श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा साल 1951 में ‘भारतीय जन संघ’ की नींव रखे जाने के साथ ही एक हिंदूवादी पार्टी का उदय हुआ। साल 1977 में इमरजेंसी के बाद जनसंघ को ‘जनता पार्टी' के तौर पर राजनीति में स्थापित किया गया और उसके बाद 1980 में पार्टी का नाम बदल कर आज की “भारतीय जनता पार्टी'' यानि बीजेपी (BJP) हो गया। गठऩ के ग्यारह साल के अंदर ही भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश में साल 1991 के लोकसभा चुनावों में 221 सीटें जीत कर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाकर इतिहास रच दिया। वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी केंद्र में सत्तासीन है और देश के प्रधानमंत्री हैं नरेंद्र मोदी।
खैर! देश में जो भी लोग भारतीय जनता पार्टी को 'जनता पार्टी' के समय से देख रहे हैं उन्हें पता ही होगा कि उस समय से लेकर 2009 तक लालकृष्ण आडवाणी (L.K. Advani) की गिनती देश और पार्टी के कद्दावर नेताओं में हुआ करती थी। पार्टी के अंदरूनी फैसले आडवाणी के मशवरे के बिना नहीं लिए जाते थे लेकिन समय ऐसा बदला कि आडवाणी की देशस्तरीय राजनीति हिचकोले खाने लगी।
कहा जाता है कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को पार्टी का चेहरा और प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार आडवाणी के कहने पर ही बनाया गया था। शायद इसके पीछे की वजह यह भी हो सकती है कि पार्टी के अंदर के नेताओं में ही यह विचार पैर पसारने लगा था कि आडवाणी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का उतना व्यापक विकास नहीं हो पाएगा जितना उदार छवि वाले वाजपेयी के नेतृत्व में हो सकता था।
वजह साफ थी क्योंकि 1951 में ‘भारतीय जन संघ’ की स्थापना और 1980 में पार्टी विस्तार के बाद पहले पहले आम चुनाव में कोई भी खास सफलता नहीं मिली थी लेकिन फिर भी आज़ादी के बाद देश की जनता का सकारात्मक नजरिया पार्टी के लिए देखने को मिला था। (जरूर पढ़ेंः कर्नाटक चुनाव: "मिशन 150" से 130 सीटों पर क्यों आ गए बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह?)
पार्टी उदय के बाद दो नेताओं के नाम प्रमुखता से लोगों के सामने आए, लाल कृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी, हालांकि आडवाणी को हमेशा से ही यह लगता रहा कि वाजपेयी के बाद उनका नंबर आएगा। आडवाणी को साल 2009 में BJP (भाजपा) के चुनावी अभियान की अगुवाई का मौका तो मिला, लेकिन वे पार्टी को उस मुकाम तक नहीं पहुंचा पाए और चुनाव हार गए।
जानकारों का मानना है कि यही वो समय था जब आडवाणी को पार्टी के मुख्य चेहरे से दरकिनार करना शुरू किया जाने लगा। इसपर पूरी तरह से मोहर तब लगी जब मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली कांग्रेस सरकार के खिलाफ 2014 के अभियान की कमान पार्टी ने उनके हाथों से लेकर नरेंद्र मोदी को दे दी। इसके साथ ही यह तय हो गया था कि आडवाणी का प्रधानमंत्री बनने का सपना शायद ही पूरा हो पाए। बाकी कसर 2014 के चुनावों में भाजपा को मिले प्रचंड बहुमत ने पूरी कर दी। (जरूर पढ़ेंः कर्नाटक स्पेशलः 6 हिस्सों में बंटा है कर्नाटक, जानिए कहां कांग्रेस चटाती है BJP-JDS को धूल)
अब हाल ही में देश से बाहर मलेशिया में कुछ ऐसी समानताएं देखने को मिली हैं जिसके बाद लोगों का यह मानना है कि लालकृष्ण आडवाणी अब भी नरेंद्र मोदी को पीछे छोड़ भारत के प्रधानमंत्री बन सकते हैं। दरअसल मलेशिया के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री महातिर बिन मोहम्मद और लालकृष्ण आडवाणी, इन नेताओं के इर्द-गिर्द के सियासी हालात, उम्र, अतीत और वर्तमान काफी हद तक मिलते-जुलते हैं। एक ओर भारत में आडवाणी को जिस उम्र में प्रधानमंत्री बनने का इंतजार है तो महातिर ने लगभग उसी उम्र में यह जंग जीत ली है। हालाँकि आडवाणी इन सियासी आशंकाओं को पहले ही नकारते हुए कह चुके हैं कि अब वो प्रधानमंत्री की दौड़ में नहीं हैं।
आपको बता दें कि इस पूरे सियासी गणित की कहानी इन दोनों नेताओं की उम्र के आसपास दौड़ रही है। आडवाणी की उम्र अभी 90 साल ही है, जबकि महातिर 92 साल के हो चुके हैं। महातिर दुनिया के सबसे बुजुर्ग प्रधानमंत्री होने का रिकॉर्ड अपने नाम कर चुके हैं। अब लोग उम्र के गठजोड़ को दरकिनार कर यही कयास लगा रहे हैं कि जब महातिर 92 साल की उम्र में प्रधानमंत्री बन सकते हैं तो लालकृष्ण आडवाणी 90 साल की उम्र में प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकते?