ब्लॉग: सामाजिक आंदोलनों के आगे लड़खड़ाती राजनीति

By Amitabh Shrivastava | Published: November 4, 2023 11:09 AM2023-11-04T11:09:20+5:302023-11-04T12:35:49+5:30

इन सभी आंदोलनों की शुरुआत में विपक्ष के नेताओं ने भले ही सरकार के खिलाफ आंदोलन समझ कर उन्हें हल्के में लेने की भूल की, लेकिन जल्द ही उन्हें समझ में आया कि इनकी आंच उन तक भी पहुंच रही है।

Politics faltering in front of social movements | ब्लॉग: सामाजिक आंदोलनों के आगे लड़खड़ाती राजनीति

फोटो क्रेडिट- फाइल फोटो

"तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं,
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं"

सुप्रसिद्ध शायर दुष्यंत कुमार का यह शेर महज एक समाज के आंदोलन से हुए बवाल के दौरान राजनेताओं की स्थिति पर याद आ गया, जिन्हें अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भागना पड़ रहा था।

इस आक्रोश के बीच सहानुभूति के दो शब्द भी आम आदमी के पास नहीं थे। आगे इसी वातावरण के बीच ही जब बीते बुधवार को मुंबई में मराठा आरक्षण आंदोलन को लेकर सर्वदलीय बैठक हुई तो उसमें 32 दलों के नेताओं का सहज ही पहुंच जाना किसी आश्चर्य से कम नहीं था।

इसके अलावा कुछ नेताओं का बैठक में न बुलाने पर दर्द भी यूं ही नहीं उभरा था। स्पष्ट था कि पिछले दिनों आक्रामक हुआ मराठा आरक्षण आंदोलन किसी भी राजनीतिक दल को अलग कर नहीं देख रहा था। हताशा में उसके कार्यकर्ता जिस तरह सुरक्षा के लिए चुनौती बन रहे थे, उससे हर नेता के माथे पर बल पड़ रहा था जिसके फलस्वरूप समस्त प्रकार की आलोचना करने वाले नेता बिना किसी मान-मनौव्वल के सरकार के दरवाजे पर पहुंच गए थे।

भारत में सामाजिक आंदोलनों का इतिहास नया नहीं है। देश के ज्यादातर राज्यों में समाज की समस्याओं को लेकर आंदोलन हो चुके हैं। उन्हें व्यापक समर्थन भी मिला है गुजरात में पाटीदार समाज हो या फिर राजस्थान में जाट, गुर्जर आंदोलन या कर्नाटक में लिंगायत समाज का आंदोलन हो, सभी जगह सरकार को लोहे के चने चबाने के लिए मजबूर होना पड़ा।

इन सभी आंदोलनों की शुरुआत में विपक्ष के नेताओं ने भले ही सरकार के खिलाफ आंदोलन समझ कर उन्हें हल्के में लेने की भूल की, लेकिन जल्द ही उन्हें समझ में आया कि इनकी आंच उन तक भी पहुंच रही है। दरअसल सभी आंदोलनों की तह में जाकर देखा जाए तो उनके पीछे अनेक ठोस कारण नजर आते हैं, जिन्हें तत्कालीन सरकारों ने समय पर सुलझाने की जगह आश्वासनों से लोगों को बरगलाने की कोशिश की कुछ मामलों में भूल या लापरवाही को लंबे समय तक सुधारा नहीं गया।

किंतु जब कभी उनको लेकर आवाज उठी है तो निश्चित ही वह राजनीतिक दलों के पास पहुंची। वे समय और परिस्थिति को भांपकर श्रेय लेने की कोशिश में आंदोलनों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सहारा देने लगे। जब कोई दल सत्ता में रहा तो उसने संविधान और कानून का हवाला देकर नियमों की बात की वहीं जब कोई दल सत्ता से बाहर रहा तो वह संविधान और कानून से परे जाकर वादे पूरे करने या करवाने का वादा करता रहा, जिसका नतीजा एक उम्मीद बंधने के रूप में सामने आया।

मगर जब उम्मीद टूटी तो गुस्सा भी राजनीतिक दलों पर फूटा, जिसे अनुचित नहीं ठहराया जा सकता. साफ है कि समाज के नाम पर वोट की राजनीति कब तक लोगों की भावनाओं और मजबूरियों की कीमत पर चलाई जा सकती थी।

महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण का मुद्दा वर्ष 1968 से चर्चा में रहा और अस्सी के दशक में अण्णासाहब पाटील ने उसे विधिवत उठाया। उसके बाद अनेक आयोग, समिति, सुनवाई होती रहीं सभी दलों की सरकारें आती रहीं व जाती रहीं, लेकिन मूल समस्या का मराठा समाज को समाधान नहीं मिला।

