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फिरदौस मिर्जा का ब्लॉग: न्यायाधीशों की नियुक्ति कौन करे?

By फिरदौस मिर्जा | Updated: December 13, 2022 09:27 IST

आपातकाल के काले समय में, राष्ट्र ने देखा कि कैसे न्यायपालिका के एक हिस्से ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर अंकुश लगाने में उस समय की सरकार की सहायता की; उस अवधि के दौरान न्यायाधीशों को विशेष रूप से सरकार द्वारा नियुक्त किया गया था।

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ठळक मुद्देऐतिहासिक रूप से जब भी भारत को विशाल बहुमत वाली सरकार मिली है, तो उसने सभी संस्थानों को अपने नियंत्रण में लेना चाहा है।शक्ति प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका अपनी पसंद के व्यक्ति को नियुक्त करना है, जिसमें गुणवत्ता/योग्यता गौण हो।यह चुनाव आयोग, रिजर्व बैंक, सीबीआई, ईडी या राष्ट्रीय महत्व के अन्य संस्थान हो सकते हैं।

'सरकार को राज्य की सार्वजनिक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिए।' -भारत के संविधान का अनुच्छेद 50। दुर्भाग्य से उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति का तरीका आजकल विवादों में है। माननीय उपराष्ट्रपति ने भी कानून मंत्री के इस दावे का समर्थन किया कि नियुक्तियां अकेले सरकार के अधिकार क्षेत्र में आती हैं और नियुक्ति करते समय यदि कोई अन्य तरीका अपनाया जाता है तो यह लोगों की इच्छा के विपरीत होगा क्योंकि उन्होंने सरकार चुनी है।

ऐतिहासिक रूप से जब भी भारत को विशाल बहुमत वाली सरकार मिली है, तो उसने सभी संस्थानों को अपने नियंत्रण में लेना चाहा है। शक्ति प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका अपनी पसंद के व्यक्ति को नियुक्त करना है, जिसमें गुणवत्ता/योग्यता गौण हो। यह चुनाव आयोग, रिजर्व बैंक, सीबीआई, ईडी या राष्ट्रीय महत्व के अन्य संस्थान हो सकते हैं। 

आपातकाल के काले समय में, राष्ट्र ने देखा कि कैसे न्यायपालिका के एक हिस्से ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर अंकुश लगाने में उस समय की सरकार की सहायता की; उस अवधि के दौरान न्यायाधीशों को विशेष रूप से सरकार द्वारा नियुक्त किया गया था। तब न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने का एक उचित तरीका खोजा गया, जिसे जजेज केस 1 से 4 के रूप में जाना जाता है, धीरे-धीरे न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका की प्रधानता स्थापित हुई।

अब, उच्च न्यायालय के लिए न्यायाधीश का चयन करने के लिए, उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और दो वरिष्ठतम न्यायाधीश एक कॉलेजियम बनाते हैं और चयनित नामों को सर्वोच्च न्यायालय को भेजते हैं, जिसमें भारत के प्रधान न्यायाधीश और चार वरिष्ठतम न्यायाधीश कॉलेजियम बनाते हैं। सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम उचित विचार-विमर्श और संबंधितों से परामर्श के बाद, भारत सरकार को नाम अग्रेषित करता है, जो या तो इसे मंजूरी दे देती है या वापस भेज देती है, लेकिन अगर सुप्रीम कोर्ट नाम को फिर से आगे बढ़ाता है, तो सरकार को इसे स्वीकार करना पड़ता है। इसके बाद राष्ट्रपति नियुक्तियां करते हैं।

न्यायाधीशों की नियुक्ति की शक्ति के लिए संघर्ष कोई नया नहीं है; संविधान सभा में इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा हुई थी। डॉ बाबासाहब आंबेडकर का मत था कि हम भारतीयों में उत्तरदायित्व की भावना उस सीमा तक विकसित नहीं हुई है जो अमेरिका में पाई जाती है; इसलिए नियुक्तियों को बिना कोई सीमा बांधे कार्यपालिका के ऊपर छोड़ना खतरनाक होगा। इसी तरह विधायिका के ऊपर ऐसी नियुक्तियों की जिम्मेदारी छोड़ना भी उपयुक्त नहीं है। इसलिए, भारत के प्रधान न्यायाधीश के साथ अनिवार्य परामर्श का प्रावधान करके बीच का रास्ता निकाला गया।

न्यायाधीश केस नंबर-तीन और सुप्रीम कोर्ट द्वारा एनजेएसी संशोधन को रद्द करने के बाद, हम समय-समय पर न्यायिक नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद और पक्षपात के आरोपों के बारे में सुनते हैं, यहां तक कि यह आरोप भी लगाया जाता है कि कुछ कुलीन परिवारों को नियुक्तियां करने का विशेषाधिकार प्राप्त है। एक और आरोप भारत में सभी वर्गों से उचित प्रतिनिधित्व नहीं होने का है। 

प्रक्रिया को पारदर्शी बनाकर इन आरोपों को दूर किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए स्वयं और सरकार के बीच एक विस्तृत प्रक्रिया रखने का सुझाव दिया है; दुर्भाग्य से, प्रक्रिया को अभी तक अंतिम रूप नहीं दिया जा सका है। वास्तव में, माननीय मंत्री को इस मुद्दे को जनता के सामने लाने के बजाय जल्द से जल्द प्रक्रिया को अंतिम रूप देना और चालू करना चाहिए।

मुझे लगता है कि ऐसे विवादों से बचने के लिए एक पारदर्शी तरीका विकसित करने की जरूरत है। पहले एक समयसीमा तय की जाए जिसमें चयनित नामों को हर हालत में अंतिम रूप दिया जाए। महिलाओं, अल्पसंख्यकों और वंचित वर्ग के लिए उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाना चाहिए। नियुक्ति की प्रक्रिया रिक्ति होने से काफी पहले पूरी की जानी चाहिए। सरकार को अपने अधिकार क्षेत्र की संवैधानिक सीमाओं का सम्मान करना चाहिए और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के सिद्धांत का पालन करना चाहिए।

जैसा कि डॉ बाबासाहब आंबेडकर ने कहा था, संविधान अच्छा साबित होगा या बुरा, यह इस पर निर्भर करेगा कि सरकार में बैठे लोग कैसे हैं। यह सिद्धांत न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी लागू होता है। सार्वजनिक चर्चा और न्यायाधीशों की नियुक्ति पर संदेह पैदा करना निश्चित रूप से एक संस्था के रूप में न्यायपालिका की छवि को कमजोर करेगा और आम आदमी के विश्वास को हिला देगा; यह भारत की भावी पीढ़ी के लिए अच्छा नहीं है।

टॅग्स :सुप्रीम कोर्टभारतभारत के उपराष्ट्रपति
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