विजय दर्डा का ब्लॉग: समग्र विकास से ही आ सकती है घाटी में शांति
By विजय दर्डा | Published: June 28, 2021 02:34 PM2021-06-28T14:34:57+5:302021-06-28T14:35:43+5:30
बड़ा सवाल है कि घाटी में शांति कैसे लौटेगी? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो नई पहल की है वह निश्चय ही स्वागत योग्य है और सुकून की बात है कि जम्मू-कश्मीर के सभी दलों के नेताओं ने भी इस पहल के प्रति सकारात्मक रुख दिखाया है.
मैंने कश्मीर घाटी की कई यात्रएं की हैं और करीब-करीब सभी मौसम में यात्रएं की हैं. मैं जब कभी कश्मीर गया तो घाटी में पहुंचते ही मुगल सम्राट जहांगीर के करीब पांच सौ साल पुराने शब्द मेरे कानों में गूंजने लगे. जहांगीर ने फारसी में कहा था, ‘गर फिरदौस बर रुए जमीं अस्त, हमीं अस्तो, हमीं अस्तो, हमीं अस्त’ अर्थात अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं पर है और सिर्फ यहीं पर है. लेकिन तभी वर्तमान मेरे सामने आकर खड़ा हो गया और मन में यह सवाल कौंधने लगा कि हमारी धरती के इस स्वर्ग को किसकी नजर लग गई. जिन वादियों में सूफी तराने गूंजते थे वहां बम, ग्रेनेड और गोलियों की आवाजें क्यों सुनाई देने लगीं?
अब बड़ा सवाल है कि घाटी में शांति कैसे लौटेगी? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो नई पहल की है वह निश्चय ही स्वागत योग्य है और सुकून की बात है कि जम्मू-कश्मीर के सभी दलों के नेताओं ने भी इस पहल के प्रति सकारात्मक रुख दिखाया है. किसी ने यह नहीं कहा कि आपने तो हमें नजरबंद कर दिया था, हम क्यों आएं? फारूक अब्दुल्ला से लेकर महबूबा मुफ्ती तक बैठक में पहुंचीं. प्रधानमंत्री ने बैठक में आश्वासन दिया कि योग्य समय पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरू होगी. योग्य समय का सीधा सा मतलब यह है कि स्थिति पूरी तरह से नियंत्रण में आ जाए.
वैसे भी जम्मू-कश्मीर की शासन व्यवस्था में हमेशा से केंद्र का सहयोग रहा है. घाटी में मुख्य विषय घुसपैठियों का है. वे पाकिस्तान से आते हैं और वहां तबाही मचाते हैं. घाटी को अशांत करने का काम कभी अमेरिकी एजेंसियां करती थीं, कभी तालिबान की मदद से पाकिस्तान करता रहा. इसके लिए पाकिस्तान ने कभी जैशे मोहम्मद को पाला तो कभी लश्करे तैयबा को अपनी गोद में बिठाया. घाटी में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए की अब कोई भूमिका दिखाई नहीं देती लेकिन पाकिस्तान और चीन की खुफिया एजेंसियों की मौजूदगी से सभी वाकिफ हैं. चिंता की बात यह है कि इस वक्त कश्मीर में इस्लामिक स्टेट बहुत एक्टिव है. पाक अधिकृत कश्मीर से घुसपैठ हो ही रही है.
हालांकि भारतीय सेना, अर्ध सैनिक बल और जम्मू-कश्मीर की पुलिस आतंकवादियों की कमर तोड़ने में लगे हुए हैं और काफी सफलता भी मिली है. अब हालात में सुधार है. वर्ना हमने वह दौर भी देखा है कि 24 साल तक कश्मीर पूरे देश से टूटा हुआ था. एक नई पीढ़ी बंद कमरे में जवान हुई. लोगों के घरबार तबाह हो गए थे. धंधा चौपट हो गया था. पर्यटन खत्म हो गया था और लाखोंलाख कश्मीरी पंडित अपने घर को छोड़ विस्थापित हो गए थे.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व ने निश्चय ही धारा 370 के प्रावधान और 35ए समाप्त करके अच्छा काम किया. इन प्रावधानों को हटाना वक्त की मांग थी. किसी जमाने में कश्मीर को भारत के साथ रखने के लिए कुछ विशेष प्रावधान किए गए थे. वह उस समय की जरूरत थी. जब उनकी जरूरत नहीं रही तो उसे लागू रखने का कोई मतलब भी नहीं था. मैं तो हमेशा से ही इस बात का समर्थक रहा हूं कि एक देश में केवल एक ही झंडा होना चाहिए. मेरी हमेशा से यह मान्यता रही है कि जो लोग देश के खिलाफ काम करते हैं और जिन पर शंका होती है उन पर कार्रवाई होनी ही चाहिए. चाहे वह कोई भी हो! मगर यह समझने की जरूरत भी है कि जम्मू-कश्मीर में सभी लोग या सभी नेता आतंकी नहीं हैं. प्रधानमंत्री ने आतंकवाद के समर्थक नेताओं को बैठक से दूर रखकर अच्छा संदेश दिया है कि कश्मीर को भारत से अलग करने का उनका सपना कभी पूरा नहीं हो सकता.
