राजेश बादल का ब्लॉग: रात का कर्फ्यू दिखावे वाला कदम, ऐसे उपायों से नियंत्रण में नहीं आएगा कोरोना
By राजेश बादल | Published: December 29, 2021 10:35 AM2021-12-29T10:35:15+5:302021-12-29T10:36:30+5:30
क्या कर्फ्यू प्रमाणपत्र कहीं ले जाकर जमा करना है? ऐसे फैसले समझ से परे हैं. रात के समय औसत आबादी घरों में बंद रहती है. यह तर्क किसके समझ में आएगा कि दिन में भीड़ भरे बाजार खुले रहें, सार्वजनिक आयोजन होते रहें पर कोरोना से सर्वाधिक खतरा रात में सन्नाटे में डूबी सड़कों से है.
कोरोना की नई प्रजाति के दुष्प्रभाव से बचने के लिए उठाए जा रहे कदम इन दिनों चर्चा का विषय हैं. इनमें सबसे अधिक आलोचना रात को लगाए जाने वाले कर्फ्यू की हो रही है. इसके समय का चुनाव लोगों के गले नहीं उतर रहा है. यह समझ से परे है कि भारतीय समाज कोरोना संक्रमण से वाकई लड़ना चाहता है अथवा उसे कर्फ्यू प्रमाणपत्र कहीं ले जाकर जमा करना है.
रात के समय औसत आबादी घरों में बंद रहती है. कुल जमा एक या दो फीसदी लोग बाहर निकलते हैं या फिर रात की पाली में नौकरी करने वाले लोग काम पर जाते हैं. ऐसे में रात के वक्त सोशल डिस्टेंसिंग अपने आप ही हो जाती है. उस समय तो मास्क लगाने जैसा एहतियात बरतने की भी जरूरत नहीं होती. कहने में हिचक क्यों होनी चाहिए कि रात का कर्फ्यू दिखावे का उपाय है, जो वास्तव में कोरोना की रोकथाम के लिए कारगर नहीं माना जा सकता.
यह तर्क किसके समझ में आएगा कि दिन में भीड़ भरे बाजार खुले रहें, सार्वजनिक आयोजन होते रहें, यातायात सामान्य चलता रहे, छोटे बच्चों के स्कूल और अन्य शिक्षण संस्थाएं पूरी रफ्तार से भागती रहें और सरकारी दफ्तर तथा औद्योगिक प्रतिष्ठान पूरी उपस्थिति से चलते रहें तो कोरोना से सभी सुरक्षित रहेंगे, पर उन्हें सर्वाधिक खतरा सन्नाटे में डूबी सड़कों से है.
आम जनता चुनावी रैलियों पर भी गंभीर ऐतराज कर रही है. पांच प्रदेशों में विधानसभाओं के चुनाव सिर पर हैं. इनमें उत्तर प्रदेश और पंजाब घनी आबादी वाले राज्य हैं. वहां चुनावी रैलियों में लाखों लोग ढोकर लाए जाते हैं. राजनेताओं को और नागरिकों को इन रैलियों में बिना सामाजिक दूरी बनाए और मास्क के बगैर देखा जा सकता है.
उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में चुनौती अपेक्षाकृत कम गंभीर है. लेकिन इन पांचों राज्यों के अंतरराष्ट्रीय सीमा पर होने के कारण संक्रमण के खतरे को अनदेखा नहीं किया जा सकता. दुनिया भर के डॉक्टर और अनुसंधानकर्ता अभी इस पर माथापच्ची कर ही रहे हैं कि यह खतरनाक वायरस चीन की प्रयोगशाला की उपज है अथवा नहीं. ऐसे में उसकी सीमाओं से सटे हिंदुस्तान के करोड़ों निवासी सुरक्षित नहीं माने जा सकते. भारत सरकार और केंद्रीय चुनाव आयोग को यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए.
