अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: लोकतंत्र की गुणवत्ता के सवाल पर हो विचार

By अभय कुमार दुबे | Published: July 1, 2020 06:29 AM2020-07-01T06:29:12+5:302020-07-01T06:29:12+5:30

इतिहास बताता है कि आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी की पराजय के बाद भी भारतीय राजनीति में कुछ नहीं बदला.

Abhay Kumar Dubey's blog: Consider the question of the quality of democracy | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: लोकतंत्र की गुणवत्ता के सवाल पर हो विचार

अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: लोकतंत्र की गुणवत्ता के सवाल पर हो विचार

वर्ष 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा थोपे गए आपातकाल पर हर साल 26 जून को कांग्रेस और गैर-कांग्रेस पार्टयिों के बीच कुछ न कुछ तकरार जरूर होती है. भारतीय जनता पार्टी खास तौर से इस दिन कांग्रेस को आड़े हाथों लेने की कोशिश करती है. लेकिन, क्या इससे गैर-कांग्रेस दलों को कोई लाभ होता है? क्या भारतीय लोकतंत्र की गुणवत्ता में कोई सुधार होता है? क्या इससे हमारे सार्वजनिक जीवन में होने वाली बहसें समृद्ध होती हैं. मैं समझता हूं कि आपातकाल पर होने वाली चर्चाएं ज्यादातर खोखली होती हैं. उनमें न तो तथ्यगत चेतना होती है और न ही परिप्रेक्ष्यगत. भारतीय लोकतंत्र की एक दुर्घटना के रूप में आपातकाल से सबक सीखना तो दूर की ही बात है.

इतिहास बताता है कि आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी की पराजय के बाद भी भारतीय राजनीति में कुछ नहीं बदला. ढाई साल बाद इंदिरा गांधी दोबारा सत्ता में लौट आईं. जो विपक्ष था, वह फिर से विपक्ष बन गया. इसके बाद देश में आपातकाल लगाने वाली कांग्रेस चौबीस साल तक और सत्ता में रही. जाहिर है कि जनता ने 1977 के चुनाव के बाद कांग्रेस को आपातकाल लगा कर लोकतंत्र के खिलाफ अपराध करने वाली पार्टी के तौर पर कभी नहीं देखा. लेकिन, प्रश्न यह है कि क्या 1977 में भी देश ने कांग्रेस को ऐसी पार्टी के रूप में देखा था? 

1977 में हुई कांग्रेस की पराजय के आंकड़े बताते हैं कि हारने के बावजूद वह एक बहुत ताकतवर पार्टी थी. जो पार्टयिां मिल-जुल कर सत्ता में आई थीं, उनसे कहीं ज्यादा. उसे पूरे देश में 41 फीसदी वोट मिले थे. इतने वोट भाजपा को अपनी मौजूदा दोनों चुनावी जीतों में किसी बार नहीं मिले हैं. कांग्रेस ने सत्ता से बाहर होने के बावजूद 189 सीटें जीती थीं. खास बात यह थी कि वह उत्तर, मध्य और पश्चिम भारत में बुरी तरह से हार गई थी, लेकिन दक्षिण भारत उसने पूरी तरह से जीत लिया था. इस चुनाव परिणाम के आईने में देखने पर आज लगता है कि जैसे देश उस समय पूरी तरह से दो हिस्सों में बंट गया हो. इन आंकड़ों से पता लगता है कि आपातकाल के खिलाफ जिस जन-ज्वार की चर्चा की जाती है, दूसरी आजादी और संपूर्ण क्रांति की जो बातें की जाती हैं, उनके आकलन के लिए सही परिप्रेक्ष्य क्या होना चाहिए.

भारत के सबसे मशहूर राजनीतिशास्त्री रजनी कोठारी का विश्लेषण था कि इंदिरा गांधी के लिए आपातकाल लगाना गैरजरूरी था. जिस समय इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया, उससे ठीक पहले जयप्रकाश आंदोलन बिखराव का शिकार होने लगा था, और इंदिरा गांधी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं दिख रही थी. लेकिन, जैसे ही न्यायमूíत जगमोहनलाल सिन्हा के फैसले ने प्रधानमंत्री से उनकी संसद सदस्यता छीनी, वैसे ही परिस्थिति बदल गई. उनके इस्तीफे की मांग होने लगी, और फौज से कहा जाने लगा कि वह राष्ट्रहित में चुनी हुई सरकार का आदेश न माने. इस चुनौती से इंदिरा गांधी घबरा गईं. नतीजा आपातकाल में निकला. सिंहावलोकन करने पर पता चलता है कि वे लगातार गलत सलाहों का शिकार हुईं. जब उन्होंने आपातकाल उठाया, उस समय भी उन्हें सलाह यह दी गई थी कि वे आसानी से चुनाव जीत जाएंगी.

आपातकाल का असली सबक यह है कि लोकतंत्र को पुष्ट करने के लिए लिखे गए और उसकी निरंतरता की गारंटी करने वाले संविधान की मदद से ही लोकतंत्र को सीमित किया जा सकता है. अर्थात संविधान लोकतंत्र के बने रहने की गारंटी नहीं कर सकता. पिछले कुछ वर्षो में भारत ही नहीं, बल्कि विश्व के कई लोकतंत्रों में यही समस्या सामने आई है. चुनकर आई सरकारों के नेताओं और पार्टियों ने तकनीकी रूप से संविधान का तनिक भी उल्लंघन किए बिना लोकतांत्रिक अधिकारों को सीमित किया है, लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर किया है, उनकी स्वायत्तता का हरण कर उन्हें अपने कब्जे में ले लिया है. नेता जितना शक्तिशाली होता है, वह उतने ही जोर-शोर से विपक्ष को राष्ट्रीय हितों के दुश्मन के रूप में चित्रित करता है. लोकलुभावनवादी नीतियों की रचना करके वह जनता से सीधा संवाद करके अपनी लोकप्रियता बढ़ाता चला जाता है. लोग पार्टी या कार्यक्रम के आधार पर वोट न देकर सीधे उसे वोट देते हैं.

नई स्थिति यह है कि एक बार चुन लिए नेता को दोबारा चुनाव हराना बहुत मुश्किल होता जा रहा है. भारत में ही देखिए, राज्यों में एक-एक मुख्यमंत्री दो-दो तीन-तीन बार चुनाव जीतता चला जाता है. जो पार्टी सत्ता में होती है, उसके पास इतने संसाधन जमा हो जाते हैं कि विपक्षी पार्टयिां उसके सामने पस्त दिखने लगती हैं. सत्तारूढ़ दल और उसके नेता के पास सोशल इंजीनियरिंग करके अपने जनाधार को और अधिक विस्तृत करने की इतनी अधिक युक्तियां और अवसर होते हैं कि दूसरे दल राजनीतिक होड़ में उससे पिछड़ते चले जाते हैं. देशभक्ति, राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा, तरह-तरह की आíथक रियायतें, खातों में सीधे धन का स्थानांतरण और अन्य लोकोपकारी योजनाओं के माध्यम से सत्ता में बने रहने की सुविधा मिल जाती है.

इस तरह की राजनीति को अलोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता. लेकिन, यह लोकतंत्र को चुनाव जीतने के हथकंडे में सीमित जरूर कर देती है. संविधान अपनी जगह बना रहता है. मोटे तौर पर उसका बेजा इस्तेमाल होते हुए भी नहीं दिखता. आपातकाल के ऊपर बहस करने से बेहतर यह है कि लोकतंत्र की इस समस्या पर गौर किया जाए.

Web Title: Abhay Kumar Dubey's blog: Consider the question of the quality of democracy

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