आरक्षण पर बिफरने वाले सवर्णों को 'भारत बंद' करने के बजाय पकौड़े तलने चाहिए
By रंगनाथ | Published: April 9, 2018 04:14 PM2018-04-09T16:14:53+5:302018-04-09T16:20:19+5:30
सोशल मीडिया पर पिछले कुछ दिनों में ऐसे कई मैसेज शेयर किए जा रहे हैं जिनमें आरक्षण के विरोध में 10 अप्रैल को "भारत बंद" करने की बात कही जा रही है।
सोशल मीडिया और व्हाट्सऐप जैसे मैसेंजर ऐप्स पर कुछ संगठन मंगलवार (10 अप्रैल) को भारत बंद का आह्वान कर रहे हैं। इस बंद के आह्वान के पीछे दो बड़ी वजहें बताई जा रही हैं, एक- आरक्षण का विरोध, दूसरा दो अप्रैल को हुए दलितों द्वारा आयोजित विरोध प्रदर्शनों का विरोध। दलित संगठनों के विरोध प्रदर्शन में 12 लोगों की मौत हो गयी थी, कई अन्य घायल हो गये थे। दलितों के विरोध प्रदर्शन की इन्हीं दो वजहों से सोशल मीडिया में कुछ लोग आलोचना कर रहे हैं। किसी भी सार्वजनिक प्रदर्शन में हिंसा को जायज ठहराना किसी के लिए संभव नहीं है। हिंसा के समर्थन में ये तर्क भी स्वीकार नहीं किया जा सकता अन्य जातीय या धार्मिक समूहों ने अपने प्रदर्शनों में हिंसा की थी।
लोकांत्रिक अधिकारियों के लिए किए जाने वाले विरोध प्रदर्शन शांतिपूर्ण होने चाहिए। असहयोग और सविनय अवज्ञा सार्वजनिक जीवन में आंदोलन के सबसे लोकतांत्रिक हथियार हैं। इनके सिवा बाकी तरीके अलोकतांत्रिक ही माने जाएंगे। लेकिन दलित संगठनों के प्रदर्शन के बहाने सोशल मीडिया पर जिस तरह आरक्षण के प्रावधान के खिलाफ टीका-टिप्पणियाँ शुरू हुई हैं उससे जाहिर होता है कि इस देश के सर्वण जातियों का बड़ा तबका अभी तक "आरक्षण की ग्रंथि" से छुटकारा नहीं पा सका है।
सवर्णों के मन में ये भ्रम गहरे बैठा हुआ कि उनकी बेरोजगारी की वजह दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों को मिलने वाला आरक्षण है। सवर्णों को समझना चाहिए कि दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों को केवल सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिलता है। इन जातीय समूहों को जितने प्रतिशत आरक्षण मिलता है वो कुल आबादी में उनकी कुल जनसंख्या से काफी कम है। इससे भी अहम तथ्य ये है कि देश में हर साल तैयार होने वाली कुल नौकरियों का करीब चार प्रतिशत ही सरकारी सेक्टर से होता है। इन सरकारी नौकरियों में ज्यादातर तृतीय श्रेणी और चतुर्थ श्रेणी की हैं और इन श्रेणियों की नौकरियों में नियमित नौकरी के बजाय ठेके पर रोजगार देने का चलन भी तेजी से बढ़ा है।
अगर देश की 90 प्रतिशत से ज्यादा नौकरियाँ गैर-सरकारी क्षेत्रों में तैयार हो रही हैं तो बेरोजगारी और आरक्षण के बीच सीधा सम्बन्ध देखना या दिखाना तथ्य और तर्क के उलट है। बेरोजगारी की सीधी वजह है देश में बढ़ती युवा आबादी के अनुपात में नई नौकरियों का न तैयार होना। भारत की 65 प्रतिशत आबादी 35 साल या उससे कम उम्र की है। भारत के आर्थिक सर्वेक्षण 2017 की रिपोर्ट के अनुसार भारत के करीब 30 प्रतिशत युवा (जिनकी उम्र 15 से 29 के बीच हो) किसी भी तरह के रोजगार, शिक्षा या प्रशिक्षण से नहीं जुड़े हुए थे।
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2014 के लोक सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी ने हर साल दो करोड़ नई नौकरियाँ देने का आश्वासन दिया था। आम चुनाव में बीजेपी को प्रचंड बहुमत मिला और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने। लेकिन नौकरियों के वादे का क्या हुआ? अगर बात केवल केंद्र सरकार के मंत्रालयों और विभागों में रोजगार की स्थिति देख लें तो स्थिति साफ हो जाती है। साल 2013 की तुलना में साल 2015 में केंद्रीय मंत्रालयों और विभागों की नौकरियों में 89 प्रतिशत की कमी आयी थी। अगर बात आरक्षित वर्ग की नौकरियों की करें तो केंद्र सरकार के मंत्रालयों और विभागों की आरक्षित नौकरियों की संख्या में 20113 की तुलना में 2015 में 90 प्रतिशत कमी आयी। 31 दिसंबर 2016 तक केंद्र सरकार की कुल 92,589 नौकिरियों में से करीब 31 प्रतिशत (28,713) रिक्त हैं। ये आंकड़े खुद नरेंद्र मोदी सरकार ने लोक सभा में पेश किए थे। जाहिर है केंद्र सरकार खुद भी नई नौकरियाँ देने में विफल रही।
गैर-सरकारी सेक्टर में भी नौकरियों का हाल बहुत अच्छा नहीं रहा। आईटी, विनिर्माण और मैनुफैक्चरिंग सेक्टर भारत में रोजगार देने वाले तीन प्रमुख सेक्टर माने जाते हैं। सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडी के एक अध्ययन के मुताबिक वित्त वर्ष 2013-14 से वित्त वर्ष 2015-16 के बीच इन तीनों सेक्टर में जॉब में सबसे तेजी गिरावट हुई है। भारत के श्रम मंत्रालय के अनुसार भारत में औसतन हर साल एक करोड़ 20 लाख नए नौजवान रोजगार बाजार में नौकरी की तलाश में आते हैं। क्यूईएस के सर्वे के मुताबिक 2011 के अक्टूबर-दिसंबर तिमाही के बाद से वित्त वर्ष 2015-16 तक किसी भी तिमाही में दो लाख से ज्यादा नौकरियाँ तैयार नहीं हुईं। यानी इन तीन सालों में माँग से करीब 10 गुना कम नौकरियाँ ही सृजित हो पाईं।
तो असली सवाल नौकरियाँ देने का है न कि आरक्षण का। सवर्ण हों या कोई अन्य जाति उनकी बेरोजगारी की वजह केंद्र और राज्य सरकारें हैं जो गाय-भैंस, हिन्दू-मुसलमान, सर्वण-दलित आदि विमर्शों पर ध्यान देती हैं लेकिन युवाओं के लिए रोजगार तैयार करने पर नहीं। सवर्णों को दलितों और आरक्षण के खिलाफ नहीं बल्कि पकौड़े तलने को "रोजगार" बताने वालों के खिलाफ सड़क पर उतरना चाहिए। और अगर उन्हें इस पर ऐतराज नहीं है तो हंगामा मचाने के बजाय चुपचाप कहीं पकौड़ा तलें, बेवजह आरक्षण के नाम पर अपनी कुंठाओं का प्रदर्शन न करें।