है या दूसरे स्थान पर रही है, उसे वह सीट दी जाएगी। इस फामरूले के हिसाब से कांग्रेस सात सीटें पा सकती है, जबकि रालोद के अजित सिंह दो सीटों पर अपना दावा पेश कर सकते हैं। बाकी बची सीटें सपा-बसपा के पास जाएंगी। राहुल गांधी के इर्दगिर्द आरपीएन सिंह, जितिन प्रसाद और अन्य युवा नेताओं का जो घेरा है, वे चाहते हैं कि पार्टी यथार्थवादी बने और दस सीटों पर समझौता करे। मंगलवार को, बसपा नेता मायावती ने कहा कि वे विपक्षी गठबंधन में तभी शामिल होंगी, जब मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान चुनावों में और लोकसभा चुनाव में बसपा को ‘सम्मानजनक संख्या’ में सीटें मिलेंगी। जाहिर है कि बसपा कांग्रेस को दस सीटें देने से पहले अन्य राज्यों में उसकी पूरी कीमत वसूल करना चाहती है। इसीलिए राहुल ने पीएम कार्ड खेला है!

गांधीनगर से जयंत?

बुजुर्ग भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी के बेटे जयंत आडवाणी की पिछले माह प्रधानमंत्री के साथ लंबी बैठक हुई। इसके बाद नरेंद्र मोदी और अमित शाह मिलकर लालकृष्ण आडवाणी के घर गए। वे जानना चाहते थे कि 2019 के लोकसभा चुनाव में गांधीनगर की अपनी परंपरागत सीट पर आडवाणी खुद लड़ना चाहते हैं या वहां से अपनी पसंद के किसी उम्मीदवार को उतारना चाहते हैं। 75 वर्ष से ऊपर के नेता पुन: चुनाव लड़ना चाहते हैं या अपने रिश्तेदारों को खड़ा करना चाहते हैं, यह जानने का काम भाजपा नेतृत्व कर रहा है। इस बैठक के दौरान मोदी चुप ही रहे और बोलने का काम अमित शाह ने किया। उन्होंने जानने का प्रयत्न किया कि लालकृष्ण आडवाणी चुनाव लड़ना चाहते हैं या नहीं। समझा जाता है कि आडवाणी ने उनकी बात तो सुनी, लेकिन अपना मत व्यक्त नहीं किया।

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