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राजेश बादल का ब्लॉग: संवाद के मंच से हमेशा क्यों बचता है पाकिस्तान ?

By राजेश बादल | Updated: April 25, 2023 10:43 IST

प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ चाहे कितने ही दावा करते रहे, हिंदुस्तान से बेहतर रिश्तों की बात बेमानी है. अलबत्ता उनके भाई नवाज शरीफ हिंदुस्तान के साथ संवाद के खुले पक्षधर रहे हैं.

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पाकिस्तानी विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी कहते हैं कि वे चार मई को भारत के साथ बातचीत करने के लिए नहीं जा रहे हैं. वे शंघाई सहयोग परिषद की बैठक में हिस्सा तो लेंगे, मगर परिषद के अध्यक्ष भारत से संवाद नहीं करेंगे. वे तो यहां तक कहते हैं कि यह भारत यात्रा संबंधों को सुधारने के लिए नहीं है. जब एक संप्रभु राष्ट्र का विदेश मंत्री इस तरह नकारात्मक बयान देता है तो स्पष्ट हो जाता है कि अपने वैदेशिक संबंधों को सुधारना पाकिस्तान की प्राथमिकता सूची में नहीं है. 

विदेश मंत्री के इस कथन का एक अर्थ यह भी निकलता है कि इस पड़ोसी मुल्क की हुकूमत में अभी भी फौजी दखल और रुतबा बरकरार है. यद्यपि बीते दिनों के घटनाक्रम से आंशिक संकेत मिला था कि शायद दुनिया भर में बिगड़ती छवि के कारण पाकिस्तान की सेना अपने को नेपथ्य में रखते हुए सियासत की मुख्य धारा से अलग कर सकती है पर यह नामुमकिन सा ही है और इस देश में एक बड़ा वर्ग आज भी फौजी दबदबे का समर्थक माना जाता है. 

ऐसे में प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ चाहे कितना ही दावा कर लें, हिंदुस्तान से बेहतर रिश्तों की बात बेमानी है. अलबत्ता उनके भाई नवाज शरीफ हिंदुस्तान के साथ संवाद के खुले पक्षधर रहे हैं. सन्‌ 2014 में वे प्रधानमंत्री के शपथ समारोह में हिंदुस्तान आए थे. उसके बाद भारतीय प्रधानमंत्री अनौपचारिक और निजी यात्रा पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के परिवार में एक विवाह समारोह में शामिल होने पाकिस्तान गए थे. उसके बाद से कोई पाकिस्तानी प्रधानमंत्री भारत नहीं आया.

असल में पाकिस्तानी राजनेताओं के साथ बड़ा दिलचस्प विरोधाभास है. वे जब सत्ता में नहीं होते तो अवाम के बीच हिंदुस्तान से बेहतर संबंधों की हिमायत करते हैं, पर जैसे ही सरकार में आते हैं तो उनके सुर बदल जाते हैं. वे सेना के दबाव में आक्रामक भाषा बोलने लगते हैं और भारत के साथ बातचीत से बचते हैं. कई बार तो वे बेवजह संवाद तोड़ने की पहल करते हैं. पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान पद छोड़ने के बाद कई बार हिंदुस्तान की तारीफ में कसीदे पढ़ चुके हैं.

सवाल यह है कि अपनी मौजूदा कंगाली और बदहाली के कारण जानते हुए भी पाकिस्तान भारत के साथ बातचीत की मेज पर आने से परहेज क्यों करता है? समय-समय पर उसने संवाद की ओर बढ़ते कदम वापस खींचे हैं. कश्मीर से अनुच्छेद 370 के विलोपन के बाद से उसने रिश्ते तोड़ने का एकतरफा ऐलान कर दिया था. यहां तक कि रोजमर्रा की वस्तुओं के कारोबार पर भी अपनी ओर से बंदिश लगा दी थी. उसने एक अनोखी शर्त रखी थी कि जब तक भारत सरकार अनुच्छेद 370 बहाल नहीं करती, तब तक उसके साथ कोई संवाद या व्यापार नहीं होगा. 

इस घोषणा से पहले पाकिस्तानी जनता के लिए छोटी-छोटी चीजें भारत से सस्ते दामों पर मिल जाती थीं. यह औसत पाकिस्तानी की जेब के माफिक था और वह किसी तरह कम आमदनी में भी अपना पेट भर लेता था. सड़क मार्ग से आधे घंटे में ही वस्तुएं पाकिस्तान पहुंच जाती थीं. भारतीय उत्पादों की खास बात यह है कि वे संसार के अनेक देशों की तुलना में अपेक्षाकृत सस्ते होते हैं और पिछड़े तथा विकासशील राष्ट्रों की आर्थिक स्थिति के अनुकूल होते हैं. इस प्रकार व्यापार खत्म करने का पाकिस्तान का यह एकतरफा निर्णय आत्मघाती साबित हुआ और मुल्क में महंगाई आसमान पर जा पहुंची. 

दूसरी तरफ भारतीय पक्ष को देखें तो उसने अपनी ओर से कारोबार रोकने का कभी कोई उपक्रम नहीं किया. इतना ही नहीं, पाकिस्तान ने जब अपने कब्जे वाले कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा चीन को उपहार के रूप में दिया, तब भी भारत ने सख्त विरोध तो किया लेकिन संवाद के दरवाजे बंद नहीं किए. इसके बाद जब उसने अनधिकृत तौर पर कश्मीर को अपना सूबा बनाने का प्रयास किया, तब भी हिंदुस्तान ने अपनी ओर से कुट्टी नहीं की. यही एक परिपक्व लोकतांत्रिक सोच का नमूना है. लेकिन पाकिस्तान अपनी विदेश नीति को लट्टू की तरह नचाता रहता है. 

बेपेंदी के लोटे वाली छवि के कारण अंतरराष्ट्रीय बिरादरी भी पाकिस्तान पर कम भरोसा करती है. दोनों देशों के बीच यही चारित्रिक फर्क उन्हें चर्चा के लिए साथ बैठने से दूर ले जाता है.

शंघाई सहयोग परिषद का गठन करीब 22 साल पहले हुआ था. सदस्य देशों के राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षात्मक हितों की रक्षा करना इस संगठन का मुख्य काम था. उस समय इसमें छह सदस्य रूस, चीन, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान और उज्बेकिस्तान शामिल थे. पांच साल पहले हिंदुस्तान और पाकिस्तान को इसमें शामिल किया गया. पिछले साल सितंबर में भारत को इसकी अध्यक्षता मिली थी. इस नाते सदस्य देशों को बैठक के लिए उसने आमंत्रित किया है. 

संभावना तो यह बताई जा रही थी कि यदि बिलावल भुट्टो जरदारी पाकिस्तान से कुछ सकारात्मक और ठोस संकेत लेकर द्विपक्षीय संवाद के लिए आए तो आगामी जुलाई में प्रधानमंत्रियों की बैठक में शामिल होने के लिए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ आ सकते हैं. उसके लिए बिलावल भुट्टो कुछ जमीन तैयार कर सकते थे. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और देसी भाषा में कहें तो यात्रा से पूर्व ही नकारात्मक बयान देकर रायता फैला दिया.

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