राजेश बादल का ब्लॉग: आत्मनिरीक्षण के बल पर ही मिलेगा पुनर्जीवन

By राजेश बादल | Published: May 31, 2019 05:11 AM2019-05-31T05:11:25+5:302019-05-31T05:11:25+5:30

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने संपूर्ण चुनाव प्रचार अभियान के दौरान ‘चौकीदार चोर है’ का नारा जमकर बुलंद किया. हो सकता है कि कहीं-कहीं इसे पसंद भी किया गया हो लेकिन इस नारे ने फायदे के बजाय नुकसान अधिक पहुंचाया.

Rajesh Badal Blog: Introspection is the only key to Resuscitation for Congress | राजेश बादल का ब्लॉग: आत्मनिरीक्षण के बल पर ही मिलेगा पुनर्जीवन

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की फाइल फोटो।

कांग्रेस और उसके सहयोगी भले ही सदमे में हों लेकिन उनकी पराजय की वजह कोई अलीगढ़ी ताले में बंद नहीं है. मीडिया का एक निरपेक्ष और निष्पक्ष वर्ग काफी हद तक इन परिणामों से वाकिफ था. यह सच है कि इस विराट एकपक्षीय जीत का अंदाज उसे नहीं था मगर यूपीए और कांग्रेस की नाकामी की जड़ें खोजने के लिए उसे कोई सात समंदर भी पार नहीं करने पड़े.

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने संपूर्ण चुनाव प्रचार अभियान के दौरान ‘चौकीदार चोर है’ का नारा जमकर बुलंद किया. हो सकता है कि कहीं-कहीं इसे पसंद भी किया गया हो लेकिन इस नारे ने फायदे के बजाय नुकसान अधिक पहुंचाया. राजनीतिक अभियानों में निजी और कमर से नीचे के हमले कांग्रेस पार्टी के प्रचार का हिस्सा कभी नहीं रहे. इस तरह के आक्रमण अधिकतर प्रतिपक्ष ने किए हैं और हर बार इनका लाभ कांग्रेस को ही मिला है.

याद कीजिए 1979-80 का आम चुनाव, जब इंदिरा गांधी के खिलाफ निजी, बेहूदा, शर्मनाक और चरित्न हनन के सारे भौंडे तरीके इस्तेमाल किए गए. परिणाम यह कि इंदिरा गांधी की शानदार वापसी हुई. इसके बाद 1990-91 के आम चुनाव में राजीव गांधी के विरुद्ध भाजपा ने  बेहूदा नारा उछाला. इसका नतीजा यह कि कांग्रेस की फिर वापसी हुई. इसके बाद 2004 के चुनाव में सोनिया गांधी के विरोध में भाजपा ने निजी और चारित्रिक हमले किए. उस चुनाव में तो भद्र प्रचार की सारी मर्यादाएं टूट गईं. पर हुआ क्या, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे शिखर राजनेता की सत्ता चली गई.  यूपीए ने सरकार बनाई. ये तीन उदाहरण राहुल गांधी के सामने थे. इसके बाद भी ‘चौकीदार चोर है’ का नारा लगता रहा.

एक कारण राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष चुने जाने के बाद पैदा हुआ.  कांग्रेस कार्यसमिति से अनेक कद्दावर और जनाधार वाले नेताओं को बाहर का दरवाजा दिखाना पार्टी के लिए भारी पड़ गया. जिन राज्यों में कांग्रेस हालिया दौर में कमजोर हुई उन्हीं प्रदेशों के शिखर राजनेताओं को कार्यसमिति से निकाले जाने से वे लोकसभा चुनाव में एक तरह से उदासीन थे.

हिमाचल से वीरभद्र सिंह, कश्मीर से कर्ण सिंह, राजस्थान से सी. पी. जोशी, मोहन प्रकाश, मध्यप्रदेश से दिग्विजय सिंह, कर्नाटक से ऑस्कर फर्नाडिस, बी. के. हरिप्रसाद, महाराष्ट्र से सुशील कुमार शिंदे, पंजाब से आर. के. धवन (उस समय उनका निधन नहीं हुआ था), उत्तरप्रदेश से जनार्दन द्विवेदी और मोहसिना किदवई. जब सिर पर लोकसभा चुनाव हों तो अपने दल के क्षेत्नीय सितारों को बाहर करना कोई दूरदर्शिता नहीं थी. पार्टी के इन तपे तपाए नेताओं की पूंजी उनका अनुभव ही था.

