राजेश बादल का ब्लॉग: विधानसभा चुनावों में होगा विपक्ष का लिटमस टेस्ट
By राजेश बादल | Updated: August 4, 2021 12:04 IST2021-08-04T12:02:15+5:302021-08-04T12:04:29+5:30
बंगाल चुनाव जीतने के बाद ममता बनर्जी की सक्रियता ने उन्हें संयुक्त गठबंधन की धुरी बना दिया है. ममता यकीनन इसका लाभ लेना चाहेंगी.

भाजपा के खिलाफ विपक्ष का लिटमस टेस्ट (फाइल फोटो)
लोकसभा चुनाव अभी दूर हैं. लेकिन भारतीय प्रतिपक्ष अभी से मोर्चा संभालने की मुद्रा में है. विपक्षी पार्टियां वोटों का बिखराव रोकने के लिए संयुक्त गठबंधन या मंच के बारे में मशक्कत कर रही हैं. आम तौर पर ऐसे गठबंधन को अब तक तीसरा मोर्चा कहा जाता रहा है.
वजह यह है कि इन मोर्चो को गैर कांग्रेसी या गैर भाजपाई शक्ल देने का प्रयास होता रहा है. इस बार इसे तकनीकी तौर पर तीसरा मोर्चा नहीं कहा जा सकता. कारण यह है कि प्रतिपक्षी गठबंधन में खुद कांग्रेस भी पक्षकार है. यानी ले देकर जो भी मोर्चा या संयुक्त गठबंधन बनेगा, वह भारतीय जनता पार्टी के विरोध में ही होगा. जैसा आपातकाल के बाद कांग्रेस के विरोध में जनता पार्टी ने आकार लिया था.
मौजूदा गतिविधियों और जानकारियों पर भरोसा करें तो आगामी पांच प्रदेशों के विधानसभा चुनाव इस मोर्चे का लिटमस टेस्ट हो सकते हैं. लोकतांत्रिक सेहत के मद्देनजर प्रतिपक्षी दलों की यह सक्रियता संभावना जगाती है. अगर सरकार में बैठा दल इतना शक्तिशाली हो जाए कि विरोधी पार्टियां बौनी लगने लगें तो यह शुभ संकेत नहीं है.
उनका आकार कम से कम इतना बड़ा तो होना चाहिए कि सत्ताधारी दल भय खाता रहे. ऐसी स्थिति में ही कोई निर्वाचित सरकार बेहतर परिणाम दे सकती है. वह दौर चला गया, जब कांग्रेस अकेले दम पर लोकसभा की तीन-साढ़े तीन सौ सीटें लेकर आती थी और प्रतिपक्ष छोटे-छोटे खंडों में बंटा रहता था.
हालांकि उस काल में अनेक विपक्षी नेता इतने कद्दावर और विराट होते थे कि पार्टी के कम सदस्य होते हुए भी अपनी हाजिरी से हुकूमत हिला देते थे. जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर, मधु दंडवते और इंद्रजीत गुप्त इसी श्रेणी के कुछ नाम हैं.
बहरहाल विपक्षी एकता पर लौटते हैं. बंगाल चुनाव जीतने के बाद ममता बनर्जी की सक्रियता ने उन्हें संयुक्त गठबंधन की धुरी बना दिया है. विधानसभा चुनाव में उन्हें बेहद कठिन और शर्मनाक प्रचार का मुकाबला करना पड़ा था. इस नाते कमोबेश समूचे प्रतिपक्ष में उनके लिए आदर भाव बढ़ा है. ममता यकीनन इसका लाभ लेना चाहेंगी. पर उन्हें याद होगा कि तीन दशकों में तीसरे मोर्चे या गठबंधन के जितने प्रयोग हुए, वे सभी नाकाम रहे हैं.
सियासत के इस कालखंड में देखा गया कि कांग्रेस का वोट बैंक बिखरता रहा. उसके बिखरे वोट बैंक के सहारे छोटे-छोटे दल अंकुरित होते रहे. चूंकि उन्होंने कांग्रेस का जनाधार अपने खाते में ट्रांसफर किया था इसलिए वे कांग्रेस के साथ मंच साझा करने से बचते रहे. इससे उनका अपना आकार सिकुड़ता रहा और कांग्रेस भी दुर्बल-निर्बल होती रही.
