राजेश बादल का ब्लॉगः सत्ता के लिए द्वार खोलने के खतरे भी कम नहीं

By राजेश बादल | Updated: August 20, 2019 05:45 IST2019-08-20T05:45:31+5:302019-08-20T05:45:31+5:30

वे यह तथ्य स्थापित करते हैं कि पार्टी में काबिल लोगों का सूखा पड़ गया है और सरकार चलाने के लिए दूसरे दलों के मुखौटे लगाने की जरूरत आन पड़ी है. लोकतंत्न की सेहत के लिए यह शुभ संकेत नहीं है.

Rajesh Badal's blog: The danger of opening the door to power is no less | राजेश बादल का ब्लॉगः सत्ता के लिए द्वार खोलने के खतरे भी कम नहीं

राजेश बादल का ब्लॉगः सत्ता के लिए द्वार खोलने के खतरे भी कम नहीं

चाल चरित्न और चेहरे पर गर्व करने वाली पार्टी में सब कुछ ठीक नहीं लगता. दूसरे दलों से नेताओं की आवक के लिए मुक्त द्वार नीति के साइड इफेक्ट्स पार्टी की देह पर नजर आने लगे हैं. आश्चर्य की बात है कि भाजपा को न तो बहुमत के लिए बाहरी नेताओं का अकाल है और न ही कोई ऐसा वैचारिक संकट है, जिसके चलते संसार के सबसे बड़े इस दल को अन्य विचारधाराओं के लीडर आयात करना आवश्यक हो गया हो. अलबत्ता इन नेताओं को बिना विचारे भगवा रंग में रंगने के प्रयासों ने पार्टी का अपना रंग ही बदरंग कर दिया है. क्या शिखर नेतृत्व इस हकीकत से वाकिफ है कि ऐसे फैसले दल की अपनी पहचान को हाशिए पर ले जाते हैं. वे यह तथ्य स्थापित करते हैं कि पार्टी में काबिल लोगों का सूखा पड़ गया है और सरकार चलाने के लिए दूसरे दलों के मुखौटे लगाने की जरूरत आन पड़ी है. लोकतंत्न की सेहत के लिए यह शुभ संकेत नहीं है.

दरअसल सिलसिला तो छह बरस पहले ही शुरू हो गया था. कांग्रेस समेत अन्य सियासी पार्टियों से दुखी प्राणी खोज-खोज कर लाए जाने लगे. पार्टी के दशकों तक वफादार रहे कार्यकर्ता-नेता कुढ़ते हुए उन्हें मलाईदार ओहदों पर आसीन होते देखते रहे और कराहते हुए शिखर नेतृत्व की जयकार करते रहे. जब यह वेदना घनी हो गई तो एकनाथ खड़से जैसे नेताओं के सुर मुखर होने लगे. चाहे वे नितिन गडकरी के हवाले से कहें अथवा अपना साहस जुटाते हुए यह स्वीकार करें कि पार्टी की छवि खराब हो रही है. जिन सियासतदानों पर भाजपा प्रमाण के साथ भ्रष्टाचार के आरोप लगाती रही है अब के पार्टी कार्यकर्ता उन्हीं की जिंदाबाद कर रहे हैं. अगर महाराष्ट्र का उदाहरण देखें तो राधाकृष्ण विखे पाटिल, कालिदास कोलंबकर, शिवेंद्र सिंह भोंसले, संदीप नायक और वैभव पिचड़ सत्तारूढ़ दल का अंग बन गए हैं. खड़से की राय है कि अच्छे लोगों के पार्टी में शामिल होने का कौन विरोध करेगा. पर स्वार्थपूर्ति के लिए भाजपा की गोद में बैठने वालों से तो बचना ही बेहतर है.

