चुनाव स्पेशल: क्या बीएस येदियुरप्पा के कारण कर्नाटक हार जाएगी बीजेपी?
By खबरीलाल जनार्दन | Published: May 8, 2018 10:01 AM2018-05-08T10:01:06+5:302018-05-08T16:14:56+5:30
साल 2013 के चुनाव में येदियुरप्पा अपनी पार्टी लेकर मैदान में उतरे थे और 200 से ज्याादा उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई हो थी।
बीजेपी के सीएम उम्मीदवार बीएस येदियुरप्पा लिंगायत समुदाय से आते हैं। लिंगायत कर्नाटक में कोलर से लेकर विदर तक फैले हुए हैं। उनकी आबादी करीब 14 फीसदी बताई जाती है। लेकिन ये कर्नाटक की सबसे बड़ी अगड़ी जाति के सबसे ज्यादा प्रभावशाली संप्रदाय है। लिंगायतों के कर्नाटक में करीब 400 छोटे-बड़े मठ हैं। ये मठ मंदिरों व पूजा पाठ के नहीं बल्कि कर्नाटक सभी बड़े इंजीनियरिंग कॉलेजों, मेडिकल कॉलेजों, ट्रांसपोर्ट कंपनियों के ट्रस्टी हैं। यानी कि एक तरह से कर्नाटक की आर्थव्यवस्था में इनका अहम योगदान है। कर्नाटक की 224 सीटों में 100 सीटों की जीत-हार पर इनका प्रभाव देखा जाता है।
कर्नाटक के इतिहास में हुए अब तक 13 विधानसभा चुनावों में 22 मुख्यमंत्रियों को ध्यान देखेंगे तो पाएंगे कि इनमें ज्यादातर लिंगायत संप्रदाय से आए। लेकिन साल 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने लिंगायत संप्रदाय से आने वाले सीएम वीरेंद्र पाटिल को गद्दी से उतारकर लिंगायतों को नाराज कर दिया।
उसी वक्त लिंगायतों के संप्रदाय से आने वाला एक जमीन से उठा कद्दावर नेता अपनी सियासी जमीन बना रहा था। उसने साल 1999 के चुनाव आते-आते प्रदेश की राजनीति में कदम रखा। और साल 2004 के चुनावों में इस शख्स ने अकेले दम पर दक्षिण में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को एक संगठन के तौर पर खड़ा किया। साल 2004 में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी। तब कर्नाटक की दूसरी सबसे प्रभुत्वसंपन्न वोक्कालिग्गा संप्रदाय से आने वाले एचडी कुमार स्वामी की जनता दल (सेकुलर) के साथ बीजेपी सरकार भी बनाई। (जरूर पढ़ें: कर्नाटक विधानसभा चुनाव 2018: कांग्रेस के खिलाफ आग उगल रहे हैं ओवैसी, BJP को होगा करारा फायदा)
लेकिन एचडी कुमारस्वामी की ओर से वायदाखिलाफी किए जाने और साल 2008 में 7 दिनों के भीतर येदियुरप्पा की सरकार गिराए जाने के बाद येदियुरप्पा और मजबूती से प्रदेश में जम गए। साल 2008 में परिसीमन के बाद अगड़ी जातियों की 16 सीटें कम होने के बाद भी बीजेपी की बहुमत वाली सरकार बनवाई।
कर्नाटक में परीसीमन यानी विधानसभा सीटों का पुर्नमुल्याकंन। साल 2008 से पहले कर्नाटक में 224 सीटें थीं, परिसीमन के बाद भी 224 ही सीटें रखी गईं। लेकिन इनमें एक बड़ा बदलाव आरक्षित सीटों को लेकर हुआ। साल 2008 से पहले कर्नाटक में कुल 35 सीटें आरक्षित हुआ करती थीं। इनमें 33 अनुसूचित जाति व 2 अनुसूचित जनजाति। लेकिन साल 2008 में हुए परिसीमन में कर्नाटक में 51 सीटें आरक्षित कर दी गईं। इनमें 36 अनुसूचित और 15 अनुसूचित जनजाति जातियों के लिए।
इस वक्त तक बीजेपी को अगड़ी जाति की पार्टी के तौर पर देखा जाता था। ऐसे में कर्नाटक में सामान्य सीटें कम होना बीजेपी के लिए नकारात्मक होना चाहिए था। पर यह बीएस येदियुरप्पा की सूझबूझ थी कि बीजेपी ने राज्य में 110 सीटें जीत लीं और येदियुरप्पा के अगुवाई में सरकार बनाई। लेकिन बीजेपी के 5 साल शासनकाल में 3 मुख्यमंत्री बदले। (जरूर पढ़ें: एचडी देवगौड़ाः ज्यादा होशियारी ने औंधे मुंह गिराया, इसबार बन सकते हैं किंगमेकर)