मुझे लगता है कि हम एक तरफ आतंकवादियों का सफाया करें और दूसरी ओर लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुचारु कर दें तो हालात बेहतर करने में मदद मिलेगी. यह बहुत जरूरी है कि विधानसभा को फिर से बहाल किया जाए. चुनाव भी हों लेकिन सरकार ऐसी न हो कि उसकी गर्दन हमेशा लेफ्टिनेंट गवर्नर के हाथ में हो. दिल्ली में इसका हश्र हम देख रहे हैं. वहां राज्य सरकार तो है लेकिन सारे अधिकार लेफ्टिनेंट गवर्नर के पास हैं. जनप्रतिनिधि यदि अपनी जनता के लिए स्वेच्छापूर्वक निर्णय न ले पाएं तो लोकतंत्र का मतलब ही नहीं रह जाता है! ध्यान रखिए कि जनप्रतिनिधि जनता की भावनाओं को निश्चय ही ज्यादा बेहतर तरीके से समझते हैं. कमान उनके हाथ में ही होनी चाहिए.
जहां तक कश्मीरी जनता का सवाल है तो उसे राजनीति से क्या लेना देना? उसके सामने तो रोजी रोटी, बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य ही सबसे बड़ा मसला होता है. कश्मीर आज भी इन्हीं समस्याओं से जूझ रहा है. आंकड़े कुछ भी कहानी कहें लेकिन जो जमीनी हकीकत है उससे कैसे इनकार किया जा सकता है? आज घाटी के युवा यदि आतंकी संगठनों के साथ चले जाते हैं तो इसका सबसे बड़ा कारण वहां की बेरोजगारी है. दस-बीस हजार रुपए महीने के लिए वे जान हथेली पर ले लेते हैं क्योंकि उनके पास न नौकरी है और न धंधा है. नौकरी के आंकड़ों पर भरोसा नहीं होता क्योंकि उसमें विरोधाभास दिखता है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडिया इकोनॉमी (सीएमआईई) ने सितंबर, 2020 में बताया था कि देश में बेरोजगारी दर 6.7 फीसदी है जबकि जम्मू-कश्मीर में यह 16.2 है. उसी संस्था ने इस साल बताया कि मार्च, 2021 के अंत में बेरोजगारी की दर घटकर 9 प्रतिशत रह गई. क्या 6 महीने में इतना बड़ा अंतर आ सकता है?
बेरोजगारी की स्थिति का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि दो साल पहले जम्मू-कश्मीर में चतुर्थ श्रेणी के 8 हजार रिक्त पदों के लिए 5 लाख युवाओं ने आवेदन किया था. हमें यह समझना होगा कि कागजी आंकड़े कभी सपना पूरा नहीं करते! वही आंकड़े सफलता की कहानी लिखते हैं जिनका वास्ता हकीकत से होता है. हमें उम्मीद करनी चाहिए कि केंद्र सरकार लोकतंत्र की बहाली तो तेज करेगी ही, युवाओं के लिए रोजगार के संसाधन भी उपलब्ध कराएगी ताकि कोई युवा बंदूक न उठाए. पूरा देश इंतजार कर रहा है कि कश्मीर की वादियों में बंदूकें शांत हो जाएं. फिर से सूफी संगीत के तराने गूंजें और हम दुनिया से कह पाएं कि धरती का स्वर्ग यहीं है..यहीं पर है..और सिर्फ यहीं पर है!