अनेक साल से कांग्रेस का सदस्यता अभियान और जिला इकाइयों की सालभर चलने वाली गतिविधियों पर जैसे रोक लगी हुई है. सालाना सदस्यता शुल्क बहुत अधिक नहीं होता मगर उसके बहाने स्थानीय स्तर पर समाज की सोच का फीडबैक मिलता था. कितने जिलों में जिला कांग्रेस कार्यालय बचे हैं? वहां नियमित गतिविधियों को संगठन किस तरह मॉनिटर करता है - कोई नहीं जानता. सेवादल अब क्या करता है किसी को खबर नहीं. इसके अलावा युवा कांग्रेस तथा भारतीय राष्ट्रीय छात्न संगठन की गतिविधियां जैसे थम सी गईं हैं. समाज के अंतिम छोर पर कांग्रेस के इन उप संगठनों का कहीं अस्तित्व नहीं दिखाई देता.

मीडिया से खिंचाव भरा रिश्ता भी कांग्रेस के लिए अच्छा नहीं रहा. यह सच है कि मीडिया किसी की विजय या पराजय का सबब नहीं बनता लेकिन चुनाव के दिनों में उसकी संवेदनशील भूमिका अवश्य होती है. वह कभी सकारात्मक तो कभी नकारात्मक उत्प्रेरक का काम करता है. एक पार्टी के रूप में कांग्रेस मीडिया का यह अर्थ समझ नहीं सकी. एक तरफ भाजपा अपना खजाना लुटा रही थी तो कांग्रेस पैसे खर्च करने के लिए दस बार सोच रही थी. अनेक राज्यों में  मीडिया के साथ कांग्रेस नेताओं ने दूरी बना रखी थी. मीडिया के साथ बने फासले ने पत्नकारों के एक वर्ग को स्वाभाविक रूप से भाजपा की तरफ मोड़ दिया. सब जानते हैं कि मीडिया के साथ समन्वय कांग्रेस की खासियत रही है. भाजपा की तरह डर और अविश्वास दिखाने का भाव उसमें नहीं होता था. इस बार यह सब नदारद था.  

इस बार पार्टी के चुनाव प्रचार अभियान में मौलिकता नहीं थी.  बौद्धिक चिंतन इस मुहिम से नदारद था. उसके पास हिट होने वाले नारे नहीं थे. इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के जमाने में इस बौद्धिक बिंदु की बेहद सक्रिय उपस्थिति होती थी. यह बिंदु अभद्र प्रचार के उत्तर में आम आदमी के दिलोदिमाग में छा जाने वाले प्रतीक गढ़ता था. इसी तरह जनता को उसके अंदाज में संप्रेषित करने वाले नेता नदारद थे. जंग के मैदान में ऑटोमेटिक राइफल का मुकाबला तलवारों से नहीं किया जा सकता.

अंतिम कारण उम्मीदवारों का चुनाव तथा अंदरूनी कलह की पुरानी बीमारी से पार्टी का नहीं उबर पाना था. नए चेहरों को मैदान में उतारने का जोखिम भी था. इन चेहरों ने अपने को दस जनपथ का प्रवक्ता समझना शुरू कर दिया. उनके पूरे व्यवहार में एक किस्म का सामंत भाव था, जो यह प्रदर्शित करता था कि इस बार उन्हें जिताना मतदाताओं का कर्तव्य है. उनके व्यवहार में बुनियादी शिष्टाचार भी नहीं था. इससे कांग्रेस के निष्ठावान कार्यकर्ता और बुजुर्ग कांग्रेसी आहत थे. वरिष्ठ कांग्रेसी अपनी नई पौध से त्नस्त नजर आए. 

लगातार दो शर्मनाक पराजयों से क्या कांग्रेस सबक लेगी या अपने उसी राजसी आलस को ओढ़े इसका इंतजार करेगी कि कब चक्रवर्ती नरेंद्र मोदी के खिलाफ यह देश बगावत करे और वह सत्तासीन हो.
 

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