ब्लॉग: अंग्रेजी के शिकंजे से निकलने के लिए हमें चाहिए अनुवाद की कई फैक्टरियां

By अभय कुमार दुबे | Published: November 4, 2022 09:38 AM2022-11-04T09:38:30+5:302022-11-04T09:38:30+5:30

To get out of clutches of English, our education system need many translators | ब्लॉग: अंग्रेजी के शिकंजे से निकलने के लिए हमें चाहिए अनुवाद की कई फैक्टरियां

ब्लॉग: अंग्रेजी के शिकंजे से निकलने के लिए हमें चाहिए अनुवाद की कई फैक्टरियां

क्या मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में नहीं होनी चाहिए? आम तौर पर इस सवाल का उत्तर हां में मिलेगा. लेकिन, इस ‘हां’ पर संदेह करने वाले भी हैं. वे यह मानते हैं कि इसकी जरूरत ही नहीं है. भाषा से मेडिकल और इंजीनियरिंग का क्या ताल्लुक? कोई भी भाषा हो, क्या फर्क पड़ता है. इसलिए अंग्रेजी ही ठीक है. 

दरअसल, ऐसे लोग भारत में अंग्रेजी की विकृत भूमिका को या तो समझने के लिए तैयार नहीं हैं, या समझ कर भी नासमझ बने रहना चाहते हैं.

अंग्रेजी की भूमिका स्पष्ट करने के लिए यहां मैं एक उदाहरण देना चाहता हूं. उत्तर प्रदेश के एक अर्धग्रामीण क्षेत्र में मैं पांचवीं कक्षा तक गणित की पढ़ाई हिंदी में करता था. मसलन, मैं कहता था— दो धन दो बराबर चार. जब मैं छठी कक्षा में आया तो मैं कहने लगा— टू प्लस टू इज इक्वल टू फोर. यानी, ‘बराबर’ की जगह ‘इज इक्वल टू’ आ गया. मेरी कक्षा में गिने-चुने छात्र ही ऐसे थे जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि में अंग्रेजी का कुछ स्थान था. केवल वे ही ‘इज इक्वल टू’ को समझते और साफ तौर पर सही बोल पाते थे. बाकी छात्र इसे हिंदी के ही एक शब्द के तौर पर ‘इजुकल्टू’ बोलते थे. 

बहुत आगे जाकर उनके मुख से ‘इज इक्वल टू’ निकलना शुरू हुआ. लेकिन, जब ये छात्र स्नातक कक्षाओं में पहुंचे तो अंग्रेजी में कमजोर होने के कारण उनके लिए गणित की कक्षा में छह महीने टिकना भी मुश्किल हो गया. इस उदाहरण को एक रूपक के तौर पर देखना चाहिए. विज्ञान और गणित पढ़ने वाले छात्रों की शुरुआती बौद्धिक ऊर्जा का आधे से ज्यादा हिस्सा अंग्रेजी में सहज होने में खप जाता है. विषय का ज्ञान प्राप्त करना दूसरे नंबर पर चला जाता है. 

ऐसी सूरत में स्नातक स्तर पर फेल होने वालों के प्रतिशत में जबर्दस्त उछाल आता है. अगर इन छात्रों को इनकी अपनी भाषा में गणित पढ़ाया जाए तो उनकी समस्त ऊर्जा विषय को समझने में खर्च होगी. कमजोर जातियों के छात्र अंग्रेजी की इस समस्या से अधिक प्रभावित होते हैं. लेकिन, ऊंची जातियों में भी इस तरह के छात्रों की कमी नहीं है.

गृह मंत्री द्वारा आयुर्विज्ञान (मेडिकल साइंस) की पुस्तकों को हिंदी में जारी करने से शुरू हुई बहस ने डॉ. लोहिया की याद दिला दी है. डॉ. लोहिया ने प्रस्ताव रखा था कि गर्मियों की छुट्टी में सारे अध्यापकों को अनुवाद के काम में लगा देना चाहिए ताकि अंग्रेजी की किताबों को हिंदी में फटाफट तैयार किया जा सके. वे चाहते थे कि ऐसा करने से अंग्रेजी को शिक्षा के माध्यम से हटाने का रास्ता खुल जाएगा. शिक्षा जैसे ही अंग्रेजी के शिकंजे से निकलेगी, वैसे ही ज्ञान के लोकतंत्रीकरण का रास्ता खुल जाएगा. 

