लोकसभा, विधानसभा के बाद स्थानीय निकाय चुनावों के बीच नेताओं की आवाजाही?, राजनीति की नई शक्ल बनता दलबदल
By Amitabh Shrivastava | Updated: December 20, 2025 05:38 IST2025-12-20T05:38:32+5:302025-12-20T05:38:32+5:30
यदि कांग्रेस से भाजपा में गईं पूर्व विधान परिषद सदस्य प्रज्ञा सातव को दलबदल करने वाली आखिरी नेता मान लिया जाए तो यह वर्तमान राजनीति की तौहीन होगी.

सांकेतिक फोटो
लोकसभा, विधानसभा के बाद स्थानीय निकाय चुनावों के बीच नेताओं की आवाजाही का क्रम जारी है. यह किसी एक दल या फिर क्षेत्र विशेष तक सीमित नहीं है. मुंबई से लेकर नागपुर तक और भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) से शिवसेना तक सभी दलों में आने-जाने का क्रम जारी है. इसे ताजा चुनावों को लेकर नेताओं की महत्वाकांक्षा से जोड़ा जाए तो वैसा भी दिखाई नहीं देता, क्योंकि विधान परिषद सदस्य और पूर्व विधायक भी दल छोड़ने में लगे हुए हैं. इस हृदय परिवर्तन पर सभी आने-जाने वालों के पास एक ही जवाब है कि उन्हें अपने क्षेत्र का विकास करना है और जिसके लिए नया दल तथा उसका नेतृत्व उपयुक्त है.
यदि कांग्रेस से भाजपा में गईं पूर्व विधान परिषद सदस्य प्रज्ञा सातव को दलबदल करने वाली आखिरी नेता मान लिया जाए तो यह वर्तमान राजनीति की तौहीन होगी. इसे किसी नेता या दल की मजबूरी माना जाए तो यह संकुचित सोच से अधिक नहीं कही जाएगी. पिछले कुछ सालों में आम आदमी के लिए दलबदल एक सामान्य घटना हो चली है और नेताओं के लिए अनुकूल परिस्थिति अनुसार स्थान बनाना एक सियासी फार्मूला बन चुका है. सिद्धांत और विचारधारा से संबंध अब दूर से ही रह गया है. निष्ठा को अधिक महत्व नहीं है, जिसे उदाहरण के साथ समझा जा सकता है.
मराठवाड़ा के हिंगोली की प्रज्ञा सातव के परिवार में पति स्वर्गीय राजीव सातव और सास स्वर्गीय रजनी सातव की आजीवन कांग्रेस में अटूट निष्ठा थी. दोनों को ही पार्टी ने अनेक महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दीं. राजीव सातव जब पहली बार लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए, तब देश के आम चुनावों में मोदी लहर थी. मगर उन्होंने अपनी जीत के साथ पार्टी के प्रति निष्ठा को बनाए रखा.
पांच साल के कार्यकाल में उन्हें एक बार भी विकास के नाम पर पार्टी छोड़ने का ख्याल नहीं आया. वह गुजरात विधानसभा चुनाव के प्रभारी बने. पार्टी ने अनेक वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार कर उन्हें राज्यसभा में भेजा. केंद्र, राज्य में सरकार न होने, पार्टी की विधानमंडल से लेकर संसद में सीटें घटने के बावजूद उन्हें निजी या राजनीतिक स्तर पर कमजोरी का अहसास नहीं हुआ.
यह एक उदाहरण स्पष्ट करता है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि यदि सक्रिय है और गंभीरता के साथ सही स्थान पर आवश्यकता अथवा समस्या को उठाता है तो उसे सरकार की ओर से समाधान मिलता है. मुंबई में शिवसेना उद्धव ठाकरे गुट से भाजपा में शामिल हुईं तेजस्वी घोषालकर के ससुर विनोद घोषालकर को निष्ठावान शिवसैनिक माना जाता है.
