पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: दिल्ली की सड़क पर डगमगाते लोकतंत्न की आहट
By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: December 1, 2018 08:00 AM2018-12-01T08:00:28+5:302018-12-01T08:00:28+5:30
दरअसल ये चुनावी गणित के सवाल हैं, देश को पटरी पर लाने का रास्ता नहीं है. किसानों का कुल कर्ज बारह लाख करोड़ अगर कोई सरकार सत्ता संभालने के लिए या सत्ता में बरकरार रहने के लिए माफ कर भी देतीे है तो क्या वाकई देश पटरी पर लौट आएगा और किसानों की हालत ठीक हो जाएगीे.
कोई नंगे बदन. कोई गले में कंकाल लटकाए हुए तो कोई पेट पर पट्टीे बांधे हुए. कोई खुदकुशी कर चुके पिता की तस्वीर को लटकाए हुए. अलग-अलग रंग के कपड़े, अलग-अलग झंडे-बैनर और दिल्ली की कोलतार व पत्थर की सड़कों को नापते हजारों हजार पांव के समानांतर लाखों रुपए की दौड़ती भागतीे गाड़ियां, जिनकी रफ्तार पर कोई लगाम न लगा दे इसके लिए सैकड़ों की तादाद में पुलिसकर्मियों की मौजूदगी. ये नजारा भी है और देश का सच भी है कि आखिर दिल्ली किसकी है. फिर भी दिल्ली की सड़कों को ही किसान ऐसे वक्त नापने क्यों आ पहुंचा जब दिल्ली की नजरें उन पांच राज्यों के चुनाव पर हैं जिसका जनादेश 2019 की सियासत को पलटाने के संकेत भी दे सकता है और कोई विकल्प है नहीं तो खामोशी से मौजूदा सत्ता को ही अपनाए रह सकता है.
वाकई सियासी गलियारों की सांसें गर्म हैं. धड़कनें बढ़ी हुई हैं क्योंकि जीत-हार उसी ग्रामीण वोटर को तय करना है जिसकी पहचान किसान या मजदूर के तौर पर है. भाजपा नहीं तो कांग्रेस या फिर मोदी नहीं तो राहुल गांधी. गजब कीे सियासी बिसात देश के सामने आ खड़ी हुई है जिसमें पहली बार देश में जनता का दबाव ही आर्थिक नीतियों में बदलाव के संकेत दे रहा है और सत्ता पाने के लिए आर्थिक सुधार की लकीर छोड़ कर कांग्रेस को भी ग्रामीण भारत की जरूरतों को अपने मैनिफेस्टो में जगह देने की ही नहीं बल्किउसे लागू करवाने के उपाय खोजने की जरूरत आ पड़ी है. क्योंकि इस सच को तो हर कोई अब समझने लगा है कि तात्कालिक राहत देने के लिए चाहे किसान की कर्जमाफी और समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी की बात की जा सकती है और सत्ता मिलने पर इसे लागू कराने की दिशा में बढ़ा भी जा सकता है. लेकिन इसके असर की उम्र भी बरस भर बाद ही खत्म हो जाएगी. यानी सवाल सिर्फ यह नहीं है कि स्वामीनाथन रिपोर्ट के मद्देनजर किसानों के हक के सवाल समाधान देखें. या फिर जिस तर्ज पर कॉर्पोरेट की जो रकम सरकारी बैंकों के जरिए माफ की जा रही है उसका तो एक अंश भर ही किसानों का कर्ज है तो उसे माफ क्यों नहीं किया जा सकता.
दरअसल ये चुनावी गणित के सवाल हैं, देश को पटरी पर लाने का रास्ता नहीं है. किसानों का कुल कर्ज बारह लाख करोड़ अगर कोई सरकार सत्ता संभालने के लिए या सत्ता में बरकरार रहने के लिए माफ कर भी देतीे है तो क्या वाकई देश पटरी पर लौट आएगा और किसानों की हालत ठीक हो जाएगीे.
कांग्रेस ने अपनी सत्ता के वक्त संस्थानों को ढहाया नहीं बल्किआर्थिक सुधार के नजरिये को उसी अनुरूप अपनाया जैसा विश्व बैंक या आईएमएफ की नीतियां चाहती रहीं. लेकिन भाजपा सरकार ने संस्थानों को ढहा कर कॉर्पोरेट के हाथों देश को कुछ इस तरह सौंपने की सोच पैदा की जिसमें उसकी अंगुलियों से बंधे धागों पर हर कोई नाचता हुआ दिखाई दे. यानी आर्थिक सुधार की उस पराकाष्ठा को भाजपा सरकार ने छूने का प्रयास किया जिसमें चुनी हुई सत्ता के दिमाग में जो भी सुधार की सोच हो वह उसे राजनीतिक तौर पर लागू करवाने से न हिचके और शायद नोटबंदी फिर जीएसटी उस सोच के तहत लिया गया एक निर्णय भर है. लेकिन यह निर्णय कितना खतरनाक है इसके लिए भाजपा सरकार के ही आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रrाण्यम की नई किताब ‘ऑफ काउंसिल : द चैलेंजेस ऑफ द मोदी-जेटली इकोनॉमी’ से ही पता चल जाता है जिसमें बतौर आर्थिक सलाहकार सुब्रrाण्यम यह कहने से नहीं चूकते कि जब मोदी नोटबंदी का ऐलान करते हैं तो नॉर्थ ब्लॉक के कमरे में बैठे हुए वह सोचते हैं कि इससे ज्यादा खतरनाक कोई निर्णय हो नहीं सकता. यानी देश को ही संकट में डालने की ऐसी सोच जिसके पीछे राजनीतिक लाभ की व्यापक सोच हो. यानी संकेत अब कांग्रेस को भी है कि 1991 में अपनाए गए आर्थिक सुधार की उम्र न सिर्फ सामाजिक आर्थिक तौर पर बल्कि राजनीतिक तौर पर भी पूरी हो चली है. क्योंकि दिल्ली में किसानों का जमघट पूरे देश से सिर्फ इसलिए जमा नहीं हुआ है कि वह अपनी ताकत का एहसास सत्ता को करा सके, बल्कि चार मैसेज एक साथ उपजे हैं- पहला, किसान एकजुट है. दूसरा, किसानों के साथ मध्यम वर्ग भी जुड़ रहा है. तीसरा, किसानों की मांग रुपयों की राहत में नहीं बल्किइन्फ्रास्ट्रक्चर को मजबूत बनाने पर जा टिकी है. चौथा, किसानों के हक में सभी विपक्षी राजनीतिक दल हैं तो संसद के भीतर साफ लकीर खिंच रही है, किसानों पर भाजपा सरकार अलग-थलग है.
कह सकते हैं कि 2019 से पहले किसानों के मुद्दों को केंद्र में लाने का यह प्रयास भी है. लेकिन इस प्रयास का असर यह भी है कि अब जो भी सत्ता में आएगा उसे कॉर्पोरेट के हाथों को पकड़ना छोड़ना होगा. यानी अब इकोनॉमिक मॉडल इसकी इजाजत नहीं देता है कि कॉर्पोरेट के मुनाफे से मिलने वाली रकम से राजनीतिक सत्ता किसान या गरीबों को राहत देने या कल्याण योजनाओं का ऐलान भर करे बल्कि ग्रामीण भारत की इकोनॉमी को राष्ट्रीय नीति के तौर पर कैसे लागू करना है अब परीक्षा इसकी शुरू हो चुकी है.