उसके जीवन स्तर में लगातार गिरावट ही आती रही। समाज के चंद लोगों की आड़ में बड़े वर्ग को नजरअंदाज किया जाता रहा हालांकि प्रलोभनों की आड़ में अनेक नेताओं ने अपनी राजनीति जरूर चमका ली। यहां तक कि उनकी संस्थाओं और संस्थानों में दिन दूनी-रात चौगुनी प्रगति भी हुई। किंतु जिस विषय से बात आरंभ हुई थी, वह वहीं पर रुककर अपनी बारी का इंतजार करती रही। अब जब आंदोलनकारियों ने आक्रामक रूप अपना लिया है, तो संकट के बादल सभी के सिर पर मंडराने लगे हैं।

लंबी खींचतान के बाद बनी जटिल स्थितियों से समस्या का हल भी आसानी से नहीं मिल सकता है इसलिए राजनीति के बड़े वर्ग को खामोशी में ही भलाई दिख रही है।

यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि भारतीय राजनीति में चुनाव के दौरान मतों का बंटवारा धर्म, जाति, पंथ के नाम पर आसानी से हो जाता है, बावजूद इसके कि वह आचरण आदर्श चुनाव आचार संहिता के विरुद्ध है। हर राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार का चयन उसकी योग्यता से अधिक क्षेत्र के धार्मिक और जातिगत समीकरणों के आधार पर करता है। उसे विश्वास रहता है कि उम्मीदवार की निजी पहचान मतदान में सहायक सिद्ध होगी किंतु मतदाता के मन में अपनी जाति या धर्म के उम्मीदवार से अपेक्षा अपने अधिकारों को दिलाने, समस्याओं का निराकरण कराने के लिए अधिक रहती है।

वे मानते हैं कि उनके बीच का उम्मीदवार उनकी समस्याएं जल्द सरकार तक पहुंचाएगा और हल भी ढूंढ़ कर निकाल लाएगा मगर चुनाव के बाद बनते सत्ता के समीकरण सरकार चलाने के लिए केंद्रित हो जाते हैं। परंतु नेता समाज को अगले चुनाव से पहले याद करने की कोशिश नहीं करते हैं। जिससे राजनीतिज्ञों को लेकर कुंठा बढ़ती है तो राजनीति से परे एक समाज आंदोलन को शुरू होने की वजह मिलती है।

उसमें ज्यादातर सम विचारी- सम दु:खी-पीड़ित लोग शामिल होते हैं। यदि वे संगठित रहे तो सरकार की नाक में दम करके ही रहते हैं। अनेक राज्यों में इस तरह के दृश्य निर्मित हुए। इससे भी आगे निराशा का भाव लोगों के मन में अधिक घर कर गया तो मराठा आंदोलन की तरह स्थितियां उत्पन्न होती हैं, जिसमें राजनीति लड़खड़ाने लगती है. महाराष्ट्र का ताजा राजनीतिक परिदृश्य कुछ इसी संकट से गुजर रहा है और आने वाले दिन उसके मुश्किल में ही गुजरने की संभावना है।

सवाल यही है कि राजस्थान में जाटों के नेता सरकार में थे। गुजरात में पाटीदार नेता सरकार का हिस्सा थे। कर्नाटक में लिंगायतों का सत्ता पर दबदबा था। महाराष्ट्र में मराठा छत्रपों के इर्द-गिर्द ही राजनीति घूमती है। ऐसे में भी समाज का भरोसा नहीं होना, समाज से ही बने नेताओं की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करता है। उनके वादे और समाज के उत्थान के प्रति ईमानदारी पर प्रश्नचिह्न खड़े करता है। इसमें सत्ता के लिए समाज का इस्तेमाल दिखाई देता है।

इसी कारण राजस्थान हो या गुजरात या फिर ताजा उदाहरण महाराष्ट्र है, जहां से समाज की आड़ में राजनीति करने वालों को सीधा संदेश मिला है। जिसमें स्पष्ट है कि समस्याओं को लंबे समय तक दबाना, छिपाना या बहलाना अब लंबे समय तक नहीं चल सकता है। उसमें प्रतिशोध की भावना पनपने लगती है. शायर दुष्यंत कुमार भी कहते हैं-
पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं,
कोई हंगामा करो ऐसे गुज़र होगी नहीं...!

इसलिए यदि मराठा समाज आर-पार की लड़ाई के लिए सामाजिक आंदोलन के रूप में तैयार है तो कोई आश्चर्य का विषय नहीं, मुश्किल तो उसके आगे स्थापित नेताओं की राजनीति के लड़खड़ाने की है, जिसे आगे भी कुछ और आंदोलनों का सामना करना पड़ेगा।

Web Title: Politics faltering in front of social movements

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