अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: भाजपा को अब क्षेत्रीय शक्तियों की ज्यादा जरूरत नहीं रही

By अभय कुमार दुबे | Published: October 1, 2020 04:50 PM2020-10-01T16:50:25+5:302020-10-01T16:50:25+5:30

बीजेपी के पिछले कुछ सालों के ट्रैक रिकॉर्ड से पता चलता है कि पार्टी कई राज्यों में अकेले दम पर दांव आजमाने के लिए तैयार है। राजग का बिखराव हो रहा है लेकिन सवाल है कि क्या भाजपा स्वयं भी ऐसा चाहती है?

Abhay Kumar Dubey's blog: BJP no longer needs regional party powers | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: भाजपा को अब क्षेत्रीय शक्तियों की ज्यादा जरूरत नहीं रही

भाजपा को अब क्षेत्रीय शक्तियों की ज्यादा जरूरत नहीं रही

Highlightsकांग्रेस से उलट भाजपा की प्रधानता वाली केंद्र सरकार के साथ क्षेत्रीय शक्तियों को कई उम्मीदें थीउत्तर-पूर्व से लेकर महाराष्ट्र, पंजाब, बिहार में लगातार मजबूत होती भाजपा, बिखराव की ओर राजग

पहले शिवसेना और अब अकाली दल के बाहर निकल जाने से स्पष्ट है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ (राजग) बिखराव की तरफ जा रहा है. प्रश्न यह है कि क्या भाजपा स्वयं भी ऐसा चाहती है? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए क्षेत्रीय ताकतों और भाजपा के बीच संबंधों के इतिहास पर एक नजर डालनी होगी. 

अस्सी के दशक से ही क्षेत्रीय शक्तियों ने प्रयोग के तौर पर भाजपा के साथ दांव आजमाने की कोशिश शुरू की थी. उस समय भाजपा विभिन्न क्षेत्रों में कांग्रेस की तरह एक राजनीतिक शक्ति नहीं थी. वह क्षेत्रीय पार्टियों के साथ वहां होड़ नहीं कर सकती थी, इसलिए क्षेत्रीय शक्तियों को उम्मीद थी कि वे भाजपा की प्रधानता वाली केंद्र सरकार के साथ लेन-देन के आधार पर अधिक संघवादी भारत उपलब्ध कर पाएंगी. 

दक्षिण भारत में भी बीजेपी पैठ बनाने की कोशिश में

अन्नाद्रमुक द्वारा कांग्रेस का साथ छोड़कर अंदर ही अंदर भाजपा से सूत्र जोड़ने की कोशिश और तेलुगू देशम द्वारा तत्कालीन राष्ट्रीय मोर्चे से उकता कर भाजपा को एक संभावित मित्र के रूप में देखना दक्षिण भारत द्वारा भाजपाई हिंदू राष्ट्रवाद को स्वीकृति देने की शुरुआत थी.

नब्बे के दशक में तमिल और आंध्र क्षेत्रीयताओं की इन ताकतों को बाबरी मस्जिद ध्वंस की हाहाकारी घटना से कुछ धक्का लगा और वे भाजपा से संबंध बनाने की अपनी इच्छा का यदाकदा खंडन करने लगीं. लेकिन मध्यमार्गी दलों (जनता दल इत्यादि) के राजनीतिक महत्व के छीजने के बाद और कांग्रेस द्वारा अपना जनाधार खोने के बाद उनके सामने भाजपा की केंद्र में सरकार बनाने की कोशिशों को थोड़ा या ज्यादा समर्थन देने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया. 

उत्तर-पूर्व में असम गण परिषद तो अपनी शुरुआत से ही भाजपा से प्रभावित थी. बांग्लादेशी बहिरागतों के खिलाफ उसकी राजनीतिक गोलबंदी को भाजपा के जरिये नई दिल्ली तक विस्तार मिल गया था. यहां याद करने की जरूरत है कि पंजाब में अकाली दल (बादल) द्वारा छह दिसंबर 1992 की कारसेवा में अपने प्रतिनिधि भेजने की घोषणा ने अकाली आंदोलन में अंदर से उथल-पुथल मचा दी थी. 

