आरोप-प्रत्यारोप में ही सीमित होती राजनीति, किसी विषय पर मतभेद हो ही नहीं तो फिर बहस क्यों?

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: December 10, 2025 05:41 IST2025-12-10T05:40:20+5:302025-12-10T05:41:18+5:30

Parliament Winter Session: संसद में हमारे ‘राष्ट्रीय गीत’ को लेकर बहस हो रही थी तो एक सवाल बार-बार मन में उठ रहा था यह बहस हो क्यों रही है?

Parliament Winter Session Politics limited accusations counter-accusations blog Vishwanath Sachdev | आरोप-प्रत्यारोप में ही सीमित होती राजनीति, किसी विषय पर मतभेद हो ही नहीं तो फिर बहस क्यों?

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Highlightsकिसी विषय पर मतभेद हो ही नहीं तो फिर बहस क्यों?‘वंदे मातरम्‌’ हमारी आजादी की लड़ाई का महामंत्र था.‘वंदे मातरम्‌’ के प्रारंभिक अंश को ‘राष्ट्रगीत’ की मान्यता दी गई.

Parliament Winter Session: ‘बेकार की बहस मत करो’ यह पांच शब्द शायद ही किसी ने न सुने या न बोले होंगे. इस बहस का सीधा-सा मतलब किसी विवादास्पद विषय पर विचार-विमर्श करके एक स्वीकार्य नतीजे पर पहुंचना होता है. हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था में संसद अथवा विधानसभाओं में जब बहस की जाती है तो इसके मूल में कोई ऐसा विषय होता है जो विवादास्पद हो, जिसपर विचार करने वालों में विवाद हो. तब विषय पर संवाद करके किसी एक नतीजे पर पहुंचने की कोशिश की जाती है. लेकिन जब विवाद की स्थिति ही न हो, किसी विषय पर मतभेद हो ही नहीं तो फिर बहस क्यों?

उस दिन जब संसद में हमारे ‘राष्ट्रीय गीत’ को लेकर बहस हो रही थी तो एक सवाल बार-बार मन में उठ रहा था यह बहस हो क्यों रही है? ‘वंदे मातरम्‌’ हमारी आजादी की लड़ाई का महामंत्र था, हमारे पूर्वजों ने इस मंत्र को हथियार बनाकर यह लड़ाई जीती थी.  फिर जब संविधान-सभा में राष्ट्रगान को लेकर विचार हो रहा था तो सदस्यों ने गुरुदेव रवींद्रनाथ  टैगोर की रचना ‘जन-गण-मन’ को ‘राष्ट्रगान’ के रूप में स्वीकारा और बंकिम चंद्र चटर्जी की रचना ‘वंदे मातरम्‌’ के प्रारंभिक अंश को ‘राष्ट्रगीत’ की मान्यता दी गई.

आजादी की लड़ाई के दौरान भी यह राष्ट्रगीत गाया जाता था और बाद में भी इसे राष्ट्रगान के समकक्ष ही सम्मान दिया गया.  आजादी की लड़ाई का साझा मंच थी कांग्रेस.कांग्रेस के हर अधिवेशन में तब भी, और अब भी इसे पूरे सम्मान से गाया जाता है.  फिर ‘बहस’ किस बात की है? आज से डेढ़ सौ साल पहले,  बंकिम चंद्र चटर्जी ने इस गीत की रचना की थी, जिसे बाद में उन्होंने अपने उपन्यास ‘आनंदमठ’ में भी जोड़ा.

देखते ही देखते यह ‘वंदे मातरम्‌’ हमारी आजादी की लड़ाई का महामंत्र बन गया. इस मंत्र की शक्ति और लोकप्रियता ने अंग्रेजों को दहला दिया था. उन्होंने इस ‘जयघोष’ पर ही प्रतिबंध लगा दिया. प्रतिबंध ने इसे और ताकतवर बनाया. कोड़े बरसते रहे, वंदे मातरम्‌ का जयघोष गूंजता रहा. डेढ़ सौ साल पहले लगा यह जयघोष आज भी उतना ही ताकतवर और महत्वपूर्ण है.

महत्वपूर्ण है यह जानना कि ‘जन गण मन’ को राष्ट्रगान और ‘वंदे मातरम्‌’ को राष्ट्रगीत घोषित करके इस बारे में भ्रम के इस अध्याय को समाप्त कर दिया गया था.  इसीलिए वंदे मातरम्‌ की महान रचना का 150वां साल मनाना तो समझ में आता है, पर इस पर ‘बहस’ किस बात की?

होना तो यह चाहिए था कि इस अवसर का उपयोग उन स्वतंत्रता-सेनानियों को श्रद्धांजलि देकर उनके प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन के लिए किया जाता; यह संकल्प लिया जाता कि हम उन सेनानियों के बलिदान को कभी भी व्यर्थ नहीं जाने देंगे; उनके सपनों को साकार करने का हर संभव प्रयास करेंगे.

पर हुआ यह कि संसद में राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व करने वाले हमारे सांसदों ने इसे राजनीतिक लाभ उठाने का अवसर बना दिया! यह अवसर मिल-जुल कर उत्सव मनाने का था, दुर्भाग्य ही है कि हमारे नेताओं ने इसे एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने तक ही सीमित करके रख दिया.  

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