राजेश बादल का ब्लॉग: असली राजाओं से ज्यादा क्रूर हैं ये नए सामंत
By राजेश बादल | Updated: January 8, 2019 15:41 IST2019-01-08T15:41:39+5:302019-01-08T15:41:39+5:30
मौजूदा राजनीति में आजादी के बाद नेताओं की तीसरी -चौथी पीढ़ी का अवतार हो चुका है। ये अवतार पुरुष पांच साल में एक बार जनता के सामने हाथ जोड़ते हैं।

राजेश बादल का ब्लॉग: असली राजाओं से ज्यादा क्रूर हैं ये नए सामंत
आजादी के बाद राजे रजवाड़े नहीं रहे। नई लोकतांत्रिक व्यवस्था ने उन्हें काल की अंधेरी कोठरी में बंद कर दिया। अलबत्ता जनता से सीधे संपर्क के कारण कुछ राज परिवार अभी भी थोड़ा-बहुत असर रखते हैं। पर अब उनके राजसी ठाटबाट और सामंती नखरे विलुप्त से हैं। दुर्भाग्य है कि हमारी मौजूदा व्यवस्था में धीरे-धीरे नए सामंतों और राजाओं के विकृत संस्करण आ चुके हैं। उनकी करतूतें पुराने राजाओं को भी मात देने वाली हैं। भारतीय गणतंत्र के लिए यह मानसिक प्रदूषण इन दिनों बड़ी चुनौती बन कर उभरा है। अफसोस है कि यह प्रदूषण आने वाली राजनीतिक पीढ़ियों के अंदर बड़े भयावह रूप में पनप रहा है। वर्तमान राजनीतिक नियंताओं ने अपनी नई नस्लों को इस संक्रामक बीमारी से बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं किए हैं। इस नजरिए से भारतीय लोकतंत्र के सामने एक दानवाकार चुनौती का संकट खड़ा दिखाई दे रहा है।
हमारे लोकतंत्र के अनुष्ठान को खंडित करने का सिलसिला कहां से शुरू हुआ ? उत्तर कोई रहस्य के पर्दे में नहीं छिपा है। सदियों तक राजा - प्रजा वाली शासन प्रणाली और अंग्रेजों की गुलामी का दौर इस देश ने देखा और यातनाएं भुगतीं। स्वतंत्रता आंदोलन के संघर्ष में जिस पीढ़ी ने अपना सर्वस्व न्यौछावर करके देश को आजाद कराया उसने बाद में राजनीति को सेवा का माध्यम माना। अनेक दशक तक यह सिलसिला चलता रहा। इस पीढ़ी ने अपने सेवा भाव की रक्षा की और अपने आभामंडल से दूसरों को भी भटकने नहीं दिया। जैसे जैसे यह पीढ़ी उम्रदराज होकर अवकाश लेती गई, भारतीय सियासत भी राजरोगों का शिकार होने लगी। अधिकार, अहंकार और आर्थिक हितों ने उसे सेवा के बजाय मेवा का जरिया बना दिया। लेकिन इससे भी बड़ी बात थी कि आजादी ने हमारे लिए एक निरंकुश सोच की खिड़की खोल दी। गुलामों में अब शासक होने का अहसास जागा।
वे पूर्वजों से राजाओं के जो किस्से सुनते आए थे या अपने दौर में अंग्रेजों का आम अवाम के साथ जो अत्याचार देखा था, वे उसे लोकतंत्र में भी शासक होने की अनिवार्य शर्त मान बैठे। अब वे सांवले अंग्रेज कलेक्टर थे और अपने मुल्क के लोगों से वैसा ही व्यवहार कर रहे थे जैसा गोरा कलेक्टर करता था। वे सांवले अंग्रेज अब मंत्री थे और वही आचरण कर रहे थे जो गोरी सरकार के शिखर पुरुष करते थे। धीरे-धीरे इन सांवले अंग्रेजों ने हमारे सियासी ढांचे को उसी शैली में ढाल दिया। आज यही सिस्टम और सोच अब सड़ांध मारने लगा है। हम इस सड़ांध भरे विशाल पात्र के छोटे-छोटे कीड़े बन गए हैं। सारे कुएं में भांग के घुल जाने का खामियाजा भुगत रहे हैं।
मौजूदा राजनीति में आजादी के बाद नेताओं की तीसरी -चौथी पीढ़ी का अवतार हो चुका है। ये अवतार पुरुष पांच साल में एक बार जनता के सामने हाथ जोड़ते हैं। शेष पांच साल अवाम इनके सामने हाथ जोड़ती है। ये अवतार पुरुष बंदूकधारी सुरक्षाकर्मियों से घिरे रहने में शान समझते हैं, आम आदमी किसी काम से आता है तो मिलते समय आसमान की ओर देखते हैं, जब वह गरीब अपने काम के लिए पैरों पर लोटता है तो उन्हें चक्रवर्ती सम्राट होने का अहसास होता है। ये अवतार पुरुष किसी को भी उल्टा टांगने में एक मिनट नहीं लगाते, इतना ही नहीं, उनके बच्चे जब महंगी महंगी गाड़ियों में सवार होकर नशे में धुत्त फुटपाथ पर सो रहे लोगों को कुचलते हैं तो उन निरीह इंसानों की जान उनके लिए कीड़े मकोड़ों से ज्यादा नहीं होती। जब उनका बेटा किसी लड़की के दुष्कर्म के मामले में फंसता है तो वे उसे निदरेष साबित करने में आकाश - पाताल एक कर देते हैं।
भारत में एक औसत राजनीतिक कार्यकर्ता का प्रशिक्षण कुछ ऐसे ही परिवेश में हो रहा है। ऐसे लालन पालन में वे खुद को भी सामंती चाल चलन में ढालते हैं। उनकी दृष्टि में लोकतंत्र की सच्ची पहचान यही है। चुनाव आने पर शराब बहाना, साड़ियां-कपड़े बांटना और नकदी देना उनके इसी राजनीतिक प्रशिक्षण का हिस्सा है। यह बताने की जरूरत नहीं कि संसद और विधान सभाओं में पहली बार जीतकर पहुंचे कई नेता अपने लिए आयोजित संसदीय और विधायी प्रशिक्षण कार्यक्रमों को अत्यंत चलताऊ अंदाज में लेते हैं। उनके लिए यह फालतू का काम है। वे सत्तापक्ष और प्रतिपक्ष की अच्छी बहसों का हिस्सा नहीं बनते। अब इस तरह के आयोजन एक तरह से एपेंडिक्स बन गए हैं। संसद या विधानसभा में शोर शराबा और कार्रवाई में अवरोध खड़ा करने में उन्हें आनंद का अनुभव होता है। वे अपनी पार्टी के नेता के इशारे को देखते हैं। संकेत मिलते ही हंगामा प्रारंभ कर देते हैं।
किसी भी देश के लिए यह स्थिति अच्छी नहीं मानी जा सकती। इसे ठीक करने की जिम्मेदारी उन्हीं पर है जो इसे बिगाड़ने के लिए दोषी हैं। आप कह सकते हैं कि बागड़ ही खेत को खाने लगी है। जब ऐसे हालात बनते हैं तो आने वाली अनेक पीढ़ियां दुष्परिणाम का सामना करती हैं। यह बात मुल्क के आकाओं को समझ लेना चाहिए। पाकिस्तान आज दुर्गति का सामना कर रहा है तो सिर्फ इसी कारण। वहां सत्ता पर सामंतों का कब्जा है।