पंकज चतुर्वेदी का ब्लॉग: मौसम का बिगड़ता मिजाज दे रहा चेतावनी
By पंकज चतुर्वेदी | Published: October 29, 2021 01:33 PM2021-10-29T13:33:59+5:302021-10-29T13:35:23+5:30
उत्तरी भारत में पेयजल का संकट साल-दर-साल भयावह होता जा रहा है. तीन साल में एक बार अल्पवर्षा यहां की नियति बन गया है.
मध्य भारत में महिलाओं के लोकप्रिय पर्व करवा चौथ पर दशकों बाद शायद ऐसा हुआ कि दिल्ली के करीबी इलाकों में भयंकर बरसात थी और चंद्रमा दिखा नहीं. समझ लें भारत के लोकपर्व, आस्था, खेती-अर्थ तंत्र सभी कुछ बरसात या मानसून पर केंद्रित है और जिस तरह मानसून परंपरा से भटक रहा है, वह हमारे पूरे तंत्र के लिए खतरे की घंटी है.
इस बार भारत में सर्वाधिक दिनों तक मानसून भले ही सक्रिय रहा हो, लेकिन सभी जगह बरसात अनियमित हुई व निर्धारित कैलेंडर से हटकर हुई. भारत की समुद्री सीमा तय करने वाले केरल में बीते दिनों आया भयंकर जलप्लावन का ज्वार भले ही धीरे-धीरे छंट रहा हो लेकिन उसके बाद वहां जो कुछ हो रहा है, वह पूरे देश के लिए चेतावनी है.
देश के सिरमौर उत्तराखंड के कुमायूं अंचल में तो बादल कहर बन कर बरसे हैं, बरसात का गत 126 साल का रिकॉर्ड टूट गया.
इस बार की बरसात ने भारत को बता दिया है कि चरम मौसम की मार पूरे देश के सामाजिक-आर्थिक और भौगोलिक ताने-बाने को तहस-नहस करने पर उतारू है. अकेले अक्तूबर के पहले 21 दिनों में उत्तराखंड में औसत से 546 फीसदी अधिक बरसात हुई तो दिल्ली में 339 प्रतिशत. बिहार में 234, हरियाणा में 139 और राजस्थान में औसत से 108 फीसदी अधिक बरसात होना खेती के लिए तबाही साबित हुआ है.
दक्षिण-पश्चिमी मानसून जाते-जाते तबाही मचा गया. जाहिर है कि अब बरसात का चक्र बदल रहा है और जलवायु परिवर्तन के छोटे-छोटे कारकों पर आम लोगों को संवेदनशील बनाना जरूरी है.
जलवायु परिवर्तन की मार भारत में जल की उपलब्धता पर भी पड़ रही है. देश में बीते 40 सालों के दौरान बरसात के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि इसमें निरंतर गिरावट आ रही है. बीसवीं सदी के प्रारंभ में औसत वर्षा 141 सेंटीमीटर थी जो नब्बे के दशक में 119 सेंटीमीटर रह गई है.
उत्तरी भारत में पेयजल का संकट साल-दर-साल भयावह होता जा रहा है. तीन साल में एक बार अल्पवर्षा यहां की नियति बन गया है. तिस पर देश की सदानीरा गंगा-यमुना जैसी नदियों के उद्गम ग्लेशियर बढ़ते तापमान से बेचैन हैं.
विभिन्न अध्ययनों के आधार पर यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि यदि तापमान में 2 डिग्री सेंटीग्रेड के लगभग वृद्धि होती है तो गेहूं की उत्पादकता में कमी आएगी. अनुमान है कि तापमान के 1 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ने पर गेहूं के उत्पादन में 4-5 करोड़ टन की कमी होगी.
इसके अतिरिक्त वर्षा आधारित फसलों को अधिक नुकसान होगा क्योंकि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण वर्षा की मात्र कम होगी जिसके कारण किसानों को सिंचाई हेतु जल उपलब्ध नहीं हो पाएगा.