देशद्रोह के कानून पर पुनर्विचार करना समय की जरूरत, विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग

By विश्वनाथ सचदेव | Published: February 18, 2021 11:33 AM2021-02-18T11:33:39+5:302021-02-18T11:35:35+5:30

किसानों के प्रदर्शन से जुड़ी ‘टूलकिट’ सोशल मीडिया पर साझा करने में संलिप्तता के आरोप में जलवायु कार्यकर्ता दिशा रवि को बेंगलुरु से गिरफ्तार किया गया था.

treason law Section 124a Bengaluru Disha Ravi needed 2019 total case 93 Vishwanath Sachdev's blog | देशद्रोह के कानून पर पुनर्विचार करना समय की जरूरत, विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग

वर्ष 2019 में ‘देशद्रोह’ के 3.3 प्रतिशत मामलों में ही सजा सुनाई गई थी.

Highlightsदेशद्रोह के ये आरोप धारा 124ए के अंतर्गत दर्ज होते हैं. यूएपीए अर्थात् गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) कानून के अंतर्गत मामलों में सामान्यत: अदालतें जमानत भी नहीं देतीं.वर्ष 2019 में देशद्रोह के नौ प्रतिशत और यूएपीए के ग्यारह प्रतिशत पिछले मामले पुलिस ने ‘प्रमाण’ के अभाव में वापस ले लिए थे.

अब इक्कीस साल की दिशा रवि पर देशद्रोह का आरोप लगा है. बेंगलुरु की इस युवती का यह प्रकरण क्या रूप लेता है, यह तो पुलिस की अगली कार्रवाई और अदालत के रुख पर ही निर्भर करता है, लेकिन पिछले कुछ अर्से में देश में ‘देशद्रोह’ के मामलों में जो गति आई है, वह सचमुच चिंता का विषय होना चाहिए.

आंकड़े बताते हैं कि जहां सन् 2016 में देशद्रोह के कुल 35 मामले सामने आए थे, वहीं 2019 में यह संख्या बढ़कर 93 हो गई- अर्थात् 165 प्रतिशत की वृद्धि. देशद्रोह के ये आरोप धारा 124ए के अंतर्गत दर्ज होते हैं. यदि इनके साथ यूएपीए को देखा जाए तो वर्ष 2019 में इसके अंतर्गत 1226 मामले दर्ज हुए थे.

सन् 2016 की तुलना में यह 33 प्रतिशत की वृद्धि है. ज्ञातव्य है कि धारा 124ए के अंतर्गत तीन साल से लेकर आजीवन कारावास की सजा हो सकती है और यूएपीए अर्थात् गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) कानून के अंतर्गत मामलों में सामान्यत: अदालतें जमानत भी नहीं देतीं.

आंकड़े बहुत कुछ कहते हैं, पर बहुत कुछ आंकड़ों के घटाटोप में छिप भी जाता है. मसलन 124ए के अंतर्गत जिन लोगों को देशद्रोह का आरोप झेलना पड़ रहा है उनमें विद्यार्थियों से लेकर पत्रकार, बुद्धिजीवी, लेखक, कलाकार, पर्यावरण-कार्यकर्ता तक शामिल हैं. वर्ष 2019 में देशद्रोह के नौ प्रतिशत और यूएपीए के ग्यारह प्रतिशत पिछले मामले पुलिस ने ‘प्रमाण’ के अभाव में वापस ले लिए थे.

यह तथ्य भी गौर करने लायक है कि वर्ष 2019 में ‘देशद्रोह’ के 3.3 प्रतिशत मामलों में ही सजा सुनाई गई थी, जबकि यू.ए.पी.ए. मामलों में यह प्रतिशत लगभग 29 था. यहीं इस तथ्य की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती कि ‘देशद्रोह’ एक बहुत ही गंभीर अपराध है और चौबीसों घंटों के समाचार-चैनलों के युग में किसी को बार-बार देशद्रोह का आरोपी बताना संबंधित व्यक्ति की सामाजिक छवि को क्षति पहुंचा सकता है.

इस संदर्भ में पिछले कुछ सालों में जो एक और प्रवृत्ति सामने आई है, वह सरकार के विरोध को देशद्रोह मान लेने की है. अक्सर इस बात को भुला दिया जाता है कि देश और सरकार एक-दूसरे के पर्यायवाची नहीं हैं. सरकार की आलोचना करने का मतलब देश के प्रति गद्दारी करना नहीं हो सकता. जनतांत्रिक व्यवस्था में हम देश का काम-काज चलाने के लिए सरकार चुनते हैं. यह सरकार घोषित नीतियों और देश के संविधान के अनुसार शासन चलाती है. नागरिक का अधिकार है, और कर्तव्य भी, कि वह अपने द्वारा चुनी हुई सरकार की नीतियों और उसके कार्यो की आलोचना कर सके.

जनतंत्न में विरोध एक पवित्न और महत्वपूर्ण शब्द है. सच बात तो यह है कि यह एक शब्द मात्न नहीं है, यह एक विचार है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्नता इसी विचार को परिभाषित करती है. फ्रांसीसी दार्शनिक वाल्तेयर ने कहा था कि ‘हो सकता है मैं आप से असहमत होऊं, पर अपनी बात कहने के आपके अधिकार की रक्षा मैं अपनी अंतिम सांस तक करूंगा.’

उनका यह कथन जनतांत्रिक मूल्यों-आदर्शो को उजागर करने वाला है. विरोध या असहमति जनतंत्न की भावना और परिकल्पना का एक आधार है. इस आधार की उपेक्षा का मतलब जनतांत्रिक आदर्शो को अस्वीकारना है. सच तो यह है कि जब हम गुलाम थे तो अंग्रेजों ने अपने विरोध को राष्ट्र-विरोध मानने का षड्यंत्न किया था.

आज से 184 वर्ष पहले, सन् 1837 में आईपीसी के प्रारूप में देशद्रोह की चर्चा सुनी गई थी. मैकाले ने तब कहा था, कोई भी जो सरकार के प्रति असंतोष फैलाता है तो उसे तीन वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा दी जा सकती है. वर्ष 1860 में इस संबंध में कानून भी बना, पर उसमें भी राष्ट्र-द्रोह वाली धारा नहीं थी. दस साल बाद 1870 में यह गलती सुधारी गई और दंड सहिता में धारा 124ए जोड़ी गई.

अंग्रेजों ने तो अपने हित के लिए यह धारा जोड़ी थी, तब उन्होंने अपनी सरकार को देश का पर्याय माना था. दुर्भाग्य से आज भी इस तरह की सोच पल रही है. सन् 1860 में इस धारा का न जुड़ना अंग्रेजों के लिए एक गलती थी, और स्वतंत्न भारत में इस धारा (124ए) का जुड़ा रहना गलती  है.

पिछले सत्तर सालों में इस धारा को हटाने की बात तो हुई है, पर बात सिरे नहीं लगी. अब समय आ गया है कि सरकार और राष्ट्र को पर्याय मानने की गलती को सुधारा जाए. राष्ट्र-हित सर्वोपरि है, राष्ट्र-प्रेम सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवधारणा है, पर जनतांत्रिक मूल्यों-आदर्शो की अनदेखी नहीं होनी चाहिए. विवेक का तकाजा है कि इन मूल्यों की हरसंभव तरीके से रक्षा हो.

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