ब्लॉग: इंस्टेंट रेसिपी के जमाने में धैर्य रखने का सवाल
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: June 6, 2024 09:48 IST2024-06-06T09:46:09+5:302024-06-06T09:48:43+5:30
ताजा चुनाव परिणाम वास्तव में विशेषज्ञों को भी चौंकाने वाला है, क्योंकि उन्हें लगता था कि मतदाता के पास बदलाव के लिए कोई वास्तविक विकल्प ही नहीं है और चुनावों के दौरान कम मतदान को भी इसी से जोड़कर देखा जा रहा था।

फाइल फोटो
हेमधर शर्मा: था कोई जमाना, जब नेता समाज के मार्गदर्शक हुआ करते थे, जनता उन्हें अपना आदर्श मानती थी। लेकिन गिरते-गिरते नेता इतना गिर गए कि पथभ्रष्टक बन गए और नेता होना गाली जैसा समझा जाने लगा। ऐसे समय में, जब लगने लगा था कि देश की सभ्यता-शिष्टता को नेता ले डूबेंगे, चुनाव परिणामों से सामने आए जनादेश ने दिखा दिया है कि जनता अब मालिक की भूमिका निभाना सीख गई है और नेताओं को अगर जनता की सेवा करनी है तो नाम का नहीं बल्कि सचमुच का ही सेवक बनना होगा।
ताजा चुनाव परिणाम वास्तव में विशेषज्ञों को भी चौंकाने वाला है, क्योंकि उन्हें लगता था कि मतदाता के पास बदलाव के लिए कोई वास्तविक विकल्प ही नहीं है और चुनावों के दौरान कम मतदान को भी इसी से जोड़कर देखा जा रहा था। लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान नेताओं की अभद्र भाषा सारी सीमा लांघ गई थी, इसलिए उन्हें सबक सिखाना भी जरूरी था। सच कहा जाए तो मतदाताओं ने नेताओं को जिस नायाब तरीके से सबक सिखाया है, उससे बड़े-बड़े धुरंधर भी दंग रह गए हैं और भविष्य में शालीनता की सीमा लांघने के पहले अब नेताओं को एक-दो बार नहीं, शायद दस बार सोचना पड़ेगा!
सोचना तो नेताओं को यह भी पड़ेगा कि चुनाव जीतने या सत्ता पाने के लालच में वे जिस तरह से विचारधारा को तिलांजलि देते जा रहे हैं और जो भी मुंह उठाए चला आता है उसे अपने दल में शामिल कर लेते हैं, उससे उनकी पार्टी को तात्कालिक फायदा भले मिल जाए, लेकिन क्या दीर्घकालिक लाभ भी होता है?
दरअसल नेता जितनी जल्दी अपनी विचारधारा बदल लेने में माहिर होते हैं, कार्यकर्ता उतनी जल्दी बिना पेंदी का लोटा बन नहीं पाते। यही कारण है कि पिछले चुनावों के दौरान जिसका उन्होंने विरोध किया था, अगली बार जब उसी के समर्थन में प्रचार करने को कहा जाता है तो वे इसे पचा नहीं पाते। नेता अगर जमीन से जुड़ा हुआ हो तो कार्यकर्ताओं के मन की बात समझ जाता है, लेकिन ऊपर से थोपा हुआ हो तो फिर मुंह की खानी ही पड़ती है।
मुंह की तो तब भी खानी पड़ती है जब अवसरवादी नेताओं को राजनीतिक स्वार्थ के लिए पार्टी में शामिल कर लिया जाता है और उनके जीतने के बाद जब सरकार बनाने का मौका मिलता है तो उन्हें साध कर रख पाना कठिन हो जाता है। एक को काबू में रखो तो दूसरा टर्राकर बाहर उछलने लगता है। अवसरवादियों का तुष्टिकरण करते-करते ही कार्यकाल बीत जाता है। इसलिए अवसरवादियों के बल पर तात्कालिक स्वार्थ साधने के बजाय क्या यह बेहतर नहीं होगा कि वफादारों के साथ रहकर दीर्घकालिक फायदे पर नजर रखी जाए? पर दो मिनट में तैयार होने वाली इंस्टेंट रेसिपी के जमाने में इतना धैर्य किसके पास है!