पवन के. वर्मा का ब्लॉग: भारत के लोकतंत्र पर मंडराने न पाएं संकट के बादल
By पवन के वर्मा | Published: October 6, 2019 05:50 AM2019-10-06T05:50:41+5:302019-10-06T05:50:41+5:30
हम एक लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं और हमें इस पर गर्व है. लेकिन लोकतंत्र को भी अपनी साख के बारे में समय-समय पर आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता होती है. आज ऐसी अनेक बातें हो रही हैं जो चिंता उत्पन्न करती हैं. अगर इन पर अंकुश नहीं लगाया गया तो वे हमारे लोकतांत्रिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचा सकती हैं.
नियम-कानून अपनी जीवंतता और गतिशीलता के बिना कागजों का मोटा गट्ठा मात्र बन कर रह जाते हैं. सरकार अगर कानून की भूलभुलैया में उलझकर संविधान के वास्तविक संदेश को भूल जाए तो अधिकार, कर्तव्य और कामों का आवंटन मशीनी बनकर रह जाते हैं. सरकार के कामकाज पर नजर रखने की व्यवस्था बेहद आवश्यक है तभी हम अपने आपको वास्तविक लोकतंत्र समझ सकते हैं अन्यथा उसकी आत्मा धीरे-धीरे गायब होती जाएगी.
यह विचार मेरे मन में तब आए जब मैं अपने लोकतांत्रिक ताने-बाने के कई पहलुओं की समीक्षा कर रहा था. हमारे पास विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका हैं और जिस तरह से ये तीनों काम करते हैं, उसी हिसाब से लोकतंत्र कमजोर या मजबूत होता है. विधायिका पर आज भाजपा का प्रभुत्व है. पार्टी के पास आज लोकसभा में भारी बहुमत है, जिसे उसने लोकतांत्रिक चुनावों में जीत के बल पर हासिल किया है. राज्यसभा में भी उसके पास ‘प्रबंधित’ बहुमत है, जो वह विपक्ष के बीच एकजुटता नहीं होने से जुटा पाने में कामयाब है. इसका अनिवार्य रूप से अर्थ यह है कि कोई भी प्रस्तावित विधेयक चाहे वह जैसा हो, सिर्फ इसलिए कानून बन सकता है क्योंकि सत्तापक्ष के पास बहुमत है. इस प्रक्रिया में जो चीज छूट गई है, वह कानून बनाने का चिंतनशील पहलू है, जिसकी अनुपस्थिति में हम लोकतंत्र के आवरण के पीछे विधायी निरंकुशता के शिकंजे में जकड़ते जा रहे हैं.
हालिया समय में अनेक विधेयक इस ‘लोकतंत्रीय बहुमत’ का शिकार हुए हैं. उदाहरण के लिए, ट्रिपल तलाक विधेयक जरूरी था, लेकिन एक प्रभावी और बेहतर कानून बनाने की संभावना को केवल इसलिए नजरंदाज कर दिया गया क्योंकि सत्ता पक्ष इसकी परवाह करने की जरूरत नहीं समझता था कि विपक्ष क्या कह रहा है. प्रस्तावित विधेयक को न तो संसद की प्रवर समिति के पास भेजा गया और न ही विपक्ष द्वारा पेश किए गए रचनात्मक संशोधनों पर कोई ध्यान दिया गया. भाजपा के पास संख्याबल है इसलिए वह जिस भी तरीके से चाहे, कानून पारित करने का अधिकार रखती है.
सरकार द्वारा पारित विधेयकों और निर्णयों को क्रियान्वित करने की जिम्मेदारी कार्यपालिका के माध्यम से नौकरशाही पर होती है. लेकिन वह हमेशा से लोकतांत्रिक श्रृंखला की सबसे कमजोर कड़ी रहा है. नौकरशाह लिटमस पेपर की तरह होते हैं. ऐसा देखने को मिल रहा है कि वे सत्तारूढ़ प्रतिष्ठान के रंग में ही रंग जाते हैं.
लोकतंत्र में न्यायपालिका अंतिम सहारा होती है और अभी तक वह लोगों की इस अपेक्षा पर खरी भी उतरी है. लेकिन कुछ हालिया फैसले चिंता पैदा करने वाले हैं. दो माह पूर्व दायर एक याचिका पर बिहार के एक मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा दिए गए एक फैसले के आधार पर उन 50 लोगों के खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया है जिन्होंने खुली चिट्ठी लिखकर मॉब-लिंचिंग की बढ़ती घटनाओं पर चिंता जताई थी. इनमें रामचंद्र गुहा, मणिरत्नम और अपर्णा सेन जैसी हस्तियों का समावेश है.
हम एक लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं और हमें इस पर गर्व है. लेकिन लोकतंत्र को भी अपनी साख के बारे में समय-समय पर आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता होती है. आज ऐसी अनेक बातें हो रही हैं जो चिंता उत्पन्न करती हैं. अगर इन पर अंकुश नहीं लगाया गया तो वे हमारे लोकतांत्रिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचा सकती हैं. इस संदर्भ में मुझे इकबाल की यह पंक्तियां याद आ रही हैं : ‘वतन की फिक्र कर नादां मुसीबत आने वाली है/तिरी बर्बादियों के मशवरे हैं आसमानों में.’