क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सख्त रुख से पाक झुकेगा?, पाकिस्तान की चुप्पी बहुत कुछ...
By हरीश गुप्ता | Updated: June 5, 2025 05:13 IST2025-06-05T05:13:20+5:302025-06-05T05:13:20+5:30
कठोर रुख पहले के ‘आतंकवाद पर वार्ता’ फ्रेमवर्क से एक निर्णायक विराम का संकेत देता है, जो कूटनीतिक ठहराव का द्योतक है.

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प्रधानमंत्रीनरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान के साथ भारत के उथल-पुथल भरे संबंधों में एक नया नियम स्थापित किया है : जब तक इस्लामाबाद नई दिल्ली द्वारा वांछित आतंकवादियों को सौंपकर ‘वास्तविक ईमानदारी’ नहीं दिखाता, तब तक कोई बातचीत नहीं होगी. यह कठोर रुख पहले के ‘आतंकवाद पर वार्ता’ फ्रेमवर्क से एक निर्णायक विराम का संकेत देता है, जो कूटनीतिक ठहराव का द्योतक है.
यह अनिश्चित काल तक जारी रह सकता है, जब तक कि पाकिस्तान अभूतपूर्व रियायतें न दे. भारत ने पहले ही 22 व्यक्तियों की सूची - जिसमें संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिबंधित आतंकवादी हाफिज सईद और मसूद अजहर शामिल हैं - प्रस्तुत करते हुए उनके तत्काल प्रत्यर्पण की मांग कर रखी है. जवाब में पाकिस्तान की चुप्पी बहुत कुछ कहती है.
यदि पाक सरकार प्रत्यर्पण की मांग मान लेती है, तो सरकार को इस्लामिक गुटों और सैन्य व खुफिया प्रतिष्ठान के भीतर शक्तिशाली तत्वों से प्रतिक्रिया का जोखिम उठाना पड़ेगा. यदि सरकार ऐसा करने से मना करती है, तो इस्लामाबाद को बढ़ते अंतरराष्ट्रीय दबाव और संभावित आर्थिक गिरावट का सामना करना पड़ेगा.
इस्लामाबाद ने अतीत में आतंकवाद विरोधी प्रयासों में सहयोग किया है, लेकिन मुख्ळ रूप से पश्चिमी शक्तियों के साथ. 2010 में, पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) ने वरिष्ठ तालिबान कमांडर मुल्ला अब्दुल गनी बरादर को सीआईए को सौंपा था. ओसामा बिन लादेन और उसके संदेशवाहक अबू अहमद अल-कुवैती के मामले पाक के चुनिंदा सहयोग को ही रेखांकित करते हैं.
2011 में, पाकिस्तानी अधिकारियों ने 2002 के बाली नाइट क्लब बम विस्फोटों के एक प्रमुख व्यक्ति उमर पाटेक को पकड़ा और उसे अमेरिका को सौंप दिया. 2018 में, इस्लामाबाद ने 27 संदिग्ध तालिबान और हक्कानी आतंकवादियों को अफगानिस्तान प्रत्यर्पित किया. लेकिन भारत - अपने प्रमुख भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी - के साथ समान सहयोग करना पूरी तरह से एक और मामला है. अब तक, इस्लामाबाद ने इस मुद्दे पर आधिकारिक रूप से टिप्पणी करने से परहेज किया है.
ऑपरेशन सिंदूर का प्रचार: राष्ट्रवाद या रणनीतिक उकसावे की कार्रवाई?
गुप्त रूप से अंजाम दिए गए ऑपरेशन सिंदूर के बाद, देश भर में 12 से ज्यादा रैलियों में पीएम मोदी के भाषणों ने एक उग्र मोड़ ले लिया है, जिसमें युद्ध जैसी छवि पेश करते हुए पाकिस्तान को खुली चेतावनी दी गई है. मोदी के शब्द जानबूझकर घरेलू जोश को भड़काने और एक वैश्विक संदेश देने के लिए गढ़े गए लगते हैं: भारत फिर से हमला करने में संकोच नहीं करेगा.
गुजरात में एक रैली में मोदी ने घोषणा की, ‘भारत के दुश्मनों को समझना चाहिए, हम उनके घरों में घुसेंगे और जरूरत पड़ने पर हमला करेंगे. चुप्पी का युग खत्म हो गया है.’ सीमा के नजदीक बीकानेर में उन्होंने गरजते हुए कहा, ‘यह एक नया भारत है. हम धमकियों को बर्दाश्त नहीं करते. हम जवाब देते हैं - शब्दों से नहीं, बल्कि आग से.’
