विजय दर्डा का ब्लॉग: अधिकारियों की थैली में माल क्यों आता है ?

By विजय दर्डा | Published: April 3, 2023 07:40 AM2023-04-03T07:40:29+5:302023-04-03T07:40:29+5:30

भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिए कानून तो एक के बाद एक बने लेकिन हकीकत यही है कि भ्रष्टाचार करने वाला कोई न कोई रास्ता ढूंढ़ ही लेता है. भ्रष्टाचारियों पर नकेल कसने के लिए सरकार ने एक बार फिर एक नया कदम उठाया है. उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बार कानून में कोई छेद नहीं होगा और भ्रष्ट अधिकारियों को पकड़ने में सरकार कामयाब होगी...!

Vijay Darda's Blog: Corruption in India and how corrupt officials get away | विजय दर्डा का ब्लॉग: अधिकारियों की थैली में माल क्यों आता है ?

विजय दर्डा का ब्लॉग: अधिकारियों की थैली में माल क्यों आता है ?

केंद्र सरकार का एक आदेश इन दिनों प्रशासनिक हलकों में चर्चा का विषय बना हुआ है. आम आदमी की भी नजर इस आदेश पर है और इस बात की व्याख्या की जा रही है कि इस आदेश के मायने क्या हैं और क्या इसका कुछ खास असर होगा? तो आदेश यह है कि किसी आईएएस, आईपीएस या आईएफएस अफसर ने एक साल के दौरान अपने छह माह के मूल वेतन से अधिक निवेश शेयर बाजार में किया है तो सरकार को जानकारी देना अनिवार्य है. 

अखिल भारतीय सेवा आचरण नियमावली 1968 के प्रावधान 16(14) में इस बात का प्रावधान है कि शेयर डिबेंचर तथा प्रतिभूति में यदि लेनदेन दो महीने के मूल वेतन से अधिक होता है तो उसकी जानकारी सरकार को एक महीने के भीतर दी जानी चाहिए.

अब सवाल यह है कि क्या इस मामले में नियमानुसार अधिकारियों की ओर से सरकार को जानकारी मिल रही थी या नहीं? जाहिर सी बात है कि यदि सारे अधिकारी जानकारी दे रहे होते तो इस तरह के आदेश की जरूरत ही नहीं पड़ती! संसदीय समिति ने ही जांच-पड़ताल के दौरान यह पाया है कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के 1400 से ज्यादा अधिकारियों ने पिछले 11 साल से अपनी आय और संपत्ति से जुड़ा ब्यौरा नहीं दिया है. 

इस संबंध में पहले से ही कई कानून वजूद में हैं लेकिन हकीकत यह है कि अधिकारी इन कानूनों को धता बताते रहते हैं. यही कारण है कि संसद की स्थायी समिति ने कार्मिक विभाग को ऐसा तंत्र विकसित करने के लिए कहा है जिससे सभी अधिकारियों की आय और संपत्ति से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण तेजी से किया जा सके.

इसमें संदेह नहीं कि प्रशासनिक सेवा के ज्यादातर अधिकारी निष्ठा, समर्पण और पवित्रता के साथ कर्मशील रहते हैं लेकिन थोड़े से भ्रष्ट अधिकारी पूरे महकमे पर दाग लगा देते हैं. ये पूरे सिस्टम को खराब कर देते हैं. जाहिर सी बात है कि यदि वरिष्ठ स्तर पर एक जगह भ्रष्टाचार की शुरुआत होती है तो उस भ्रष्टाचार की पूरी श्रृंखला शुरू हो जाती है.
यह कहना बहुत कठिन है कि कितने प्रतिशत अधिकारी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं लेकिन सामान्य धारणा यही है कि इनकी संख्या कम भी नहीं है. 

हर साल भ्रष्टाचार की औसतन पच्चीस से तीस हजार शिकायतें मिलती हैं. जांच एजेंसियां जब किसी अधिकारी के घर छापा मारती हैं तो नोटों की गड्डियां मिलती हैं, आभूषणों का भंडार मिलता है. कई बार तो आय और संपत्ति का बड़ा दिलचस्प आंकड़ा भी सामने आता है. 

