विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: आंकड़ों को छिपाने से नहीं बदलेगी सच्चाई

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: March 20, 2019 07:09 AM2019-03-20T07:09:03+5:302019-03-20T07:09:03+5:30

सवाल यह नहीं है कि बेरोजगारी घटी या बढ़ी, सवाल यह है कि ये आंकड़े छिपाकर कोई भी सरकार क्या वस्तुस्थिति को झुठला सकती है?

Vishwanath Sachdev's blog: Truth will not change by hiding data | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: आंकड़ों को छिपाने से नहीं बदलेगी सच्चाई

विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: आंकड़ों को छिपाने से नहीं बदलेगी सच्चाई

राजनेता भले ही कहते रहें कि आंकड़े सच नहीं बोलते, पर सच यह है कि आंकड़ों से डरते जरूर हैं राजनेता। जब उन्हें आंकड़ों की मदद की जरूरत होती है तो उनका सहारा भी ले लेते हैं वे, पर वे जानते हैं कि आंकड़े उनका झूठ उजागर कर सकते हैं। इसीलिए डरते हैं वे। बड़ी आसानी से हमारे राजनेता उन आंकड़ों को ‘गलत’ या ‘भ्रामक’ बता देते हैं जो उनके हितों के प्रतिकूल होते हैं। हद तो तब हो जाती है जब कोई सरकार आंकड़े इकट्ठे करने वाले अपने ही किसी संस्थान को झूठा या गैरजरूरी करार कर देती है।

नवीनतम उदाहरण नेशनल सैम्पल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) का है। हमारा यह संस्थान वर्षो से राष्ट्रीय महत्व के आंकड़े एकत्न करने का काम करता रहा है। इसी के माध्यम से देश को अपनी उपलब्धियों, अनुपलब्धियों का नमूना मिलता रहा है। पर सरकार ने वर्ष 2017-18 के एनएसएसओ के आंकड़ों को एक तरह से खारिज कर दिया है। इस संबंध में संस्थान की रिपोर्ट को जारी न करने का निर्णय ले लिया गया है। वास्तव में निर्णय पिछले पांच साल के बेरोजगारी के आंकड़ों के बारे में है। इसका मतलब यह है कि बेरोजगारी का बोझ आज देश भले ही सह रहा हो, पर उसे यह जानने का अधिकार नहीं है कि कितना बोझ है उसके कंधों पर।  सरकार के इस रवैये से नाराज होकर संस्थान के दो वरिष्ठ अधिकारियों ने इस्तीफे दे दिए हैं। वे इसे पारदर्शिता की अस्वीकार्य स्थिति मानते हैं- पर हमारी सरकार इस बारे में मौन है। और इसका मतलब यह है कि आप नहीं जान सकते कि पिछले पांच वर्षो में देश में बेरोजगारी की क्या स्थिति रही है- बेरोजगारी बढ़ी है या घटी है। जो स्थिति सरकार छिपाना चाहती है वह यह है कि वर्ष 2017-18 में देश में बेरोजगारी 6.1 प्रतिशत थी और पांच साल पहले यानी 2011-12 में यह प्रतिशत सिर्फ 2.2 था।

सवाल यह नहीं है कि बेरोजगारी घटी या बढ़ी, सवाल यह है कि ये आंकड़े छिपाकर कोई भी सरकार क्या वस्तुस्थिति को झुठला सकती है? ज्ञातव्य है कि इस दौरान सरकार ‘मुद्रालोन’ और ‘स्टार्ट अप’ आदि का हवाला देकर यह बताने की कोशिश करती रही है कि इस प्रकार के ऋण गैरसरकारी क्षेत्न में रोजगार के बढ़ने का प्रमाण है। हमारे मंत्नी पकौड़े बनाकर बेचने का उदाहरण देकर गैरपारंपरिक क्षेत्नों में अवसरों के बढ़ने का ‘प्रमाण’ देते रहे हैं और प्रधानमंत्नी आयकर-विवरणिका की संख्या में बढ़ोत्तरी को रोजगार की बेहतर स्थिति का प्रमाण मान रहे हैं। वे तो संसद में भी यह कह चुके हैं कि ऑटोरिक्शा और कारों की बढ़ती संख्या भी रोजगार के अवसरों की बढ़ोत्तरी का उदाहरण है।

मान लेते हैं कि मंत्रियों और प्रधानमंत्नी की बात में कुछ दम है, लेकिन एनएसएसओ जैसी संस्था का अवमूल्यन करके सरकार क्या संकेत दे रही है? लगभग एक महीना पहले सरकार ने एनएसएसओ के बेरोजगारी के आंकड़ों को अस्वीकार किया था। इसका मतलब संस्थान के काम में अविश्वास प्रकट करना ही नहीं था, इस प्रकार के संस्थानों की आवश्यकता और उसके महत्व को कम करना भी था। इसी 14 मार्च को देश के 108 अर्थशास्त्रियों ने एनएसएसओ जैसी संस्थाओं की स्वतंत्नता को बहाल करने की मांग करते हुए सरकार को एक प्रतिवेदन भेजा है। अभी तक सरकार की ओर से इस बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है। ‘पुरस्कार वापसी गैंग’ की तरह ही देश के इन सौ से अधिक अर्थशास्त्रियों को भी किसी गैंग का नाम दिया जा सकता है। वैसे भी हमारे प्रधानमंत्नी बहुत पहले ही ‘हार्वर्ड के विद्वानों’ की जगह ‘हार्ड वर्क’ करने वालों को ज्यादा महत्वपूर्ण बता चुके हैं। लेकिन इन 108 अर्थशास्त्रियों समाजशास्त्रियों के प्रतिवेदन को अस्वीकार करने अथवा इसकी अवहेलना का मतलब देश के सोचने-समझने वाले, पढ़े-लिखे तबके को नकारना है। इनकी चिंताओं से असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन इनकी महत्ता को नहीं नकारा जाना चाहिए।

पारदर्शिता किसी भी व्यवस्था के औचित्य की सबसे महत्वपूर्ण शर्तो में से एक है। जब एनएसएसओ जैसे स्वतंत्न संस्थान पर राजनीतिक दृष्टिकोण हावी होने की कोशिश करें तो उनका होना ही सवालों के घेरे में आ जाता है। ऐसे संस्थानों के आंकड़ों के आधार पर देश की आर्थिक नीतियां और विदेशों में देश की साख निर्भर करती है। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान, जैसे विश्व बैंक या अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, देशों की स्वतंत्न संस्थाओं के माध्यमों के आधार पर देश विशेष के प्रति अपना रुख तय करते हैं। ऐसे में एनएसएसओ की रिपोर्ट की यह अनदेखी देश की साख को गिराने का काम ही करेगी।

हकीकत यह है कि बेरोजगारी जैसे मुद्दे हमें चुनौती दे रहे हैं। शहरों और ग्रामीण क्षेत्नों में बेरोजगारों की बढ़ती भीड़ की चुनौती को स्वीकार करके ही सही दिशा में बढ़ने की कोशिश की जा सकती है। आंकड़े छुपाकर या आंकड़े बदलकर इस भीड़ की समस्या का समाधान नहीं हो सकता। जुमलों की राजनीति करने वालों को जमीनी सच्चाई की जरूरत कब महसूस होगी?

Web Title: Vishwanath Sachdev's blog: Truth will not change by hiding data

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