उन्हें पार्टी के बड़े विभाजन के बाद भी कभी कोई कमी और कमजोरी दिखाई नहीं दी. ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिन्हें समय के साथ विकास की राह में खुद का दल अक्षम नहीं दिखाई दिया और ना ही वे आंतरिक गुटबाजी से परेशान हुए. अपनी पार्टी में समस्या कुछ ही नेताओं के साथ कुछ ही अवसरों पर होती आई है. जिसके भी अनेक उदाहरण आसानी से मिल जाते हैं.
यह सच ही है कि इन दिनों चुनावों के दौरान प्रचार से लेकर जनसंपर्क तक किसी भी दल को अपना माहौल भांपना मुश्किल होता जा रहा है. मत परिवर्तन के आधार भी अलग-अलग होते जा रहे हैं. वैचारिक स्तर पर मतदाता का विभाजन कठिन है. चर्चा में बने रहने के कारण ‘अप्राकृतिक’ रूप से तैयार करने होते हैं. शक्ति प्रदर्शन से पार्टी की ताकत का अनुमान लगाने का भ्रम तैयार किया जाता है.
चुनाव के समय दलबदल की तैयारी रखी जाती है. जिसमें छोटे-बड़े सभी नेताओं और कार्यकर्ताओं का प्रवेश खुले हाथ से स्वीकार किया जाता है. इस दोतरफा प्रयास में कुछ निष्क्रिय और पहचान खोते नेताओं को दोबारा मुख्यधारा में स्थान मिल जाता है. इसी प्रकार कुछ दीन-दु:खियों को भी नया आश्रय मिल जाता है. जिससे एक-दूसरे को पार्टियों के असंतोष को भी निशाना बनाने का सीधा अवसर मिल जाता है.
कुछ आयोजनों, खास तौर पर चुनावी सभाओं और बैठकों में पार्टी प्रवेश को दिखाकर क्षेत्रीय नेताओं की वरिष्ठ नेताओं के आगे थोड़ी प्रतिष्ठा और पूछ-परख बढ़ जाती है. अनेक मौकों पर यह भी देखा जाता है कि दलों को उपयुक्त उम्मीदवार नहीं मिलने की स्थिति में आयातित स्तर पर एक पुराना नेता विकल्प बन कर उभर जाता है.
इन सारे रास्तों से ही तात्कालिक रूप से मजबूती बनाकर संतोष पा लिया जाता है, क्योंकि अतीत में एक स्थान से मन भरने के बाद दूसरी तरफ चलने के मामले भी अनेक बार सामने आए हैं. इन दिनों लगातार होने वाले दलबदल को शायद राजनीति की नई शक्ल मानने में अब कोई बुराई नहीं होनी चाहिए. हर दल का इतना विभाजन हो चुका है कि वह मूल स्वरूप की पहचान बनाए रखने में असमर्थ है.
उसकी स्थापना के उद्देश्य और सिद्धांतों को ठोस माना नहीं जा सकता है. सालों-साल एक दल का विरोध करने वाला उसी दल में नेता बनकर बैठ जाता है और कृत्रिम रूप में अपने नए नेताओं का गुणगान करने लगता है. उसकी असहजता इतनी आसानी से कम हो जाती है, जैसे वह पूर्व प्रशिक्षण के साथ दल में प्रवेश पाया हो.
इसीलिए मतदाता के मन में भी आवाजाही को लेकर अधिक गंभीरता नहीं है. वह मतदान के लिए उतना ही सक्रिय है, जितना पहले था. अनेक अवसरों पर वह दल को चुनता है. उसे नेताओं में अधिक अंतर नहीं दिखाई देता है. आरोप-प्रत्यारोप को भी अधिक महत्व नहीं मिलता है.
कुछ दिन के व्यंग्य, हास-परिहास के बाद सारी स्थितियां सामान्य हो जाती हैं. यही कुछ कारण हैं, जो नेताओं को राजनीति में एक नई निजी स्वतंत्रता प्रदान कर मन का डर समाप्त कर रहे हैं. जिससे नए अवसरों के साथ भविष्य उज्ज्वल हो रहे हैं. राज और नीति दूर होते जा रहे हैं और मौकापरस्ती एक नई हस्ती को जन्म दे रही है.