ऐसा ही एक मामला पंजाब विद्युत बोर्ड के तत्कालीन चीफ इलेक्ट्रिकल इंजीनियर त्रिलोकीनाथ का था. केवल 26 हजार वेतन वाले इस अधिकारी के पास नौकरी के कुछ साल बाद ही करीब पौने तीन करोड़ रुपए मिले थे. यदि वे एक पैसा भी खर्च न करते तो भी उन्हें यह राशि जमा करने में कितना वक्त लगता? हिसाब लगाते रहिए..! आपको मध्यप्रदेश कैडर के आईएएस अधिकारी अरविंद जोशी और टीनू जोशी तो याद होंगे ही! उनके पास से तीन करोड़ रुपए नगद मिले थे. नोट गिनने के लिए मशीन भी लानी पड़ी थी. 

एक चपरासी के यहां भी करोड़ों रुपए मिलने की घटना सामने आई! तो सवाल यह है कि क्या ये लोग अपने बलबूते ही इतना बड़ा भ्रष्टाचार कर लेते हैं? जी नहीं, राजनीति और ब्यूरोक्रेसी के गठजोड़ के बगैर यह संभव नहीं है. एक उदाहरण मैं आपके सामने रखता हूं. उत्तरप्रदेश में आईएएस एसोसिएशन ने 1996 में अखंड प्रताप सिंह नाम के एक अधिकारी को उत्तरप्रदेश का सबसे भ्रष्ट अधिकारी घोषित किया और उनकी संपत्ति की जांच कराने की मांग की. तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने मांग को नामंजूर कर दिया. 

केंद्र सरकार ने सीबीआई जांच के लिए मंजूरी मांगी तो वह भी नामंजूर! मायावती आईं तो सिंह के खिलाफ विजिलेंस के मामले भी वापस ले लिए! मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने तो सिंह की और बल्ले-बल्ले हो गई! वे मुख्य सचिव बन गए और इतना ही नहीं उन्हें सेवा विस्तार भी मिला! जरा सोचिए कि विभिन्न पार्टियों के विभिन्न मुख्यमंत्रियों ने एक भ्रष्ट अधिकारी को क्यों बचाया? आईएएस एसोसिएशन ने ही नीरा यादव नाम की अधिकारी को उसी साल दूसरा सबसे भ्रष्ट अधिकारी बताया था लेकिन वे मुख्य सचिव की कुर्सी तक पहुंचीं.

ऐसे अधिकारियों की लंबी सूची है. राजनीति के साथ इनके गठजोड़ का ही नतीजा है कि इन अधिकारियों को सजा नहीं मिलती. या तो सरकार में बैठे उनके आका उनके खिलाफ मामला चलाने की अनुमति नहीं देते या फिर वे कानूनी दांव-पेंच का सहारा लेकर बच निकलते हैं. ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के आंकड़े बताते हैं कि हाल के वर्षों में भारत की स्थिति सुधरी है लेकिन अभी भी हम काफी नीचे की कतार में हैं.

हकीकत यह है कि हमारा देश कभी भ्रष्टाचारी देश था ही नहीं! भ्रष्टाचार का जन्म राजनीति की कोख से हुआ. चुनाव महंगे हुए तो नेताओं और अधिकारियों के नेक्सस से भ्रष्टाचार का पैसा राजनीति में आया. अधिकारियों को नेताओं ने रास्ता दिखाया. भ्रष्टाचार के मामलों में पहले केवल राजनीतिज्ञों या फिर चुनिंदा उद्योगपतियों के नाम आते थे लेकिन अब तो अधिकारियों के नाम भी खूब आने लगे हैं. कोई विभाग ऐसा नहीं जो यह दावा कर सके कि उसके यहां भ्रष्टाचार नहीं है. स्वस्थ समाज के लिए यह अच्छा नहीं है. 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि भ्रष्टाचार से देश को मुक्ति मिले लेकिन उसे यथार्थ में लाने के लिए हमें कड़े नियम बनाने होंगे, काम के तरीके बदलने होंगे. राजनीतिक सिस्टम ठीक करना होगा. मैं आपको बताऊं कि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान में आम लोगों को पता ही नहीं है कि सामान्य जिंदगी में भ्रष्टाचार क्या होता है? हमें भी वैसा ही सिस्टम बनाना होगा. 

सरकार ने अभी लेखा-जोखा लेने का जो आदेश जारी किया है, वह स्वागत  योग्य है. अधिकारियों को अपनी झोली भी पारदर्शी रखनी होगी ताकि उन पर भरोसा कायम रहे. यदि वे अपनी झोली छिपाने की कोशिश करें तो सरकार का दायित्व है कि वह झोली खंगाले कि उसमें कितना माल भरा है..और ये माल आता कहां से है...?

Web Title: Vijay Darda's Blog: Corruption in India and how corrupt officials get away

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