पीयूष पांडे का ब्लॉगः महंगाई पर सस्ता चिंतन

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: January 18, 2020 13:03 IST2020-01-18T13:03:48+5:302020-01-18T13:03:48+5:30

जब से यह गाना आया है कि ‘सैंया तो खूब हई कमात हैं, महंगाई डायन खाए जात है’, तब से महंगाई भी सचेत हो गई है.

Piyush Pandey's blog: cheap thinking on inflation | पीयूष पांडे का ब्लॉगः महंगाई पर सस्ता चिंतन

पीयूष पांडे का ब्लॉगः महंगाई पर सस्ता चिंतन

आज की तारीख में सबसे सस्ता मुद्दा है महंगाई. दो कौड़ी का. महंगाई इतना सस्ता मुद्दा है कि कोई इसका लोड नहीं लेना चाहता. न सरकार, न विपक्ष, न जनता और न समाचार चैनल. जो दल सत्ता में होता है, उसे हाथी जैसी महंगाई भी कभी नहीं दिखती. विपक्ष एक जमाने में महंगाई पर संसद ठप किया करता था. उस वक्त शायद मुद्दों की कमी रहा करती हो. अब विपक्ष किसी बयानवीर के बयान से लेकर प्रधानमंत्नी की चुप्पी तक पर संसद ठप कर सकता है लेकिन महंगाई का मुद्दा उसे ‘ट्रेंडिंग’ नहीं लगता. 

महंगाई इस कदर उपेक्षित मुद्दा है कि जिन राजनीतिक दलों ने अपने घोषणापत्नों में भी इसका जिक्र किया है, उनके नेता घोषणापत्न हाथ में पकड़ कर बता नहीं सकते कि किस पृष्ठ पर महंगाई का जिक्र है. वैसे सच तो यह है कि घोषणापत्न का कवर पेज हटा दिया जाए तो अधिकांश नेता यह नहीं बता सकते कि घोषणापत्न उनकी पार्टी का है या किसी और पार्टी का?

महंगाई आम आदमी का मुद्दा है. लेकिन अब आम आदमी भी महंगाई को मौसमी बीमारी मानता है. आती है, जाती है. जिस तरह मौसमी बीमारियों के वक्त एक-दो चक्कर डॉक्टर के क्लिनिक के लगते हैं, उसी तरह आलू-प्याज-पेट्रोल वगैरह की महंगाई भी थोड़ी-बहुत जेब ढीली करती ही है.  महंगाई पर कोई चिंतन तक नहीं कर रहा, ठंड में आंदोलन तो बहुत दूर की बात है. न्यूज चैनल के एंकरों के पास दिव्यदृष्टि होती है. वे रोज शाम को पाकिस्तान के बुरे इरादे देख लेते हैं लेकिन महंगाई का मुद्दा उन्हें नहीं दिखता. वे हर हफ्ते ट्रम्प की पोल खोल सकते हैं, लेकिन महंगाई के चेहरे पर पड़ा नकाब नहीं उतार पाते. 

जब से यह गाना आया है कि ‘सैंया तो खूब हई कमात हैं, महंगाई डायन खाए जात है’, तब से महंगाई भी सचेत हो गई है. महंगाई डायन अब आलू-प्याज ही नहीं बल्कि बच्चों की बढ़ी फीस से लेकर घर की बढ़ी ईएमआई तक कई रूपों में सामने आती है. वह टिकटॉक वीडियो नहीं बनाती कि उसे आसानी से पहचाना जा सके.

खुदरा व थोक महंगाई में छलांग की छोटी सी खबर पढ़ी तो मैं महंगाई पर सस्ता चिंतन करने बैठ गया. सोचा कि आखिर महंगाई बढ़ने पर फर्क किसे पड़ता है? शायद सिर्फ रिश्वतखोर अधिकारियों को, जो महंगाई की पहली आहट सुनते ही कहते हैं- ‘महंगाई बहुत बढ़ गई है, अब पुराने रेट में काम नहीं होगा, काम का रेट बढ़ाना पड़ेगा.’

Web Title: Piyush Pandey's blog: cheap thinking on inflation

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