वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग: ये अस्पताल हैं या कब्रिस्तान?
By वेद प्रताप वैदिक | Updated: January 6, 2020 11:08 IST2020-01-06T11:08:47+5:302020-01-06T11:08:47+5:30
भारत में पांच साल की उम्र तक के 25 लाख बच्चों की मौत हर साल हो जाती है. इन मौतों को रोका जा सकता है लेकिन इस पर कोई ध्यान दे तब तो!

तस्वीर का इस्तेमाल केवल प्रतीकात्मक तौर पर किया गया है। (फाइल फोटो)
भारत में सरकारी अस्पतालों की कितनी दुर्दशा है, इस पर मैं पहले भी लिख चुका हूं. लेकिन इधर राजस्थान में कोटा के जेके लोन अस्पताल में सौ से भी ज्यादा बच्चों की मौत ने पूरे देश का ध्यान खींचा है. अब धीरे-धीरे मालूम पड़ रहा है कि राजकोट, अहमदाबाद, जोधपुर तथा अन्य कई शहरों में सैकड़ों नवजात शिशु अस्पतालों की लापरवाही के कारण जान गंवा रहे हैं.
भारत में पांच साल की उम्र तक के 25 लाख बच्चों की मौत हर साल हो जाती है. इन मौतों को रोका जा सकता है लेकिन इस पर कोई ध्यान दे तब तो! देश में बच्चों के दो लाख डॉक्टरों की जरूरत है लेकिन उनकी संख्या आज सिर्फ 25 हजार है.
सरकारी अस्पतालों की हालत क्या है? वे छोटे-मोटे कब्रिस्तान बने हुए हैं. अस्पतालों में जो भी अपने नवजात शिशु को भर्ती करवाता है, वह भगवान भरोसे ही करवाता है. जो ताजा आंकड़े हैं, उनसे पता चलता है कि यदि 15-16 हजार बच्चे पैदा होते हैं तो उनमें से हजार-पंद्रह सौ बच्चे जरूर दिवंगत हो जाते हैं.
नेता लोग इसी बात पर तू-तू मैं-मैं करते रहते हैं कि मेरे राज में कितने मरे और तेरे राज में कितने मरे. वे खुद गांवों और शहरों में जाकर इन अस्पतालों के चक्कर क्यों नहीं लगाते? अस्पतालों के वार्डो में बदबू आती है और गंदगी का अंबार लगा रहता है. मरीजों पर मच्छर मंडराते रहते हैं और अस्पताल परिसर में सुअर घूमते रहते हैं.
2018 में कोटा के अस्पताल में क्या पाया गया था? उसके 28 नेबुलाइजरों में से 22 नाकारा थे. उनकी 111 दवा-पिचकारियों में से 81 बेकार थीं. 20 वेंटिलेटरों में से सिर्फ 6 काम कर रहे थे. एक-एक बिस्तर पर तीन-तीन, चार-चार बच्चों को ठूंस दिया जाता है. इतनी भयंकर ठंड में उनके ठीक से ओढ़ने-बिछाने की व्यवस्था भी नहीं होती. बिस्तरों के पास की टूटी खिड़कियों से बर्फीली ठंड उन बच्चों के लिए जानलेवा सिद्ध होती है.
गर्मियों में भी ये बच्चे तड़प-तड़पकर अपनी जान दे देते हैं लेकिन उनकी कोई सुध नहीं लेता. उनके गरीब, ग्रामीण और अल्पशिक्षित मां-बाप इसे किस्मत का खेल समझकर चुप रह जाते हैं. लेकिन वे मजबूर हैं. यह सब जानते हुए भी उन्हें सरकारी अस्पतालों की शरण लेनी पड़ती है, क्योंकि निजी अस्पताल अच्छे हैं लेकिन वे लूट-पाट के सबसे बड़े अड्डे बन गए हैं. सरकारी अस्पताल रातों-रात सुधर सकते हैं. कैसे? यह मैं पहले लिख चुका हूं.