भारतवासियों की प्रतिभा प्रस्फुटित हो उठेगी. लोहिया द्वारा इस आशय की बात साठ के दशक में कही गई थी. उन दिनों भी अंग्रेजी का प्रकोप  था, पर आज के मुकाबले उसकी तीव्रता कम थी. अंग्रेजी में पढ़ाने वाले अध्यापकों की हिंदी भी अच्छी होती थी. अगर कराया जाता, तो शायद वे हिंदी में अनुवाद कर सकते थे. आज स्थिति बदल गई है. अंग्रेजी की किताबों से और अंग्रेजी में पढ़ाने वाले अध्यापक हिंदी का इस्तेमाल केवल कामचलाऊ ढंग से कर पाते हैं. अपनी ही भाषा का ज्ञानात्मक इस्तेमाल करने की उनकी क्षमता का पूरी तरह से क्षय हो चुका है.

लेकिन, परिस्थिति का एक नया पहलू यह है कि अनुवादकों का एक समुदाय बाजार में आ चुका है. यह अलग बात है कि अनुवाद से रोजी कमाने वाले ये लोग  पढ़ाई-लिखाई की दुनिया के सर्वाधिक शोषित और कमतर समझे जाने वाले हिस्से हैं. इनके बारे में माना जाता है कि इनका हाथ अंग्रेजी में तंग है. इसलिए ये अंग्रेजी में मूल लेखन नहीं कर सकते. 

अनुवादक बनना इनके लिए मजबूरी है. यानी, जिसे अंग्रेजी आती होगी, वह अनुवादक नहीं बनेगा. नतीजतन, अंग्रेजी के मूल लेखकों और हिंदी के अनुवादकों की दो श्रेणियां बन गई हैं. एक उच्चतर है, एक कमतर है. चूंकि मेडिकल और इंजीनियरिंग की पुस्तकों का हिंदी में मूल लेखन होता ही नहीं है, इसलिए अनुवादक दूसरी पायदान  पर रहने के लिए अभिशप्त हैं. जो हिंदी के लिए सच है, वह तमिल और बंगाली जैसी भारतीय भाषाओं के लिए भी उतना ही सच है.

अगर भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, जीवविज्ञान, वनस्पतिशास्त्र, गणित और यांत्रिकी जैसे विषयों के ज्ञान को हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में लाना है तो सरकार को ऐसी संस्थाएं बनानी होंगी जो विज्ञान के अनुवाद के लिए सहमत हों. दिन-रात इसी बारे में सोचें, भाषाई जद्दोजहद करें, और आसान से आसान भाषा में रोचक ढंग से अनुवाद का सिलसिला आगे बढ़ाएं. 

इन संस्थाओं में अच्छे अनुवादकों को नौकरी मिल सकती है. सरकार यह संस्थागत प्रयास दो तरह से कर सकती है. अनुवाद की संस्थाएं अलग से गठित की जाएं या उन्हें मौजूदा शोध-संस्थानों और विश्वविद्यालयों का अंग बनाया जाए. मेरे ख्याल से दूसरा रास्ता पहले के मुकाबले बेहतर है. ऐसी बात नहीं कि विश्वविद्यालयों में ट्रांसलेशन के विभाग नहीं हैं, पर उनमें अनुवाद के ऊपर अकादमीय पढ़ाई होती है. 

यहां जरूरत व्यावहारिक अनुवाद करने की है, न कि अनुवाद और उसकी प्रक्रिया का अकादमीय अर्थ ग्रहण करने की. दरअसल, ये संस्थाएं अनुवाद की फैक्टरियों की तरह काम करेंगी. इससे बड़े पैमाने पर अनुवाद संपन्न हो सकेगा. भारत जैसी बड़ी आबादी वाले देश में करोड़ों छात्रों को भारतीय भाषाओं में पुस्तकों की जरूरत है. इसकी आपूर्ति इसी तरीके से हो सकती है.

Web Title: To get out of clutches of English, our education system need many translators

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