ब्लॉग: अपने ही जाल में फंसती ट्रिपल इंजन सरकार

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: December 9, 2023 11:04 AM2023-12-09T11:04:38+5:302023-12-09T11:04:43+5:30

हालांकि दोनों चुनाव में एक साल से कम का समय बचने पर अधिक बदलाव भी संभव नहीं होगा। लिहाजा नुकसान को कितना कम और बिगड़ी पहचान को कितना धुंधला किया जाए, इसी बात पर जोर लगाना एक रास्ता होगा।

Triple engine government trapped in its own trap | ब्लॉग: अपने ही जाल में फंसती ट्रिपल इंजन सरकार

फाइल फोटो

उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने भले ही दूसरे उपमुख्यमंत्री अजित पवार को पत्र लिख कर पूर्व मंत्री नवाब मलिक की विधानसभा में उपस्थिति पर आपत्ति जता दी हो, लेकिन यह सवाल तो उस दिन भी सामने आया था, जब महाआघाड़ी सरकार को गिराकर भाजपा और शिवसेना शिंदे गुट के साथ सरकार बनी थी।

इससे पहले भाजपा ने ही पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की सरकार में भ्रष्टाचार और अपराध से जुड़े मामलों को जोर-शोर से उठाया और अनेक नेताओं के खिलाफ कार्रवाई भी हुई, लेकिन जैसे ही सत्ता परिवर्तन हुआ, सभी दागी नेता दूध के धुले दिखाई देने लगे। अब आम

चुनाव और विधानसभा चुनाव की घड़ियां नजदीक आ रही हैं तो बिगड़ती छवि को लेकर चिंता सताने लगी है। वर्ष 2019 में शिवसेना ने जब भाजपा को छोड़कर कांग्रेस और राकांपा के साथ सरकार स्थापित की तो उस दौरान भ्रष्टाचार को बड़ा मुद्दा बनाया गया। उस समय भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष को अपनी छवि को बेहतर बनाने का हथियार मान लिया था।

जमीन-जायदाद से लेकर आपराधिक तत्वों से रिश्ते और आर्थिक लेन-देन में गड़बड़ियों जैसे मामलों पर पुलिस, आयकर विभाग, राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए), प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) और नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) तक के समक्ष शिकायतों तथा अदालती आदेशों के आधार पर कार्रवाइयां हुईं, जिसका परिणाम यह हुआ कि अनेक नेता-मंत्रियों को त्यागपत्र देना पड़ा। कुछ को जेल तक जाना पड़ा।

मगर ढाई साल बाद हुए सत्ता परिवर्तन के साथ गिनकर सभी दागी नेता सरकार के भागीदार बन गए। पहले शिवसेना के शिंदे गुट के साथ सरकार बनी तो लगभग आधा दर्जन ऐसे नेता मंत्री बने, जिन पर अलग-अलग तरह के आरोप थे। उसके बाद राकांपा का अजित पवार गुट जब शामिल हुआ तो यह संख्या करीब एक दर्जन तक पहुंच चुकी है। इस बात को लेकर अनेक बार विपक्ष ने सवाल उठाए हैं, जिनका सत्ता पक्ष ने कोई ठोस जवाब नहीं दिया है। खास तौर पर भाजपा ने कई बार जिन नेताओं के भ्रष्टाचार को सुर्खियों पर लाया, उन पर भी खामोशी बरकरार है।

अब नागपुर में विधानमंडल का शीतसत्र आरंभ होते ही पिछली सरकार के मंत्री नवाब मलिक का विधानसभा में सत्ता पक्ष में बैठना अचानक ही चिंता का कारण बन गया है। उन्हें राकांपा शरद पवार गुट का समर्थन मिलना नई परेशानी का कारण है। नौबत तो यहां तक है कि शिवसेना शिंदे गुट के नेता और मंत्री भी फडणवीस की मलिक की उपस्थिति पर आपत्ति का समर्थन कर रहे हैं।

मगर सवाल यह है कि जिस प्रकार ढाई साल बाद सरकार बनी और उसमें जो नेता शामिल हुए थे, राजनीति के गलियारे से लेकर समाज के सभी वर्गों में सत्ता के लिए सिद्धांतों को भुलाने जैसी चर्चाओं का दौर आरंभ हो गया था। उसके बाद राकांपा अजित पवार गुट के सत्ता में शामिल हो जाने के बाद कुछ कहने के लिए बाकी ही नहीं रहा।