मध्य प्रदेश में भी इस तरह के अनेक उदाहरण हैं. जो नेता अपना धंधा चमकाने के लिए, अदालतों में चल रहे मामले वापस लेने के लिए पैसा देकर या पैसा लेकर पार्टी में आते हैं या पार्टी से जाते हैं, वास्तव में उनकी नए दल के प्रति कोई निष्ठा नहीं होती न ही विचारधारा का समर्थन करते हैं. पार्टी के दो विधायकों ने बीते दिनों विधानसभा में खुलकर कांग्रेस का समर्थन किया. पूर्व मंत्नी संजय पाठक ने तो अपने परिवार की खुलकर कांग्रेस के प्रति आस्था जताई है. चंबल के कद्दावर नेता राकेश सिंह चौधरी का उदाहरण सामने है. साध्वी प्रज्ञा ठाकुर ने नामांकन दाखिल करने से ठीक पहले भाजपा की सदस्यता ली और अपनी सार्वजनिक टिप्पणियों से प्रधानमंत्नी को ही आहत कर दिया. उन्हें कहना पड़ा कि वे प्रज्ञा ठाकुर को कभी माफ नहीं कर पाएंगे. यह तो कोई भी स्वीकार नहीं करेगा कि प्रज्ञा के बयानों से भाजपा की छवि उज्ज्वल हुई है. अब अनुशासन समिति करे भी तो क्या? मामले को लटकाने के सिवा रास्ता ही क्या है. मध्य प्रदेश के अलावा बंगाल, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, असम, राजस्थान और दक्षिण भारत के अनेक राज्यों में अन्य दलों से नेताओं का वंदन - अभिनंदन किया गया है. राजनीति की इस हाइब्रिड शैली ने सिद्धांतों की देसी नस्ल कहीं गुम कर दी है.

भारतीय लोकतंत्न ने एक दौर ऐसा भी देखा है, जब पार्टियों में कार्यकर्ता बहुत ठोंक-बजा कर लिए जाते थे. वे केवल जनसभाओं में दरियां बिछाने का काम ही नहीं करते थे, बल्कि आम अवाम की सोच ऊपर तक संप्रेषित करने का काम भी करते थे. इस कारण उनको बाकायदा प्रशिक्षित किया जाता था. उनके विचार शिविर लगते थे और उन्हें अपने दल की विचारधारा के अनुरूप संस्कारित करने पर जोर दिया जाता था. तब कहीं जाकर कार्यकर्ताओं में वह अनुशासन और संयम आता था. कांग्रेस और वाम दलों की तुलना में भाजपा के भीतर आचरण की शुचिता और वैचारिक आधार को मजबूत बनाने पर काफी ध्यान दिया गया. मगर हाल के दिनों में जिस तरह से दीगर दलों से नेताओं का शिकार किया जा रहा है, उससे प्रश्न उठता है कि क्या सामने वाली पार्टी को कमजोर करने का षड्यंत्न इस आयाराम के पीछे है अथवा अपनी पार्टी को मजबूत करने के लिए इन सियासतदानों को लाया जा रहा है. इसका उत्तर जो भी हो, परिणाम तो इस कहावत की तरह ही होगा कि तरबूज चाकू पर गिरे या चाकू तरबूज पर - नुकसान तरबूज को ही होगा. फौरी तौर पर यह क्षति भाजपा को चाहे न दिखाई दे पर दूरगामी अंजाम बहुत अच्छे नहीं होंगे. पार्टी के नियंताओं को यह समझ लेना चाहिए कि सियासत में अनेक तीर उलटकर वापस लगते हैं. चेतावनी यह भी है कि इस तरह के निर्णयों से दल के अंदर एक खड़ा विभाजन हो जाता है. एक ओर समर्पित और मूल चरित्न के कार्यकर्ता होते हैं और दूसरी ओर अवसरवादी और मौसमी कार्यकर्ता होते हैं. वे हवा का रुख भांपते हैं. भाजपा को यह याद रखना होगा कि कांग्रेस भी कुछ समय तक इसी संक्रामक बीमारी का शिकार रही थी. दूसरे दलों से नेताओं को लाया गया था. तात्कालिक तौर पर तो उसका  लाभ हुआ, मगर आगे जाकर बहुत घाटा हुआ. इससे सत्ताधारी दल सबक ले तो अच्छा.

Web Title: Rajesh Badal's blog: The danger of opening the door to power is no less

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