मंजिल अभी नजदीक नहीं

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: August 26, 2018 02:55 AM2018-08-26T02:55:06+5:302018-08-26T02:55:06+5:30

सत्ता में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ी है पर राजनीति का स्वभाव अभी भी यथावत बना हुआ है। स्त्रियों को उनकी रुचि के अनुसार अपने जीवन को गढ़ने की स्वतंत्नता के साथ सहजता से जीवनयापन अभी भी अधिकांश महिलाओं के लिए स्वप्न है। 

The floor is not near yet | मंजिल अभी नजदीक नहीं

मंजिल अभी नजदीक नहीं

(गिरीश्वर मिश्र)
नारी के उत्पीड़न और शोषण की कथा पुरानी है। तरह-तरह की औपचारिक, अनौपचारिक, शास्त्नीय और लौकिक व्यवस्थाओं के जरिए पुरुष द्वारा की जाने वाली प्रताड़ना सदियों से चली आ रही है। इक्कीसवीं सदी में भी उनकी कराह और घुटन बरकरार है। छिटपुट बदलाव जरूर आया है और कुछ महिलाएं ज्ञान, विज्ञान, खेल, कला, कौशल के क्षेत्नों में आगे आ रही हैं। 

यही नहीं वे साहस, बल और चुनौती भरे व्यवसायों में भी न केवल आगे आ रही हैं बल्कि खुद को पुरुषों से भी श्रेष्ठ साबित कर ‘अबला’ का मिथक तोड़ रही हैं। परंतु भ्रूण-हत्या, दहेज-हत्या, दुराचार, छेड़छाड़, दुष्कर्म, घरेलू हिंसा, बाल यौन-शोषण और अत्याचार की घटनाएं आए दिन शर्मसार कर रही हैं। अक्सर स्त्रियों के श्रम का मूल्य अलक्षित ही रह जाता है।

 गांव-घर से बाहर निकल कर काम-काज की दुनिया जो उनको आत्म-विश्वास और आत्म-निर्भरता दे सकती है वहां से भी बहुत अच्छी खबरें नहीं आती हैं। घर और आफिस की दोहरी जिम्मेदारी निभाने के लिए स्त्नी के साथ पुरुष को भी अपनी सोच और जीवन-शैली बदलनी होगी। दकियानूसी परंपराओं में बदलाव की आहट और सुगबुगाहट तो है पर असमंजस, शंका और अविश्वास की छाया भी बनी हुई है।

स्त्नी की महिमा और उसकी शक्ति की परिकल्पना और आख्यान हमारे देश में वैदिक काल से ही मिलते हैं। परंतु पितृसत्तात्मक संरचना में उसका विकास अवरु द्ध हो जाता है और इस छवि को वह अंगीकार भी कर लेती है। इसलिए उसे बाहरी दुनिया के साथ खुद से भी लड़ना पड़ता है। स्त्नी की आवाज अब तेज हो रही है। स्त्नी-विमर्श और उससे जुड़े आंदोलन स्त्रियों को घर-गृहस्थी से विस्तृत दुनिया में सपने देखने के अवसर दे रहे हैं। 

इन सब के बीच स्त्रियों की एक नहीं कई-कई तरह की दुनिया बन-बिगड़ रही है। पश्चिमी दुनिया में स्त्रियों को लेकर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विधिवत चर्चा शुरू हुई थी और स्त्नी की अवधारणा की बुनावट और निर्मिति को लेकर तीखी बहस छिड़ी।

आजाद होने के बाद भारत में स्थितियां बदली हैं। मध्यवर्गीय लड़कियां पढ़ने में आगे बढ़ी हैं। अब अध्यापन, डॉक्टरी, वकालत, ज्यूडीशियरी ही नहीं विज्ञान, पुलिस और सेना जैसे व्यवसायों में भी वे आगे आ रही हैं। यह बात लोग समझने लगे हैं कि स्त्नी उपभोग की वस्तु नहीं है, गुलाम नहीं है और इससे उबरने के लिए शिक्षा और आत्मनिर्भरता पर बल दिया जाने लगा। 

भ्रांतियों को तोड़ते हुए देह की सीमा से मुक्ति की मुहिम अनेक दिशाओं में चल पड़ी। कुछ पुरुष इस बदलाव को अपने  नैसर्गिक वर्चस्व की हेठी मान हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। उनका अहंकार बदलाव को पचा नहीं पाता है। साथ ही बाजार, विज्ञापन और पश्चिमी दुनिया की अंधी नकल के कई दुष्परिणाम भी दिख रहे हैं। इसके बावजूद नई पीढ़ी की स्त्रियां आगे कदम बढ़ाती स्त्रियां हैं जो अन्याय और दमन के विरुद्ध खड़ी हो रही हैं। 

वे अंतरंगता, नैतिकता, यौनिकता और उदारता जैसे सवालों से टकराती हैं और अपने विकल्प ढूंढती आत्म-सम्मान से समझौता नहीं करतीं। वे अपनी लड़ाई खुद लड़ने के लिए तैयार हो रही हैं। समतामूलक राजनीतिक पहल भी कई स्तरों पर हुई है और महिला सशक्तिकरण की कोशिशें शुरू हुई हैं। पर ईमानदार और दृढ़ इच्छाशक्ति न होने से अभी तक महिला आरक्षण के मामले में वांछित प्रगति नहीं हो सकी है। 

सत्ता में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ी है पर राजनीति का स्वभाव अभी भी यथावत बना हुआ है। स्त्रियों को उनकी रुचि के अनुसार अपने जीवन को गढ़ने की स्वतंत्नता के साथ सहजता से जीवनयापन अभी भी अधिकांश महिलाओं के लिए स्वप्न है। 

Web Title: The floor is not near yet

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