गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: धर्म की आड़ में शोषण किए जाने की त्रासदी

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: July 9, 2024 12:57 IST2024-07-09T12:54:23+5:302024-07-09T12:57:23+5:30

कुछ ऐसा ही हुआ जब भक्ति, समर्पण और जीवन में उत्कर्ष की आकांक्षा लिए निष्ठा के साथ इकट्ठा हुए श्रद्धालु भक्तों के हुजूम के बीच अचानक हुई भगदड़ के दौरान बीती दो जुलाई को सवा सौ लोगों को असमय ही अपनी जानें गंवानी पड़ीं और बड़ी संख्या में लोग घायल भी हुए.

Tragedy of exploitation under the guise of religion | गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: धर्म की आड़ में शोषण किए जाने की त्रासदी

(प्रतीकात्मक तस्वीर)

Highlightsसामाजिक स्तर पर मानसिकता में सुधार की भी गुंजाइश है. राजनीतिक और सामाजिक विमर्श में तर्क, वैज्ञानिक बोध और आध्यात्मिकता के महत्व की अनदेखी नहीं की जा सकती.निश्चय ही उत्साह, उमंग, जिज्ञासा और अपना जीवन संवारने की अभिलाषा भीड़ के उमड़ने में खास कारण रही होगी. 

आज के जटिल तनावों के बीच साधारण आदमी मन की शांति भी चाहता है और अपनी तमन्नाओं को फलीभूत भी करना चाहता है. इन दोनों कामनाओं की पूर्ति के लिए वह भटकता रहता है. उस मन:स्थिति में अगर कोई उठकर हाथ थामने का स्वांग भी भरे तो बड़ी राहत मिलती है. 

कुछ ऐसा ही हुआ जब भक्ति, समर्पण और जीवन में उत्कर्ष की आकांक्षा लिए निष्ठा के साथ इकट्ठा हुए श्रद्धालु भक्तों के हुजूम के बीच अचानक हुई भगदड़ के दौरान बीती दो जुलाई को सवा सौ लोगों को असमय ही अपनी जानें गंवानी पड़ीं और बड़ी संख्या में लोग घायल भी हुए. यह विचलित कर देने वाला दुखद हादसा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर हाथरस के एक गांव में हुआ.

यह मानवीय त्रासदी जनता, धर्मगुरुओं, उपदेशकों और जन-व्यवस्था के लिए जिम्मेदार सरकार, सब के सामने कई तरह के सवाल छोड़ गई. आज इक्कीसवीं सदी के ज्ञान युग में विकसित भारत का दम भरने वाले, विश्व की तीसरी अर्थव्यवस्था का सपना संजोने वाले हम सबको विचार के लिए बाध्य कर रही है. हमें सोचना होगा और व्यवस्था में सुधार लाना होगा. सामाजिक स्तर पर मानसिकता में सुधार की भी गुंजाइश है. 

राजनीतिक और सामाजिक विमर्श में तर्क, वैज्ञानिक बोध और आध्यात्मिकता के महत्व की अनदेखी नहीं की जा सकती. एक गांव में दो-ढाई लाख की भीड़ का जुटना और वहां सत्संग में जमे रहना लोगों की सामाजिक और मानसिक गतिकी की तरफ भी इशारा करता है. निश्चय ही उत्साह, उमंग, जिज्ञासा और अपना जीवन संवारने की अभिलाषा भीड़ के उमड़ने में खास कारण रही होगी. 

भीड़ में पहुंच कर सचेत व्यक्ति भीड़ के अचेतन व्यक्तित्व में समा जाता है, वह स्वतंत्र व्यक्ति नहीं रह जाता. भीड़ को सबसे अस्थिर और अस्थायी समूह कहा जा सकता है. भीड़ में पहुंचे सभी व्यक्तियों के भाव और विचार की धारा एक ही दिशा में बहने लगती है. इसलिए जब भीड़ जुटती है तो एक संक्रामक स्थिति बन जाती है. व्यक्ति के अपने निजी तर्क की जगह सामूहिक तर्क चलने लगता है. 

एक हद तक अदूरदर्शिता आ जाती है. आगे का कुछ सूझता नहीं है. तब आदमी में बुद्धि की जगह संवेदना और घोर भावात्मकता काम करने लगती है. भीड़ में निजी या व्यक्तिगत विशेषताएं खो जाती हैं. 

समानता, समता, समाजवाद, भाईचारा, धर्मनिरपेक्षता, महिला सशक्तिकरण, गरीबी उन्मूलन आदि का नारा देश में पिछले कई दशकों से लगाया जा रहा है, पर यह त्रासदी मंथन के लिए मजबूर कर रही है कि हम बहुत कुछ सतही स्तर पर ही करते रहे हैं. इस तरह की विभीषिका समाज और सरकार सबके लिए चेतावनी है कि समाज में अच्छी शिक्षा का विस्तार हो, विवेक-बुद्धि का विकास हो और व्यवस्था चाक-चौबंद हो.

Web Title: Tragedy of exploitation under the guise of religion

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