राजेश बादल का ब्लॉग: कांग्रेस की पुरानी छवि तो हिंदू पार्टी की ही रही है, फिर बार-बार क्यों देनी पड़ती है सफाई
By राजेश बादल | Published: November 16, 2021 12:13 PM2021-11-16T12:13:05+5:302021-11-16T12:13:05+5:30
सवाल यह है कि कांग्रेस बार-बार बहुसंख्यकों को यह बताने का प्रयास क्यों कर रही है कि वह उनकी विरोधी नहीं है. आजादी के कुछ समय पहले से बाद के अनेक दशकों तक कांग्रेस की छवि हिंदू पार्टी की ही रही है.
अब हिंदुत्व पर होड़ है. तेरे हिंदुत्व से मेरा हिंदुत्व उजला है. तेरा हिंदुत्व नकली, मेरा हिंदुत्व असली है. इस तरह की कुचर्चाओं से इन दिनों माध्यमों के सारे अवतार भरे पड़े हैं. पांच प्रदेशों में चुनाव सिर पर हैं इसलिए मतदाता मंडी में नफरत, उन्माद, घृणा और उग्र भावनाओं के भाव आसमान पर हैं. सत्ता हथियाने के लिए चुनाव के दिनों में समाज को बांटने का अभियान तेज हो जाया करता है.
चुनाव खत्म होने के बाद यह कहीं विलुप्त हो जाएगा. पहले हमारे देश में निर्वाचन सरकार के पांच साल तक कामकाज के मूल्यांकन का आधार बनते थे. अब किसी के खाते में उपलब्धियों का भंडार लबालब नहीं होता लिहाजा निंदा और नफरत बेची जा रही है. उसी के आधार पर लुभाने की कोशिश है. कांग्रेस और भाजपा में नरम और गरम हिंदुत्व भुनाने की होड़ मची है. मतदाता निराश हैं.
भारतीय राष्ट्र राज्य की स्थापना के सिद्धांत अपना मखौल उड़ते देख रहे हैं. बीते दिनों कांग्रेस के एक नेता की किताब बाजार में आई. उसके कुछ अंशों को भाजपा ने लपक लिया. किताब में लेखक ने दोनों धर्मो में कट्टरता की आलोचना की है. लेकिन भाजपा को उसमें केवल हिंदुओं की आलोचना दिखाई दी. उसके बाद कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने हिंदू और हिंदुत्व के मसले पर नई बहस छेड़ दी.
भाजपा को हिंदुओं को रिझाने का यह कांग्रेसी तरीका पसंद नहीं आया. उसका विचार है कि हिंदू मतदाताओं पर उसका ही हक है और कांग्रेस तो हरदम मुस्लिमपरस्त रही है. संसार की सबसे बड़ी पार्टी को यह अफसोस नहीं है कि वह मुस्लिमों को आजादी के पचहत्तर साल बाद भी नहीं अपना सकी है.
कांग्रेस की छवि हिंदू पार्टी की ही रही है
लेकिन अभी तो सवाल यह है कि कांग्रेस बार-बार बहुसंख्यकों को यह बताने का प्रयास क्यों कर रही है कि वह उनकी विरोधी नहीं है. आजादी के कुछ समय पहले से बाद के अनेक दशकों तक कांग्रेस की छवि हिंदू पार्टी की ही रही है. कुछ उदाहरण पर्याप्त होंगे. स्वतंत्रता से ठीक पहले अपने वतन लौटते-लौटते बरतानवी हुकूमत ने आजाद हिंद फौज के तीन सेनानियों पर मुकदमा चलाने का फैसला किया.
इनमें एक हिंदू, दूसरा सिख और तीसरा मुस्लिम था. सुनवाई के दरम्यान कर्नल गुरुबख्श ढिल्लन के सिख पिता बेटे के पास गए और उससे कहा कि वह माफी मांग ले. बेटे ने इंकार कर दिया. पिता ने कहा कि माफी नहीं मांगनी तो मत मांगो, लेकिन अपना केस अकाली दल को लड़ने दो. वही सिखों की पार्टी है. कांग्रेस तो हिंदुओं की पार्टी है. वह तुम्हें न्याय नहीं दिला सकेगी. ढिल्लन ने उत्तर दिया कि यह पार्टी सभी धर्मो की पार्टी है. नेताजी सुभाषचंद्र बोस इसके अध्यक्ष रहे हैं. गांधीजी इसके प्राण हैं. हम सब पहले भारतीय हैं. मजहब उसके बाद है. मत भूलिए कि हमारा मुकदमा भूला भाई देसाई और नेहरूजी जैसे विद्वान लड़ रहे हैं. पिताजी अपना सा मुंह लेकर लौट गए.
