ब्लॉग: पारंपरिक कुओं को बचाने से ही पानीदार बनेगा समाज
By पंकज चतुर्वेदी | Published: April 5, 2024 10:17 AM2024-04-05T10:17:15+5:302024-04-05T10:18:42+5:30
सारे देश में बरसात के बीत जाने के बाद पानी की त्राहि-त्राहि अब सामान्य बात हो गई है। जनता को जमीन की छाती चीर कर पानी निकालने या बड़े बांध के सपने दिखाए तो जाते हैं लेकिन जमीन पर कहीं पानी दिखता नहीं।
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(फाइल फोटो)
अभी गर्मी शुरू ही हुई है, अभी एक हफ्ते पहले तक पश्चिमी विक्षोभ के कारण जमकर बेमौसम बरसात भी हो गई, इसके बावजूद बुंदेलखंड के बड़े शहरों में से एक छतरपुर के हर मुहल्ले में पानी की त्राहि-त्राहि शुरू हो गई। तीन लाख से अधिक आबादी वाले इस शहर में सरकार की तरफ से रोपे गए कोई 2100 हैंडपंपों में से अधिकांश या तो हांफ रहे हैं या सूख गए हैं। ग्रामीण अंचलों में भी हर बार की ही तरह हैंडपंप से कम पानी आने की शिकायत आ रही है। बुंदेलखंड तो बानगी है, सारे देश में बरसात के बीत जाने के बाद पानी की त्राहि-त्राहि अब सामान्य बात हो गई है। जनता को जमीन की छाती चीर कर पानी निकालने या बड़े बांध के सपने दिखाए तो जाते हैं लेकिन जमीन पर कहीं पानी दिखता नहीं, आखिर नदियों में भी तो प्रवाह घट ही रहा है। आने वाले साल मौसमी बदलाव की मार के कारण और अधिक तपेंगे और पानी की मांग बढ़ेगी। ऐसे में पारंपरिक कुएं ही हमें बचा सकते हैं।
हमारे आदि-समाज ने कभी बड़ी नदियों को छेड़ा नहीं, वे बड़ी नदी को अविरल बहने देते थे- साल के किसी बड़े पर्व-त्यौहार पर वहां एकत्र होते, बस। खेत-मवेशी के लिए या तो छोटी नदी या फिर तालाब- झील। घर की जरूरत जैसे पीने और रसोई के लिए या तो आंगन में या बसाहट के बीच का कुआं काम करता था। यदि एक बाल्टी की जरूरत है तो इंसान मेहनत से एक ही खींचता था और उसे किफायत से खर्च करता। अब की तरह नहीं कि बिजली की मोटर से एक गिलास पानी की जरूरत के लिए दो बाल्टी व्यर्थ कर दिया जाए।
पंजाब की प्यास भी बड़ी गहरी है। पांच नदियों के संगम से बना यह समृद्ध राज्य खेती के लिए अंधाधुंध भूजल दोहन के कारण पूरी तरह ‘डार्क जोन’ में है। यहां 150 में से 117 ब्लॉक में भूजल लगभग शून्य हो चुका है। कुछ साल पहले पलट कर देखें तो पाएंगे कि इस राज्य को खुश और हराभरा बनाने वाले दो लाख कुएं थे जो अब बंद पड़े हैं।
भारत के लोक जीवन में पुरानी परंपरा रही है कि घर में बच्चे का जन्म हो या फिर नई दुल्हन आए, घर-मुहल्ले के कुएं की पूजा की जाती है- जिस इलाके में जल की कीमत जान से ज्यादा हो वहां अपने घर के इस्तेमाल का पानी उगाहने वाले कुएं को मान देना तो बनता ही है। बीते तीन दशकों के दौरान भले ही प्यास बढ़ी हो, लेकिन सरकारी व्यवस्था ने घर में नल या नलकूप का ऐसा प्रकोप बरपाया कि पुरखों की परंपरा के निशान कुएं गुम होने लगे। अब कुओं की जगह हैंडपंप पूज कर ही परंपरा पूरी कर ली जाती है. वास्तव में यह हर नए जीवन को सीख होता था कि आंगन का कुआं ही जीवन का सार है।अभी भी देश में बचे कुओं को कुछ हजार रुपए खर्च कर जिंदा किया जा सकता है और जलसंकट का मुकाबला किया जा सकता है।