प्रमोद भार्गव का ब्लॉग: अपराधीकरण लाइलाज बीमारी

By प्रमोद भार्गव | Published: January 29, 2020 05:44 PM2020-01-29T17:44:42+5:302020-01-29T17:44:42+5:30

बहरहाल केंद्र सरकार को इस ओर से मुंह मोड़े रखने की बजाय ऐसे कानून को अस्तित्व में लाने की जरूरत है, जिससे दागी संसद, विधानसभाओं और त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की देहरी पर ही ठिठके रह जाएं.

Pramod Bhargava's blog: criminalizing incurable disease | प्रमोद भार्गव का ब्लॉग: अपराधीकरण लाइलाज बीमारी

प्रतीकात्मक तस्वीर

Highlightsदागियों का सदनों में प्रवेश प्रतिबंधित हो इसका उपाय कानून बनाकर संसद को ही करना है.राजनीति का अपराधीकरण भारतीय लोकतंत्र की लाइलाज बीमारी बन गई है.  

सर्वोच्च न्यायालय ने निर्वाचन आयोग को ऐसे कायदे-कानून बनाने के निर्देश दिए हैं, जिससे राजनीति में अपराधीकरण पर रोक लगे और दागी नेता विधायिका का हिस्सा न बनने पाएं. यदि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को चुनाव लड़ने से रोकने की दिशा में इस निर्देश को एक बड़ी पहल माना जा सकता है. परंतु यह पहल अंजाम तक कैसे पहुंचे, यह एक बड़ा प्रश्न बीते कई दशकों से अक्षुण्ण बना हुआ है. इसीलिए राजनीति का अपराधीकरण भारतीय लोकतंत्र की लाइलाज बीमारी बन गई है.    

दरअसल सर्वोच्च न्यायालय ने 10 जुलाई 2013 को दिए एक फैसले के जरिए जन-प्रतिनिधित्व कानून की धारा (8;4) को अंसवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया था. इस आदेश के मुताबिक अदालत द्वारा दोषी ठहराते ही जनप्रतिनिधि की सदस्यता समाप्त हो जाएगी. अदालत ने यह भी साफ किया था संविधान के अनुच्छेद 173 और 326 के अनुसार दोषी करार दिए लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल ही नहीं किए जा सकते हैं. जबकि इस धारा को निरस्त करने से पहले तक इसी धारा के तहत सजायाफ्ता जन-प्रतिनिधियों को निर्वाचन में भागीदारी के सभी अधिकार मिले हुए थे.

दरअसल, हमारे राजनेता और तथाकथित बुद्धिजीवी बड़ी सहजता से कह देते हैं कि दागी, धनी और बाहुबलियों को यदि दल उम्मीदवार बनाते हैं तो किसे जिताना है, यह तय स्थानीय मतदाता को करना है. बदलाव उसी के हाथ में है. वह योग्य प्रत्याशी का साथ दे और शिक्षित व स्वच्छ छवि के प्रतिनिधि का चयन करें. लेकिन ऐसी स्थिति में अक्सर मजबूत विकल्प का अभाव होता है.  गोया, ऐसे हालात में सवाल चकरघिन्नी होकर वहीं ठहर जाता है, जहां से शुरू होता है. दरअसल दागियों का सदनों में प्रवेश प्रतिबंधित हो इसका उपाय कानून बनाकर संसद को ही करना है.

इस दिशा में न्यायालय हस्तक्षेप करके विधायिका को कानून बनाने के लिए उत्प्रेरित तो कर सकती है, लेकिन वह इस संदर्भ में कोई नया कानून अस्तित्व में नहीं ला सकती. बहरहाल केंद्र सरकार को इस ओर से मुंह मोड़े रखने की बजाय ऐसे कानून को अस्तित्व में लाने की जरूरत है, जिससे दागी संसद, विधानसभाओं और त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की देहरी पर ही ठिठके रह जाएं.

Web Title: Pramod Bhargava's blog: criminalizing incurable disease

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