राजेश बादल का ब्लॉग: प्रचार में नफरत और घृणा क्या वाकई जरूरी है?
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: April 30, 2019 10:10 IST2019-04-30T10:10:01+5:302019-04-30T10:10:01+5:30
सबसे गंभीर मसला तो धर्म के आधार पर मतदाताओं को बांटने और नफरत फैलाकर वोट मांगने का है. जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 के भाग 7 ‘भ्रष्ट आचरण और निर्वाचन अपराध’ की धारा 125 इस बारे में स्पष्ट कहती है कि...

राजेश बादल का ब्लॉग: प्रचार में नफरत और घृणा क्या वाकई जरूरी है?
चुनाव प्रचार चरम पर है. सारे हथकंडे अपनाए जा रहे हैं. निंदनीय, घृणित और अब तक के सबसे निचले स्तर पर. निजता की हत्या, चरित्न हनन और सार्वजनिक छवि पर कालिख पोतने का कोई अवसर नहीं छोड़ा जा रहा है. आचार संहिता की पोटली कहीं दूर रसातल में पड़ी है. किसी को किसी की चिंता नहीं. राजनेता जिस तरह से इस चुनाव में स्वच्छंद और अराजक बर्ताव कर रहे हैं, वह किसी भी लोकतंत्न को कलंकित करने के लिए काफी है. जन प्रतिनिधित्व निर्वाचन कानून बनाते समय हमारे नियंताओं ने इस स्थिति के बारे में सोचा भी नहीं होगा कि आने वाले चुनाव में उनके वंशज इस कानून का इस तरह मखौल उड़ा सकते हैं.
सबसे गंभीर मसला तो धर्म के आधार पर मतदाताओं को बांटने और नफरत फैलाकर वोट मांगने का है. जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 के भाग 7 ‘भ्रष्ट आचरण और निर्वाचन अपराध’ की धारा 125 इस बारे में स्पष्ट कहती है कि चुनाव के दौरान लोगों के बीच धर्म के आधार पर शत्नुता या घृणा की भावनाएं भड़काने वाले को तीन साल की कैद और जुर्माने से दंडित किया जा सकता है. विडंबना है कि यह धारा किसी राजनीतिक दल के खिलाफ चुप्पी साधे हुए है. यानी किसी दल का कोई उम्मीदवार प्रचार के दौरान हिंदू - मुस्लिम समुदाय को आपस में भड़काने या दोनों समुदायों में शत्नुता पैदा करने वाला प्रचार करता है तो उसके विरु द्ध अपराध दर्ज हो सकता है लेकिन उस दल के खिलाफ कोई कार्रवाई करने का अधिकार चुनाव आयोग को नहीं है. इसी की आड़ में राजनीतिक पार्टियां सजा से बच जाती हैं. इस बार के चुनाव में तो यह अपराध प्रचार का जैसे अमोघ अस्त्न बन गया है. सरेआम माइक पर गालियां दी जा रही हैं, मतदाताओं को धमकियां दी जा रही हैं, उनके धार्मिक प्रतीकों तथा रीति-रिवाजों को निशाना बनाया जा रहा है. इसीलिए इसी महीने 8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट को चुनाव आयोग से जवाब मांगना पड़ा कि जाति और धर्म के आधार पर प्रचार करने वाले उम्मीदवारों पर वह कार्रवाई क्यों नहीं कर रहा है. यदि इस पर आयोग कार्रवाई करता तो कम से कम दो सौ सीटों पर प्रचार में गंदगी पर अंकुश लग जाता. कुछ माहौल ठीक हो जाता. पर ऐसा नहीं हुआ. यह बेहद संवेदनशील मामला है और इस धारा की सीमाओं को लेकर भी अब तक प्रचार प्रसार के नजरिए से खामोशी बरती जाती रही है. एक उदाहरण काफी होगा. सन 2014 में भारत सरकार के पत्न सूचना कार्यालय ने आम चुनाव पर एक प्रामाणिक ग्रंथ प्रकाशित किया. इसमें जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की चुनाव से जुड़ी सारी धाराओं का उल्लेख है, लेकिन भाग 7 की धारा 125 का कहीं कोई जिक्र नहीं है.
इसी तरह आचार संहिता का मामला है. वर्तमान आचार संहिता का कोई वैधानिक आधार नहीं है. केरल विधानसभा के चुनाव में 1960 में सबसे पहले आचार संहिता को अमल में लाया गया. चुनाव आयोग ने 1962 के चुनाव में पहली बार लोकसभा चुनाव में इससे सभी राजनीतिक दलों को परिचित कराया. सारे दलों ने इसका पालन किया. इसके बाद सभी दलों के साथ आयोग की बैठकें हुईं. इनमें दलों ने आचार संहिता का पालन करने का वादा किया. पांच बार इसमें आंशिक संशोधन हुए और 1991 में टी. एन. शेषन के कार्यकाल में मौजूदा आचार संहिता को मंजूर किया गया. इसमें पहली बार जाति और धर्म के आधार पर प्रचार पर पाबंदी लगाई गई थी. इसका परिणाम भी देश ने 1996 के चुनाव में देखा था. कोई कानूनी वैधता नहीं होते हुए भी मुख्य चुनाव आयुक्त ने कठोरता से आचार संहिता का पालन करवाया. सारा देश शेषन का वह रूप देखकर दंग था. यह ढाढस बंधाता था कि जब तक ऐसे रीढ़वान अधिकारी भारत में हैं, तब तक लोकतंत्न को कोई खतरा नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मौजूदा आचार संहिता को न्यायिक मान्यता दी है. लेकिन जब भी इसे वैधानिक रूप देने की बात उठी, चुनाव आयोग ने ही इसका विरोध किया. उसका तर्क है कि 45 दिनों में ही पूरी चुनाव प्रक्रिया संपन्न करानी होती है. अगर आचार संहिता को वैधानिक रूप दिया गया तो अदालतों में मामले लटक जाएंगे. इससे समूची निर्वाचन प्रक्रिया में बाधा पहुंचेगी. चुनाव आयोग के इस मासूम तर्क ने मुल्क की निर्वाचन प्रणाली का बड़ा नुकसान किया है.
गौरतलब है कि 1991 में भी चुनाव आयोग के समक्ष भाजपा का चुनाव चिह्न् वापस लेने की मांग की गई थी. कहा गया था कि लालकृष्ण आडवाणी ने जो राम-रथ यात्ना निकाली, उसके वाहन में राम के साथ कमल बना हुआ था. आरोप यह था कि चुनावी लाभ के लिए धार्मिक प्रतीकों और अपने चुनाव चिह्न् का उपयोग किया गया है. उस समय भी आयोग की विवशता उजागर हुई थी. विडंबना यह है कि किसी राजनीतिक दल का पंजीकरण करने के लिए धारा 29 - क के तहत यह शपथ लेना जरूरी है कि वह दल धर्मनिरपेक्ष है. अब अगर कोई दल बाद में धर्मनिरपेक्ष न भी रहे तो भी उसकी मान्यता आयोग निरस्त नहीं कर सकता क्योंकि मान्यता निरस्त करने का आधार निर्धारित मतों का प्रतिशत हासिल करना है. धर्मनिरपेक्षता की शपथ तोड़ना नहीं. इसी कारण एक बार इंडियन मुस्लिम लीग के खिलाफ याचिका भी खारिज कर दी गई थी. यह समझ से परे है कि चुनाव सुधारों पर हर पार्टी और हर वर्ग बहस करता है लेकिन उन्हें अमल में लाने की कोई कोशिश नहीं करता.