हालांकि नई स्थिति को भाजपा के ही कुछ नेता और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े लोग स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। मगर कोई खुलकर सामने नहीं आया। किंतु दबे शब्दों में अपनी बात रखकर सत्ता की जरूरत को सभी ने स्वीकार कर लिया था। अब मलिक के बहाने किसे संदेश देने का प्रयास किया जा रहा है। वह भी तब, जब दागदार छवि वालों की सूची लंबी है।

सर्वविदित है कि वर्ष 2014 में बनी भाजपा- शिवसेना गठबंधन की सरकार के पांच साल के कार्यकाल के दौरान जिन नेताओं पर आरोप लगे थे, उनको 2019 के चुनाव में किनारे करने की कोशिश की गई थी। कुछ को चुनाव का टिकट तक नहीं दिया गया था। उसी मानसिकता से जब भाजपा वर्ष 2019 में विपक्ष में बैठी तो उसने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई को अपना एजेंडा बनाया।

उसने हर स्तर पर सत्ताधारी मोर्चे को चुनौती दी। वह चाहे मामला शिवसेना के तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे का हो या उनके बेटे तत्कालीन मंत्री आदित्य ठाकरे से जुड़ा हो या फिर राकांपा के मंत्री अनिल देशमुख और नवाब मलिक का हो. सभी के खिलाफ जोरदार लड़ाई लड़ी गई।

इसको कोरोना महामारी के दौरान हुए कथित भ्रष्टाचार के आरोपों ने और बल दे दिया, जिसमें यह तय हुआ कि भाजपा राजनीतिक जीवन में स्वच्छता की पक्षधर है। किंतु ढाई साल बाद भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार बनने पर सवाल यही उत्पन्न हुआ कि वह सत्ता के बाहर रहने पर भ्रष्टाचार को लेकर चिंतित अधिक रहती है या सत्ता पाने के बाद भी उसका नजरिया समान ही रहता है।

हालांकि, बीते डेढ़ साल में बनी ट्रिपल इंजन की सरकार भले राजनीतिक स्थिरता की दृष्टि से मजबूत मानी जा रही हो, अलग-अलग विचारधारा और विरोधाभासी कार्यपद्धति के चलते तीन दल के नाम तो दिखाई देते हैं, लेकिन उनका चेहरा, चाल और चलन बेहद अलग दिखाई देता है। तीनों में भाजपा अपनी स्वच्छ पहचान के नाम पर ही आम जनता के बीच संपर्क रखती है। ऐसे में सत्ता के साथीदारों के बीच उसका विरोधाभासी व्यक्तित्व नजर आता है. यह एक ऐसी भी परिस्थिति है, जिसमें वह खुलकर सामने नहीं आ पा रही है।

ताजा नवाब मलिक के मामले ने उसे कुछ कहने पर मजबूर किया, क्योंकि उनके ऊपर देशद्रोह का आरोप है। इससे पहले उसने किसी भी नेता को लेकर सवाल नहीं उठाया। यहां तक कि राकांपा अजित गुट से तालमेल करने के दौरान अपनी शर्तों को सबके सामने नहीं रखा।

अब लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। जनता के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्वच्छ छवि को लेकर जाना है। स्वाभाविक है कि सत्ता के साझेदारों को लेकर सवाल भी उठेंगे। विकास के नाम पर भ्रष्टाचार के आरोपियों और सदाचार के नाम पर अपराधों में शामिल नेताओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करना आम आदमी को रास नहीं आएगा। मगर उसका दोष किसी और को दिया नहीं जाएगा, क्योंकि यह अपने ही जाल में फंसती हुई दिख रही ट्रिपल इंजन की सरकार है।

जैसे-जैसे पहले लोकसभा और बाद में विधानसभा चुनाव का समय पास आता जाएगा, उसे वैसे-वैसे जनता के सवालों के लिए भी तैयार रहना होगा। हालांकि दोनों चुनाव में एक साल से कम का समय बचने पर अधिक बदलाव भी संभव नहीं होगा। लिहाजा नुकसान को कितना कम और बिगड़ी पहचान को कितना धुंधला किया जाए, इसी बात पर जोर लगाना एक रास्ता होगा। तभी तिगुनी ताकत का लाभ उठाया जा सकता है, अन्यथा परिस्थिति आसान नहीं होगी। 

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