विजय दर्डा का ब्लॉगः प्यार और जंग में सब कुछ जायज है...!
By विजय दर्डा | Published: December 12, 2022 07:10 AM2022-12-12T07:10:26+5:302022-12-12T07:13:12+5:30
भाजपा की खासियत है कि वह जीत और हार दोनों का विश्लेषण करती है और फिर योजनाएं बनाती हैं। 2023 में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना, कर्नाटक, मेघालय, नगालैंड, मिजोरम और त्रिपुरा में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। 2024 में लोकसभा चुनाव होंगे। यदि सारे राजनीतिक दल एक भी हो जाएं (जो असंभव जैसा काम है) तो भी भाजपा की सेहत पर शायद ही कोई असर हो...
भाजपा को दिल से चाहने वाले बड़ी जीत की दुआ तो कर रहे थे लेकिन किसी ने भी गुजरात में इस बंपर जीत की शायद ही उम्मीद की होगी! राजनीति के बड़े तजुर्बेकार भी यही मान रहे थे कि भाजपा 120 सीटों के आसपास रहेगी। मगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को निश्चय ही अपार जीत की उम्मीद थी क्योंकि भाजपा ने उनके नेतृत्व में व्यूह रचना ही ऐसी
की थी!
राजनीति में शतरंज की चाल की तरह दूरदर्शी सोच और अचूक रणनीति बहुत मायने रखती है। यह स्पष्ट था कि ढाई दशक से ज्यादा सत्ता में होने के कारण एंटी-इनकम्बेंसी का सामना पार्टी को करना पड़ सकता है। पिछले साल सितंबर में जब विजय रूपाणी को मुख्यमंत्री पद से हटाया गया तभी यह स्पष्ट हो गया था कि 2022 के विधानसभा चुनाव को लेकर भाजपा कोई रिस्क लेने के मूड में नहीं है। गुजरात में पाटीदार समाज का बड़ा रुतबा है और उन्हें राजनीतिक रूप से नाराज करना मुश्किल भरा होता इसलिए भूपेंद्र भाई पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया। कांग्रेस के पटेल चेहरा हार्दिक पटेल भी इस साल जून में भाजपा में शामिल हो गए। इस बीच आदिवासियों और दलितों को लुभाने के भी हर संभव प्रयास किए गए। इनमें से कितने लोग भाजपा के साथ जुड़े, कितने कांग्रेस के साथ रह गए या फिर आम आदमी पार्टी की ओर गए, यह कहना मुश्किल है लेकिन यह तय है कि इस रणनीति का फायदा भाजपा को हुआ। इसके अलावा बहुत सी परियोजनाओं की ताबड़तोड़ घोषणाएं हुईं। यह सब रणनीति और चुनावी कूटनीति का हिस्सा था। इसके अलावा भाजपा ने दूसरे कार्ड भी अच्छी तरह खेले जिससे मतदाता उसकी तरफ आकर्षित हों। वो कहते हैं न कि प्यार और जंग में सब जायज होता है।।!