बिहार की अपनी दूसरी यात्रा के दौरान, उन्होंने पाकिस्तान को ‘सांप’ बताते हुए नाटकीय रूपकों का अनावरण किया और कहा, ‘अगर यह फिर से अपना फन उठाएगा, तो इसे इसके बिल से बाहर निकाला जाएगा और रौंद दिया जाएगा...’ यह लहजा स्पष्ट रूप से इजराइल के अनुपातहीन प्रतिशोध के सिद्धांत की याद दिलाता है - जिससे सवाल उठता है कि क्या मोदी सार्वजनिक संकेतों के जरिये भारत की रणनीतिक स्थिति को फिर से माप रहे हैं. आलोचक इसे युद्धोन्माद और चुनाव प्रचार के रूप में देखते हैं.
पूर्व राजनयिक शिवशंकर मेनन कहते हैं, ‘अपनी सीमाओं की रक्षा करना एक बात है, मंच पर छिपी धमकियां जारी करना एकदम दूसरी बात है.’ अन्य लोग तर्क देते हैं कि यह इस्लामाबाद और वैश्विक राजधानियों दोनों के लिए एक सोचा-समझा संदेश है: कि भारत अंतरराष्ट्रीय समर्थन के साथ या उसके बिना एकतरफा कार्रवाई करने को तैयार है.
बार-बार ‘सर्जिकल संकल्प’ और ‘आंतरिक सफाई’ का आह्वान करके, मोदी खुद को एक ऐसे मजबूत व्यक्ति के रूप में स्थापित कर रहे हैं जो वैश्विक मानदंडों को चुनौती देने को तैयार है. भारत आतंक के सामने वैश्विक सहानुभूति का इंतजार नहीं करेगा. जैसे-जैसे तनाव बढ़ रहा है, मोदी की बयानबाजी एक परेशान करने वाला सवाल उठा रही है कि यह सिर्फ डराने का प्रयास है या खुले संघर्ष की ओर नीति परिवर्तन का संकेत है?
राहुल की दुविधा : अनुशासन या डैमेज कंट्रोल?
राहुल गांधी ने कभी भी आंतरिक असहमति के प्रति अपने तिरस्कार को छिपाया नहीं है. उन्होंने कांग्रेस के कुछ नेताओं पर पार्टी को अंदर से नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाया है, और निजी बैठकों और सार्वजनिक भाषणों में संकेत दिया है कि महत्वपूर्ण क्षणों में कांग्रेस को कमजोर करने वाले कुछ लोग हैं.
फिर भी, शशि थरूर जैसे व्यक्ति स्वतंत्र रूप से काम करना जारी रखते हैं और अक्सर असंगत सुर निकालते हैं. यह सहिष्णुता क्यों? सच्चाई कांग्रेस के असहज विकास में निहित है. कभी हाईकमान के हुक्म से संचालित होने वाली पार्टी, आज लुप्त होती सत्ता और खंडित वफादारी से जूझ रही है.
थरूर और उनके जैसे अन्य नेता ऐसी श्रेणी में आते हैं जिन्हें कांग्रेस आसानी से खारिज नहीं कर सकती: शहरी, स्पष्टवादी, मीडिया-प्रेमी और अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में चुनावी रूप से प्रासंगिक. थरूर की असहमति को पारंपरिक अर्थों में विद्रोह के रूप में नहीं देखा जाता है - इसे ब्रांडिंग के रूप में देखा जाता है.
उनका व्यक्तित्व भले ही राहुल के करीबी लोगों के लिए सिरदर्द हो, कांग्रेस के उन कुलीन हलकों में दिखाई देने में मदद करता है, जहां इसकी जमीन खो गई है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि राहुल अपनी छवि के अनुरूप पार्टी का पुनर्निर्माण कर रहे हैं. यह एक लंबा खेल है. अब असहमति जताने वालों को हटाने से आंतरिक अराजकता की सुर्खियां बनने का जोखिम है, जिससे भाजपा की पार्टी के बिखरने की कहानी को बल मिलेगा. असहमति को बर्दाश्त न करने के आरोप से घिरे एक नेता के लिए, दमन से लाभ की बजाय नुकसान ही होगा.
बेंच स्ट्रेंथ और चुनावी स्थिरता की कमी से जूझ रही पार्टी में, अलग-थलग लोगों को बर्दाश्त करना कमजोरी से कम और अस्तित्व से ज्यादा जुड़ा हो सकता है. लेकिन उन्हें निश्चित रूप से पार्टी में ‘विभीषणों’ के बारे में बात करना और गड़बड़ियों के लिए सहयोगियों को दोष देना बंद कर देना चाहिए, ऐसा कई वरिष्ठों का कहना है.