भाजपा ने इसका लाभ उठाया. नेतृत्व परिवर्तन के साथ उसकी आक्रामकता भी बढ़ी. यह सारे प्रादेशिक दलों के लिए खतरा बन गई. लिहाजा अस्तित्व की रक्षा के लिए ममता बनर्जी के छाते तले आना उनकी मजबूरी है. यहां तक कि जो कांग्रेस कुछ महीने पहले एकला चलो रे की नीति का पालन कर रही थी, वह भी अब लचीली नजर आ रही है.
कांग्रेस इस गठबंधन में आती है तो खोई प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए उसके लिए यह एक संभावना है. वैसे विपक्षी पार्टियों को अहसास हो चला है कि कांग्रेस के बिना विपक्षी एकता कपूर की तरह उड़ जाएगी. इस तरह दोनों के लिए एकता एक विवशता भी है.
पहले कांग्रेस के नजरिये से अनिवार्यता और मजबूरी समझते हैं. पार्टी इन दिनों नेतृत्व के मसले पर भ्रम का सामना कर रही है. राहुल गांधी के अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद से ही अध्यक्ष को लेकर ऊहापोह में है. कांग्रेस को अब समझना होगा कि उसके आंतरिक द्वंद्व का खामियाजा पूरी पार्टी को भुगतना पड़ेगा.
हताश और कुंठित कार्यकर्ता-नेता मजबूरी में दूसरी पार्टियों का शिकार होते रहेंगे और दिनोंदिन वह कमजोर होती जाएगी. उसके मजबूत किले ढहते जा रहे हैं. जब तक पार्टी का कोई शिखर पुरुष स्थानीय स्तर पर निर्जीव पड़ी प्रादेशिक और जिला इकाइयों में वैचारिक जान नहीं फूंकेगा, तब तक उसका वोट बैंक बिखरता ही रहेगा.
यह भी सच है कि पार्टी को प्राणवायु गांधी-नेहरू परिवार का नेतृत्व ही दे सकता है. सीताराम केसरी जैसे राजनेता लोगों को जोड़ने का काम तो कर सकते थे, मगर दल को दिशा देने का काम तो इस परिवार को ही करना होगा. तर्क यह भी है कि गांधी-नेहरू परिवार को ध्यान रखना होगा कि अगर वे लोकतांत्रिक सियासत में हैं तो आधे अधूरे मन से नहीं रह सकते. उन्हें पूरी ऊर्जा और क्षमता का प्रदर्शन करना होगा, जैसा उनके पुरखे करते रहे हैं. अन्यथा यह लोकतंत्र उन्हें माफ नहीं करेगा क्योंकि पक्ष के साथ प्रतिपक्ष भी उसकी आत्मा है.
इस दृष्टि से सियासत के इस संक्रमण काल में कांग्रेस को एक संभावना में तब्दील करने का काम पार्टी नियंताओं को करना ही पड़ेगा.
प्रतिपक्ष में बैठे ज्यादातर दल मान चुके हैं कि मोर्चे की टीम लीडर के रूप में कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी से बेहतर है. अब अटल बिहारी वाजपेयी जैसा सर्वस्वीकार्य नेता भी दल में नहीं रहा. शिवसेना, अकाली दल और तेलुगु देशम जैसे पुराने और भरोसेमंद दलों के साथ छोड़ने का कारण छिपा नहीं है.
दूसरी ओर कांग्रेस को ध्यान रखना होगा कि अब वैचारिक ध्रुवीकरण पर कोई धुंध नहीं है. जो विपक्ष उसके साथ आने को तैयार दिखाई दे रहा है, वह अपने-अपने प्रादेशिक किलों की रक्षा करना चाहता है. उसे एक राष्ट्रीय छत चाहिए, जिसके तले वह सुरक्षित रह सके. कांग्रेस अपने राष्ट्रीय जनाधार को इन क्षेत्रीय पार्टियों की सहायता से बढ़ा सकती है.