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ब्लॉगः जन-दक्षेस संगठन बनाने की जरूरत, 2014 के बाद दक्षेस का कोई शिखर सम्मेलन नहीं!

By वेद प्रताप वैदिक | Updated: September 23, 2021 15:43 IST

2014 के बाद दक्षेस का कोई शिखर सम्मेलन वास्तव में हुआ ही नहीं. 2016 में जो सम्मेलन इस्लामाबाद में होना था, उसका आठ में से छह देशों ने बहिष्कार कर दिया था.

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ठळक मुद्देनेपाल उस समय दक्षेस का अध्यक्ष था और काठमांडू में दक्षेस का कार्यालय भी है.दक्षेस बिल्कुल पंगु हुआ पड़ा है. यह 1985 में बना था लेकिन 35 साल बाद भी इसकी ठोस उपलब्धियां नगण्य ही हैं.दक्षेस-राष्ट्रों ने मुक्त व्यापार, उदार वीजा-नीति, पर्यावरण-रक्षा, शिक्षा, चिकित्सा आदि क्षेत्नों में परस्पर सहयोग पर थोड़ी-बहुत प्रगति जरूर की है.

दक्षेस (सार्क) के विदेश मंत्रियों की जो बैठक न्यूयॉर्क में होने वाली थी, वह स्थगित हो गई है. उसका कारण यह बना कि अफगान सरकार का प्रतिनिधित्व कौन करेगा?

 

सच पूछा जाए तो 2014 के बाद दक्षेस का कोई शिखर सम्मेलन वास्तव में हुआ ही नहीं. 2016 में जो सम्मेलन इस्लामाबाद में होना था, उसका आठ में से छह देशों ने बहिष्कार कर दिया था, क्योंकि जम्मू में आतंकवादियों ने उन्हीं दिनों हमला कर दिया था. नेपाल अकेला उस सम्मेलन में सम्मिलित हुआ था, क्योंकि नेपाल उस समय दक्षेस का अध्यक्ष था और काठमांडू में दक्षेस का कार्यालय भी है.

दूसरे शब्दों में इस समय दक्षेस बिल्कुल पंगु हुआ पड़ा है. यह 1985 में बना था लेकिन 35 साल बाद भी इसकी ठोस उपलब्धियां नगण्य ही हैं, हालांकि दक्षेस-राष्ट्रों ने मुक्त व्यापार, उदार वीजा-नीति, पर्यावरण-रक्षा, शिक्षा, चिकित्सा आदि क्षेत्नों में परस्पर सहयोग पर थोड़ी-बहुत प्रगति जरूर की है लेकिन हम दक्षेस की तुलना यदि यूरोपीय संघ और ‘आसियान’ से करें तो वह उत्साहवर्धक नहीं है.

फिर भी दक्षेस की उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता है. इसे फिर से सक्रिय करने का भरसक प्रयत्न जरूरी है. जिन दिनों ‘सार्क’ यानी ‘साउथ एशियन एसोसिएशन ऑफ रीजनल कोऑपरेशन’ नामक संगठन का निर्माण हो रहा था तो इसका हिंदी नाम ‘दक्षेस’ मैंने दिया था. मैंने ‘दक्षिण एशियाई क्षेत्नीय सहयोग संघ’ का संक्षिप्त नाम ‘दक्षेस’ बनाया था.

उस समय यानी अब से लगभग 40 साल पहले भी मेरी राय थी कि दक्षेस के साथ-साथ एक जन-दक्षेस संगठन भी बनना चाहिए यानी सभी पड़ोसी देशों के समान विचारों वाले लोगों का संगठन होना भी बहुत जरूरी है. सरकारें आपस में लड़ती-झगड़ती रहें तो भी उनके लोगों के बीच बातचीत जारी रहे. यह इसलिए जरूरी है कि दक्षिण और मध्य एशिया के 16-17 देशों के लोग एक ही आर्य परिवार के हैं.

उनकी भाषा, भूषा, भोजन, भजन और भेषज अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन उनकी संस्कृति एक ही है. अराकान (म्यांमार) से खुरासान (ईरान) और त्रिविष्टुप (तिब्बत) से मालदीव के इस प्रदेश में खनिज संपदा के असीम भंडार हैं. यदि भारत चाहे तो इन सारे पड़ोसी देशों को कुछ ही वर्षो में मालामाल किया जा सकता है और करोड़ों नए रोजगार पैदा किए जा सकते हैं.

यदि हमारे ये देश यूरोपीय राष्ट्रों की तरह संपन्न हो गए तो उनमें स्थिरता ही नहीं आ जाएगी बल्कि यूरोप के राष्ट्रों की तरह वे युद्धमुक्त भी हो जाएंगे. पिछले 50-55 वर्षो में लगभग इन सभी राष्ट्रों में मुङो दर्जनों बार जाने और रहने का अवसर मिला है. भारत के लिए उनकी सरकारों का रवैया जो भी रहा हो, इन देशों की जनता का भारत के प्रति रवैया मैत्नीपूर्ण रहा है. इसीलिए भारत के प्रबुद्ध और संपन्न नागरिकों को जन-दक्षेस के गठन की पहल तुरंत करनी चाहिए.

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