पुणे दीनानाथ मंगेशकर अस्पतालः कभी अपने गिरेबान में भी तो झांक कर देखें!
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: April 12, 2025 05:14 IST2025-04-12T05:14:00+5:302025-04-12T05:14:00+5:30
Pune Deenanath Mangeshkar Hospital: सरकारी अस्पतालों की बुरी अवस्था से ही गरीब-अमीर हर मरीज का निजी अस्पतालों में शरण लेना मजबूरी बना

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Pune Deenanath Mangeshkar Hospital: पुणे के दीनानाथ मंगेशकर अस्पताल पर लगे आरोपों के बहाने महाराष्ट्र में पक्ष और विपक्ष दोनों के नेताओं को अपनी भड़ास निकालने का बहाना मिल गया है. सत्ता पक्ष जहां अपनी समस्त व्यवस्थाओं के माध्यम से जांच-पड़ताल में लगा है, वहीं प्रतिपक्ष को मंगेशकर परिवार से बदला लेने से लेकर अपने पुराने हिसाब चुकता करने का अवसर मिल गया है. हालांकि कोविड महामारी के दौरान राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल पहले ही खुल चुकी है और जिसकी जिम्मेदारी भी सभी को मालूम है.
फिर भी निजी स्वास्थ्य व्यवस्था सबके निशाने पर है. बावजूद इसके कि जुलाई 2020 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन(नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन) की रिपोर्ट में राज्य में 73.7 प्रतिशत लोगों का इलाज निजी अस्पतालों में होने की बात कही गई थी. इस आंकड़े में महिलाओं की प्रसूति शामिल नहीं थी.
यह जानते हुए भी राज्य सरकार बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए आवंटन चार से पांच प्रतिशत के बीच रखती है, जबकि नीति आयोग और राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति- 2017 के अनुसार कुल बजट का आठ प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च किया जाना चाहिए. और तो और शायद ही राज्य का कोई एक ऐसा नेता हो, जिसने निजी क्षेत्र को छोड़ सरकारी अस्पताल में अपना इलाज कराया हो.
बीते माह राज्य ने वर्ष 2025-26 के लिए स्वास्थ्य पर अपने व्यय में से 4.5 प्रतिशत राशि आवंटित की, जो वर्ष 2024-25 में राज्यों की ओर से स्वास्थ्य के लिए औसत आवंटित राशि 6.2 प्रतिशत से कम थी. वर्ष 2023-24 में भी राज्य ने स्वास्थ्य के लिए कुल बजट का 4.6 प्रतिशत ही आवंटित किया था. इस वर्ष के बजट में स्वास्थ्य विभाग के लिए 11,728 करोड़ रुपए की मांग की गई थी.
किंतु 3,827 करोड़ रुपए स्वीकृत किए गए, जो वर्ष 2024-25 के बजट से केवल 115 करोड़ रुपए अधिक थे. कहने के लिए सरकार ने नए अस्पतालों और चिकित्सा सुविधाओं की उपलब्धता बढ़ाने का निर्णय लिया है. मगर राज्य में 35 सरकारी चिकित्सा महाविद्यालय तैयार करने के लिए बजट में सिर्फ 2,517 करोड़ रुपए का प्रावधान किया है.
दूसरी ओर बजट में की गईं सरकार की घोषणाओं को देखा जाए तो ठाणे में 200 बिस्तरों का अस्पताल, रत्नागिरी जिले में 100 बिस्तरों का अस्पताल और रायगढ़ जिले में 200 बिस्तरों वाला सुपर स्पेशलिटी अस्पताल, छत्रपति संभाजीनगर में सुपर स्पेशलिटी अस्पताल सामने हैं. प्रत्येक व्यक्ति को अपने घर के पांच किलोमीटर के दायरे में गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करना सरकार का इरादा है.
आयुष्मान भारत और प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना से लेकर महात्मा फुले जन आरोग्य योजना को और बेहतर बनाने की तैयारी है. इतने सपने दिखाने के बावजूद क्या निजी चिकित्सा क्षेत्र से आम आदमी की दूरी बन पाएगी और सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था पर विश्वास बन पाएगा तो शायद नहीं. इस बात को सच साबित वे सभी सरकारी स्वास्थ्य योजनाएं भी करती हैं, जिनसे निजी क्षेत्र में भी इलाज कराया जा सकता है.