मुझमें ब्राह्मणत्व के संस्कार: पंडित नेहरू
इस संदर्भ के जिक्र का अर्थ यह है कि कांग्रेस की पहचान हिंदू पार्टी के रूप में ही थी. उससे सब संबद्ध थे. पर, किसी भी धर्म के अनुयायी को ऐतराज नहीं था. सारी उमर नेहरूजी अपने नाम के आगे पंडित लगाते रहे मगर पार्टी ने मतदाताओं को यह बताने की जरूरत कभी नहीं समझी कि वह हिंदुओं की हितैषी है. खुद पंडित जवाहरलाल नेहरू अपनी पुस्तक मेरी कहानी के पृष्ठ क्रमांक 283 पर लिखते हैं, ‘भारत माता अनेक रूपों में अन्य बालकों की भांति मेरे हृदय में विराजमान है और अंदर के किसी अनजान कोने में कोई सौ पीढ़ियों के ब्राह्मणत्व के संस्कार छिपे हुए हैं. मैं अपने संस्कारों और नूतन ज्ञान से मुक्त नहीं हो सकता.’
इसके बाद भी कांग्रेस की प्रतिपक्षी पार्टी नेहरूजी के हिंदुत्व पर सवाल करती है. मुझे याद है कि बांग्लादेश जन्म के समय पाकिस्तान से जंग छिड़ गई थी और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी दतिया के पीतांबरापीठ में बगलामुखी माता के मंदिर में विजय यज्ञ कराने पहुंची थीं. उनके गले में हमेशा शिवमंत्र संरक्षित रुद्राक्ष रहता था. उस समय भी किसी राजनीतिक दल ने इसे उनका सॉफ्ट हिंदुत्व का प्रदर्शन नहीं माना.
यही नहीं, स्वतंत्रता के बाद भी कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में ही चीन-पाकिस्तान से युद्धों के दरम्यान सेनाएं हर हर महादेव और बजरंग बली के नारे गुंजाते हुए मोर्चे पर बढ़ती थीं. नौसेना में जब कोई युद्धपोत शामिल होता था और अंतरिक्ष में जब उपग्रह प्रक्षेपण होता था तो वैदिक रीति- रिवाज के अनुसार ही विधि-विधान से अनुष्ठान होता था. आज भी होता है. आज भी प्रत्येक बड़ी परियोजना हिंदू विधि से मंत्रोच्चार के बीच शुरू होती है. यह प्रथा नेहरूजी के जमाने से चली आ रही है. लेकिन किसी भी पार्टी ने कभी विरोध नहीं किया.
राजीव गांधी के समय से बिगड़ी बात
दृष्टिदोष तो राजीव गांधी के समय प्रारंभ हुआ, जब अयोध्या में रामलला के मंदिर का ताला खुलवाया गया. तब तक भारतीय जनता पार्टी का जन्म हो चुका था, जो हिंदू वोट बैंक पर अधिकार करना चाहती थी. ठीक वैसा ही, जैसे बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस का दलित वोट बैंक हड़पा और समाजवादी पार्टी ने ओबीसी और अल्पसंख्यक मतों में सेंध लगाई. ले-देकर कांग्रेस के खाते में सवर्ण और हिंदू वोट बचा था, जिसे बाद में भाजपा ने काफी हद तक अपने खाते में ट्रांसफर कर लिया.
वर्तमान राजनीति में धर्म के नाम पर वोट मांगे जा रहे हैं, जाति-उपजाति के नाम पर वोट मांगे जा रहे हैं तो यदि कांग्रेस पुराने दिनों को याद करते हुए बहुसंख्यकों से मत की अपेक्षा करती है तो किसी भी पार्टी को आपत्ति करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं दिखाई देता.