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ब्लॉग: अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी और भारत से उसके रिश्तों का क्या है भविष्य?

By राजेश बादल | Updated: August 18, 2021 11:40 IST

बदले हालात में तालिबान पर सबकी नजर है. कह सकते हैं कि 2021 का तालिबान बीस बरस पुराना उग्रवादी संगठन नहीं है. लड़ाकू भूमिका के अलावा उसने कुछ वर्षो से अनेक अवसरों पर कूटनीतिक समझदारी भी दिखाई है.

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एक बार फिर तालिबान उस खूबसूरत पहाड़ी देश में अपने खुरदुरे और बर्बर चेहरे के साथ हुकूमत में लौट आए. क्या किसी ने सोचा था कि अफगान सरकार इतनी आसानी से घुटने टेक देगी? संसार की आधुनिकतम सेना के साए तले बीस बरस तक प्रशिक्षण पाने के बाद भी लड़ाकू पठान कौम इतनी दुर्बल और कमजोर हो गई कि वह अब अपने देश की हिफाजत के लायक नहीं रही तो फिर उस मुल्क को कौन बचा सकता है? 

इस मायने में जो बाइडेन का कहना उचित है कि जब अफगान सेना खुद ही अपने लिए नहीं लड़ना चाहती तो अमेरिका को क्या पड़ी है कि वह अपने को मुसीबत में डाले.

लेकिन परिस्थितिजन्य साक्ष्य एक दूसरा सवाल यह खड़ा करते हैं कि कहीं यह अमेरिका से तालिबान के गोपनीय समझौते की पूर्व लिखित पटकथा का हिस्सा तो नहीं है? इधर तालिबान घुसे, उधर सरकार ने अपने आपको चुपचाप देश निकाला दे दिया. करीब-करीब सारे प्रदेशों में सरकार के गवर्नर सुरक्षित ठिकानों पर चले गए और फौज के साथ तालिबान के घमासान की एक भी खबर नहीं मिली. 

इस प्रकार बिना लड़े ही समर्पण करने का यह ऐसा कलंकित अध्याय है, जिसके लिए पठानों को माफ नहीं किया जा सकता. अमेरिका को तो वहां से देर-सबेर निकलना ही था. लेकिन जिस ढंग से जो बाइडेन ने जल्दबाजी की, उससे अमेरिका की नैतिक, कूटनीतिक और रणनीतिक पराजय ही हुई है.  

हिंदुस्तान के लिए भी यह बड़ा झटका दिखाई देता है. जब तालिबानी प्रवक्ता चेतावनी भरा संदेश देते हैं कि हिंदुस्तान उनके मुल्क में फौजी दखल नहीं दे तो उनकी समझ पर भी संदेह होता है. अव्वल तो भारत वहां सैनिक हस्तक्षेप करने की स्थिति में कभी भी नहीं था और न ही उसकी विदेश नीति में यह शुमार रहा है. 

मालदीव में जिस तरीके से भारत ने सेना भेजकर तख्तापलट नाकाम किया था, वह अब गुजरे जमाने की दास्तान है और मालदीव अफगानिस्तान नहीं है. इसके बाद श्रीलंका में सेना भेजने के निर्णय पर आज भी भारत को कोई गर्व का अनुभव नहीं हो रहा है. इसलिए अफगानिस्तान की ओखली में बेवजह अपना सिर क्यों देना चाहेगा. 

पहले सोवियत सेनाओं ने काबुल को बूटों तले रौंदा, फिर अमेरिका और उसके सहयोगियों ने. मगर इतिहासकार उन्हें विजेता का प्रमाणपत्न देने के लिए तैयार नहीं हैं. सेना भेजकर लंबे समय के लिए भारत अपने को वहां उलझाता ही क्यों? सवाल यह है कि बदले हुए हालात हिंदुस्तान के लिए कौन सा चेतावनी भरा संदेश लेकर आए हैं?

भारत की भूमिका अफगानिस्तान को मलबे के ढेर से एक मुल्क में बदलने की श्रमसाध्य कहानी है. अफसोस कि अफगानियों ने हिंदुस्तान की अब तक की सारी मेहनत पर पानी फेर दिया. अब हिंदुस्तान अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहा है. हिंदुस्तान अब नए सिरे से अफगानिस्तान में खुद को खोजने का प्रयास शुरू करेगा. अभी वहां परदेसी फौज के रहने से भारत के लिए एक राहत भरी स्थिति थी. 

वह इस देश के पुनर्निर्माण में सशक्त योगदान से अपने स्थायी सिरदर्द पाकिस्तान को हमेशा परेशान करता रहा है. इसी वजह से अफगानिस्तान सरकार भी नाटो सेनाओं और भारतीय सहयोग से पाकिस्तान के खिलाफ आक्रामक तेवर अपनाती रही है. बदले हालात में तालिबान पर सबकी नजर है. 

कह सकते हैं कि 2021 का तालिबान बीस बरस पुराना उग्रवादी संगठन नहीं है. लड़ाकू भूमिका के अलावा उसने कुछ वर्षो से अनेक अवसरों पर कूटनीतिक समझदारी भी दिखाई है. फिलवक्त वह भारत और पाकिस्तान से कुछ दूरी बनाकर चल रहा है. उसके कुछ उपधड़ों को निश्चित रूप से पाकिस्तान का संरक्षण और मदद मिलती रही है. लेकिन अब उसने भारत की रचनात्मक भूमिका को सराहा है और आने वाले दिनों में भारत ही इकलौता पड़ोसी है जो अगर सहयोग करता है तो उस देश का भला हो सकता है. 

पाकिस्तान की अंदरूनी खस्ता हालत के मद्देनजर वह ख़ुद को बहुत सुविधाजनक स्थिति में नहीं पा रहा होगा.

तो भारत के लिए सबसे पहले जरूरी क्या है? नहीं भूल सकते कि जब पाकिस्तान में जनरल परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ की सरकार को हटाकर फौजी तानाशाही शासन स्थापित किया था तो भारत ने संबंध नहीं रखने का ऐलान किया था. बाद में उन्हीं मुशर्रफ को अटलबिहारी वाजपेयी ने आगरा न्यौता दिया था. 

म्यांमार में आंग सान सू ची की सरकार बनने से पहले फौजी शासन ही था और हमारे संबंध मधुर थे. भूटान की राजशाही भी हमें पसंद है और बांग्लादेश में शेख मुजीब की हत्या के बाद जनरल जियाउर्रहमान की सैनिक सरकार से भारत ने संबंध बनाकर रखे. इराक में तानाशाह सद्दाम हुसैन से भी हिंदुस्तान के बेहतर रिश्ते रहे क्योंकि कश्मीर पर सद्दाम हमेशा भारत के साथ रहा. 

इन प्रसंगों का जिक्र  इसलिए कि आज के दौर में जो आपके साथ है, आपको उसका साथ निभाना चाहिए. बाकी शासन प्रणालियों के आधार पर किसी देश से संबंध तोड़ लेने को समझदारी नहीं कहा जा सकता. 

अगर तालिबान अपने शासन चिंतन पर पुनर्विचार करते हैं तो नए सिरे से रिश्तों की रचना करने में कोई झिझक नहीं होनी चाहिए. पाकिस्तान-चीन से संबंधों में तनाव को देखते हुए नई हुकूमत के साथ भारत को होना चाहिए. यह बात हमारे हुक्मरानों को ध्यान में रखनी होगी.

टॅग्स :तालिबानअफगानिस्तानपाकिस्तान
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