वह व्यवस्था सरकार ने ही बनाई है. राज्य में निजी चिकित्सा क्षेत्र के विस्तार का सबसे बड़ा कारण गुणवत्ता और विश्वास है, जिसके लिए दूसरे राज्यों से भी मरीज आते हैं. सरकारी क्षेत्र में इन दोनों बातों का अब तक नहीं होना आश्चर्यजनक है. देश का समृद्ध और विकसित माने जाने वाले राज्य ने लंबे समय से अपने स्वास्थ्य तंत्र को निजी क्षेत्र के मुकाबले तैयार क्यों नहीं किया.
इस सवाल का जवाब हर सत्ता को संभालने वाले राजनीतिक दल को देना चाहिए. मरीज का गांव से शहर आना और शहर से बड़े शहर जाने का तयशुदा रास्ता है. एम्बुलेंस से लेकर अस्पताल और डॉक्टर भी पहले से निर्धारित होता है. इस व्यवस्था के अनुसार चलना मरीज की मजबूरी होती है. यह सब सरकारी तंत्र की नाक के नीचे होता है.
फिर भी उसे रोकने के लिए कोई कदम उठाए नहीं जाते हैं. आधे से ज्यादा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में इलाज के लिए चिकित्सक नहीं हैं. अनेक स्थानों पर कर्मचारियों का अता-पता नहीं होता है. इस स्थिति में जीवन की सुरक्षा के लिए निजी क्षेत्र के अलावा कोई दूसरा सहारा रह भी नहीं जाता है. यदि उनमें कोई गड़बड़ी होती है तो पूरा तंत्र टूट पड़ता है.
हर तरह से समीक्षा की जाने लगती है, लेकिन यह कभी सोचा या देखा नहीं जाता है कि मरीजों को निजी क्षेत्र में चिकित्सा कराने की आवश्यकता क्यों होती है? यह बात भी छिपी नहीं है कि राज्य के लगभग सभी सरकारी अस्पताल अपनी क्षमता के कई गुना अधिक मरीजों का इलाज कर रहे हैं. मगर उनके मूलभूत आकार-प्रकार में परिवर्तन से लेकर सुविधाओं को बढ़ाने पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है.
वहां काम करने वाले अधिकारी-कर्मचारी बजट का रोना रोते हैं, जो एक असलियत के रूप में आम बजट में दिखती भी है. यह सही है कि अनेक निजी अस्पतालों को सरकार जमीन से लेकर पानी-बिजली भी सस्ती दरों पर देती है. इसलिए उन्हें सरकारी सहायता को ध्यान में रखकर मरीजों के साथ व्यवहार करना चाहिए. किंतु चिकित्सा एक मानवीय सेवा से जुड़ा पेशा है.
जिसका आधार ही मानवता है, लेकिन उसमें पैसा कब महत्वपूर्ण हो जाता है, इस बात पर गौर करने की आवश्यकता है. किसी निजी संस्था-संस्थान-संगठन को चलाने के लिए आर्थिक आधार आवश्यक होता है, जिसकी वह गारंटी से चलता है. सरकार अपनी योजनाओं का पैसा महीनों देरी से देती है. फिर भी संस्थाएं चलती हैं. इन्हें चलने और चलते रहने के रास्तों को तब तक बने रहने देना चाहिए.
जब तक सरकार उनसे मुकाबले के लिए अपनी व्यवस्था को मजबूत नहीं कर लेती है. निजी अस्पतालों में जाना जहां मरीजों की मजबूरी है, वहीं आकर्षण बनाए रखने के लिए चिकित्सा के साथ बेहतर सुख-सुविधाएं देना उनके लिए जरूरी है. इसलिए केवल कोस कर और लोगों को भड़का कर व्यवस्था बिगाड़ी जा सकती है, किंतु समाधान के लिए स्तर को सुधारना होगा. कभी तो अपने गिरेबान में झांक कर देखना होगा.