यदि एकबारगी सीमा पार से आशंकाओं को दरकिनार भी कर दें तो इसे कौन भूल सकता है कि कोरोना की दूसरी भयावह लहर ने देश में कितना कहर बरपाया था. कौन ऐसा था, जिसने अपने किसी न किसी परिचित, मित्र या संबंधी को नहीं खोया हो? इसी दूसरी लहर के बीच लापरवाही भरे दो सार्वजनिक आयोजनों ने इन मौतों का आंकड़ा ज्यादा विकराल बना दिया था.
एक तो उत्तर प्रदेश में कुंभ और दूसरा बंगाल में विधानसभा चुनाव. कुंभ के दरम्यान लाखों लोग मुल्क के तमाम सूबों से आए और कोरोना लेकर अपने गांव-कस्बों में लौट गए थे. इससे कोरोना दिनोंदिन विराट आकार लेता रहा. आपको याद होगा कि पहले एक सप्ताह में ही कुंभ की जांचों में पांच हजार से अधिक श्रद्धालु संक्रमित पाए गए थे और एक सौ से अधिक साधु-संत गंभीर रूप से बीमार हुए.
उनमें से एक महामंडलेश्वर समेत कई महंत अपनी जान खो बैठे थे.
इसी तरह बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान हुआ. तीन चरण तक बड़ी सभाएं होती रहीं. रैलियां और रोड शो नहीं रोके गए. तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी ने आयोग से फौरन रैलियों पर बंदिश लगाने की मांग की थी मगर चुनाव आयोग ने राज्य सरकार के औपचारिक अनुरोध को रद्दी की टोकरी में डाल दिया. अंतत: बाद में पांच सौ लोगों की हाजिरी वाली सभाओं को अनुमति दी गई. लेकिन उस निर्देश को किसी ने नहीं माना.
आखिरकार ममता बनर्जी और कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अपनी ओर से ही रैलियां और कार्यक्रम रोक दिए. विडंबना यह कि आचार संहिता लगते ही राज्य की मशीनरी की कमान चुनाव आयोग के हाथ में आ जाती है और राज्य सरकार चाहती भी तो कुछ नहीं कर सकती थी. इस तरह दो बड़े और सघन आबादी वाले प्रदेशों में चुनाव तथा कुंभ के चलते स्थिति बिगड़ती गई. किसी ने उसके लिए जिम्मेदारी लेने का नैतिक साहस नहीं दिखाया.
चुनाव आयोग को ध्यान रखना चाहिए कि वह रोबोट की तरह व्यवहार नहीं कर सकता. उसकी रिपोर्टिग भारत के मतदाताओं को है, प्रधानमंत्री कार्यालय को नहीं.
ऐसे में चुनाव आयोग क्या करे? समय पर एक निर्वाचित सरकार देना उसकी संवैधानिक बाध्यता है. लेकिन इस बाध्यता के नाम पर वह करोड़ों जिंदगियों के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकता. स्थिति सामान्य होने तक रैलियां, सभाएं और रोड शो रोकना उसके अधिकार में है. यहां तक कि चुनाव टालना भी एक संविधान प्रदत्त उपाय है.
हाल ही में उसने राज्यसभा चुनाव और कुछ उपचुनाव टालने का निर्णय लिया भी था. भारतीय मतदाताओं को याद होगा कि 1992 में विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद अनेक राज्यों में अशांति फैल गई थी. उसके बाद स्थिति सामान्य हो गई तो भी किश्तों में राज्यों में राष्ट्रपति शासन बढ़ाया जाता रहा. अर्थात चुनाव आयोग यदि चाहे तो उसके सामने स्थिति सामान्य बनाने तक चुनाव की तारीखें आगे बढ़ाने का खुला विकल्प है.
ऐसी सूरत में प्रदेश सरकार को भी अपनी सिफारिश भेजनी होगी कि फिलहाल चुनाव कराने के लिए उपयुक्त समय नहीं है.