बीएस येदियुप्पा को 31 जुलाई 2011 को कर्नाटक की सीएम की गद्दी छोड़नी पड़ी। उन पर भ्रष्टाचार के आरोप थे। तब यह बात खूब चर्चा में रही कि भ्रष्टचार आरोपों को तूल देने में बीजेपी के कुछ नेता शामिल थे। इसके बाद कर्नाटक की सीएम की कुर्सी पर पहले येदियुरप्पा के ही दाहिने हाथ कहे जाने वाले सदानंद गौड़ा को बिठाया गया। लेकिन 343 दिनों भीतर उन्हें बीजेपी ने गद्दी से उतार कर कर्नाटक बीजेपी दूसरे दिग्गज नेता जगदीश शेट्टार को गद्दी पर बिठा दिया गया।
यह येदियुरप्पा को बिल्कुल नहीं फबा और उन्होंने बीजेपी छोड़कर (कुछ लोगों को मानना है कि उन्हें पार्टी से बेदखल कर दिया गया था) अपनी पार्टी कर्नाटक जनता पक्ष (केजीपी) का गठन करना पड़ा। साल 2013 का चुनाव बीएस येदियुरप्पा ने अपनी पार्टी के बैनर तले लड़ा। लेकिन इसका नतीजा यह कि हुआ कि साल 2008 में 110 सीटें जीतने वाली बीजेपी 40 सीटों पर सिमट गई। बल्कि बीजेपी के 110 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। दूसरी तरफ लिंगायतों के मसीहा 204 सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद 6 सीटों पर सिमट गए। चुनाव से पहले बीजेपी ने येदियुरप्पा के भ्रष्टाचार के आरोपों को जमकर उछाला।
यह सिलसिला तब भी जारी रहा, जब येदियुरप्पा दोबारा बीजेपी में शामिल हो गए और बीजेपी के सीएम कैंडिडेट घोषित कर दिए गए। इसके बाद मीडिया को संबोधित करते हुए बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की जुबान फिसल जाती और वे कहते हैं कर्नाटक की सबसे भ्रष्ट सरकार येदियुरप्पा की सरकार थी। बगल के साथी के यह याद दिलाने पर कि येदियुरप्पा तो अपने ही साथ हैं, वे अपना बयान बदलते हैं। (जरूर पढ़ें: कर्नाटक विधानसभा चुनाव 2018: बीजेपी का कर्नाटक चुनाव प्रचार का मास्टर प्लान LEAK)
यह अकस्मात उठा कोई कारण नहीं है कि बीएस येदियुरप्पा को बीजेपी के स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नेरंद्र मोदी की 4 दिन में 21 ताबड़तोड़ रैलियों में एक भी दिन मंच साझा नहीं करने का कार्यक्रम बनाया गया। यह भी महज एक संयोग नहीं है कि बीएस येदियुरप्पा के बेटे का टिकट काट दिया गया। उम्र में नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ से बड़े होने और कर्नाटक में लिंगायतों का प्रतिनिधित्व करने वाले येदियुरप्पा का उनके सामने नतमस्तक होना।
ये सभी लक्षण कर्नाटक के चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में बीजेपी के लिए सबसे बड़ी गले की फांस बनी हुई है। बीजेपी इस बार कर्नाटक चुनाव येदियुरप्पा के चेहरे को आगे कर के लड़ रही है। लेकिन ऐसा महज उनके लिंगायत होने की वजह से है। उन्हें महज एक बोनस कूपन की तरह देखा जा रहा है। वरन, यह बात बीजेपी के क्रियाकलापों से जाहिर हो रही है। ऐसे में अगर कर्नाटक की जनता को येदियुरप्पा की उपेक्षा का यह संदेश पहुंच गया तो यह बीजेपी के ट्रंप कार्ड के बजाए आत्मघाती कार्ड बन जाएगा। (जरूर पढ़ें: कर्नाटक विधानसभा चुनाव 2018: ना बीजेपी, ना कांग्रेस, जेडीएस बनाएगी कर्नाटक में सरकार और ये होंगे मुख्यमंत्री!)
दूसरी खुद येदियुरप्पा बीते चुनाव में अपनी अकेली छवि पर मैदान में उतर देख चुके हैं। उन्हें करीब से पता चल चुका है कि अगर उनके पास सीएम की गद्दी किसी कीमत पर आ सकती है तो वो कीमत बीजेपी पार्टी में शामिल रहना होगा। इसलिए वे इस वक्त के बीजेपी सभी आलाकमान के सामने नतमस्तक नजर आ रह हैं।