अल्पमत की सरकार बनाने की भाजपाई रणनीति

हिंदू-सिख एकता का यह सांप्रदायिक प्रयोग एकदम नई चीज थी, क्योंकि अभी तक हिंदू-सिख एकता सेक्युलर नजरिये से ही देखी जाती थी. महाराष्ट्र में भाजपा के पास शिवसेना पहले से ही थी. जैसे ही नीतीश की पार्टी भाजपा के साथ गई वैसे ही नब्बे के दशक में क्षेत्रीय शक्तियों के सहयोग से बहुमत की या मुद्दा आधारित सहयोग से अल्पमत की सरकार बनाने की भाजपाई रणनीति परवान चढ़ने लगी.

भाजपा के भीतर राजग-आधारित रणनीति के कर्णधार लालकृष्ण आडवाणी थे. वे बिना किसी हिचक के कहते थे कि उनकी पार्टी की राष्ट्रीय सफलता ‘एनडीए प्लस-प्लस’ पर आधारित है. यानी भाजपा जितनी पार्टयिों को अपना सहयोगी बना पाएगी, उतना ही उसकी केंद्रीय राजनीति मजबूत होगी. 

इसका व्यावहारिक मतलब था कि भाजपा को हर जगह क्षेत्रीय शक्तियों के मुकाबले दोयम दर्जे की भूमिका निभानी थी, और बदले में उसे दिल्ली में सरकार बनाने में उनका सहयोग मिलना था. लेकिन जैसे ही पार्टी की कमान नरेंद्र मोदी के हाथ में आई, उन्होंने ‘भाजपा प्लस-प्लस’ की रणनीति की नींव डाली. 

इसका मतलब राजग को भंग करना नहीं था, बल्कि एक पार्टी के तौर पर भाजपा को इतना मजबूत करना था कि उसके सहयोगी उसकी शर्तो पर उसका साथ देने को मजबूर हो जाएं.

महाराष्ट्र, पंजाब और बिहार में बीजेपी की राजनीति

इसी रणनीति के तहत भाजपा ने महाराष्ट्र में शिवसेना से मुख्यमंत्री पद की कुर्सी छीन ली. पंजाब में वह अकाली दल से बराबर की सीटें मांगने लगी. बिहार में उसने अपनी ताकत बढ़ाना जारी रखा, और इस समय वह नीतीश से मुख्यमंत्री पद की कुर्सी छीनने से केवल एक चुनाव दूर है. आंध्र प्रदेश में उसकी इन्हीं महत्वाकांक्षाओं ने तेलुगु देशम को उससे अलग कर दिया. ओडिशा में बीजू जनता दल का भाजपा से अलगाव इसी रणनीति की देन है. असम में असम गण परिषद भी भाजपा से बहुत पीछे छूट गई है.

इस दृष्टि से देखा जाए तो अकालियों और शिवसेना का अलगाव इस रणनीति का स्वाभाविक परिणाम है. इससे भाजपा भीतर ही भीतर परेशान नहीं है, बल्कि वह इसे महाराष्ट्र, पंजाब, आंध्र और ओडिशा में अपने लिए एक अवसर की तरह देख रही है. बात ठीक भी है. 

एक पार्टी जो राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को प्रतिस्थापित करना चाहती है, वह नब्बे के दशक की ‘एनडीए प्लस-प्लस’ की पुरानी रणनीति में अटकी नहीं रह सकती. उस समय भाजपा दिल्ली में जमना चाहती थी. लेकिन आज की भाजपा दिल्ली में जम चुकी है, अब वह क्षेत्रों में जमना चाहती है.

Web Title: Abhay Kumar Dubey's blog: BJP no longer needs regional party powers

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