रणनीति को चुनावी परिणाम में तब्दील करने के लिए भाजपा ने पांच मंत्रियों और पिछली विधानसभा के 38 विधायकों को टिकट नहीं दिया। नए चेहरों पर ज्यादा भरोसा दिखाया। सारे प्रभावशाली नेताओं को मैदान में उतार दिया चाहे वो मुख्यमंत्री हों, मंत्री हों, सांसद हों, संगठन के राष्ट्रीय नेता हों या फिर दूसरे राज्यों के दिग्गज हों! भाजपा की विशेषता है कि वह किसी भी चुनाव को छोटा नहीं मानती और न हल्के में लेती है। उसके नेता यह भी नहीं देखते कि उनका कद क्या है और चुनाव का स्तर क्या है? कहां जाना है या कहां नहीं जाना है। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं मैदान में उतर जाते हैं और पचास किलोमीटर का रोड शो भी करते हैं! इसी का परिणाम है कि 99 सीटों के साथ एंटी-इनकम्बेंसी की आशंका को चारों खाने चित करते हुए भाजपा ने 156 सीटों के महाबहुमत को प्राप्त किया। कांग्रेस के माधव भाई सोलंकी के 149 के रिकॉर्ड को भी तोड़ दिया।
जहां तक आम आदमी पार्टी का सवाल है तो केवल 5 सीटें जीत कर भी बल्ले-बल्ले की स्थिति में है। उसे 13 प्रतिशत वोट मिले हैं और सबसे बड़ी बात कि राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिल गया है। दिल्ली से निकल कर मोदीजी के गढ़ में घुसना कोई खेल नहीं है। अरविंद केजरीवाल ने पहले दिल्ली, फिर पंजाब और अब गुजरात में सफलता की शुरुआत करके अपनी दूरदर्शिता का संदेश दे दिया है। केजरीवालजी जानते थे कि उनके लिए हिमाचल से ज्यादा जरूरी गुजरात पहुंचना है। आज पूरे गुजरात में आप की चर्चा है। भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों, उपमुख्यमंत्री पर हुए प्रहार के बाद भी एमसीडी में उन्होंने परचम फहरा दिया तो यह कोई कम बड़ी बात नहीं है।
इसके ठीक विपरीत कांग्रेस ने एक अच्छा अवसर गंवा दिया। गुजरात में उसके पास पिछली विधानसभा में 77 सीटें थीं। इस चुनाव में 17 सीटों पर सिमट गई। इसका सबसे बड़ा कारण कांग्रेस के भीतर का कलह रहा। नेता एक-दूसरे से लड़ते रहे। एक-दूसरे को ही निपटाते रहे। फ्री फॉर जैसी स्थिति थी। जनता की नजर में कांग्रेस ने सशक्त विपक्ष के रूप में भी पहचान कायम नहीं की तो जनता भरोसा कैसे करती? वास्तव में कांग्रेस ने गुजरात चुनाव को बहुत हलके में लिया। राहुल गांधी जहां प्रचार करने गए, कांग्रेस वह सीट भी हार गई।।!
जहां तक हिमाचल में कांग्रेस की जीत का सवाल है तो वहां कांग्रेस के पास कोई दबंग नेतृत्व नहीं था। स्व। वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह, उनके बेटे विक्रमादित्य सिंह के अलावा सुखविंदर सिंह सुक्खू और मुकेश अग्निहोत्री चुनाव से पहले ही मुख्यमंत्री पद के लिए खींचतान में लगे हुए थे। इसके बावजूद यदि कांग्रेस जीती तो यह मतदाताओं का संदेश है कि उसमें विश्वास अभी खत्म नहीं हुआ है। क्या कांग्रेस के नेता याद करेंगे कि 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 19.5 प्रतिशत वोट मिला था! हिमाचल में कांग्रेस की जीत वास्तव में भाजपा के लिए चिंता का विषय है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा अपना प्रदेश नहीं बचा पाए। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के इलाके की पांचों सीटें भाजपा हार गई। भाजपा को निश्चय ही आपसी कलह का घाटा हुआ। अनुराग ठाकुर के पिता प्रेम कुमार धूमल को ही पार्टी ने टिकट नहीं दिया था। राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण उत्तरप्रदेश के उपचुनाव को देखें तो खतौली में उसे झटका लगा तो मुस्लिम बहुल क्षेत्र रामपुर में पहली बार उसे सफलता मिली।
भाजपा की खासियत है कि वह जीत और हार दोनों का विश्लेषण करती है और फिर योजनाएं बनाती हैं। 2023 में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना, कर्नाटक, मेघालय, नगालैंड, मिजोरम और त्रिपुरा में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। 2024 में लोकसभा चुनाव होंगे। यदि सारे राजनीतिक दल एक भी हो जाएं (जो असंभव जैसा काम है) तो भी भाजपा की सेहत पर शायद ही कोई असर हो क्योंकि भाजपा अभी से रणनीति बना चुकी है कि उसे विजय पथ पर कैसे आगे बढ़ना है! लेकिन लोकतंत्र के लिए सबसे जरूरी मजबूत विपक्ष का कहीं कोई नामोनिशान नजर नहीं आ रहा है..! यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है!