एन. के. सिंह का ब्लॉग: आरसीईपी से बाहर आना ही भारत के हित में था
By एनके सिंह | Published: November 6, 2019 06:16 AM2019-11-06T06:16:34+5:302019-11-06T06:16:34+5:30
भारत का संकट यह है कि हम अगर यह समझौता करते तो खतरा यह था कि चीनी मैन्युफैक्चरिंग उत्पादों के भारतीय बाजार में बेरोकटोक आने से संकटग्रस्त भारतीय लघु व मध्यम उद्योग हमेशा के लिए खत्म हो जाते और बेरोजगारी अपनी चरम-स्थिति पर पहुंच जाती. साथ ही ऑस्ट्रेलिया अपने सस्ते कृषि उत्पादों से और न्यूजीलैंड दुग्ध उत्पादों से भारतीय किसानों की कमर तोड़ देता.
दुनिया के 16 मुल्कों और वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में एक-तिहाई की हिस्सेदारी वाली क्षेत्नीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) की बैंकाक (थाईलैंड) में आयोजित तीसरी शिखर वार्ता फिर बेनतीजा रही क्योंकि प्रमुख देश भारत ने अपने को इससे बाहर कर लिया. हालांकि बाकी 15 देशों ने इस पर हस्ताक्षर किए. प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी ने देश-हित में बड़ा फैसला लिया है.
कांग्रेस ने इसे अपनी जीत इस आधार पर बताया है कि पार्टी इस समझौते के खिलाफ थी. प्रतिस्पर्धात्मक प्रजातंत्न में राजनीतिक पार्टियों में श्रेय लेने की होड़ चलती रहती है लेकिन इसे मोदी का दृढ़-प्रतिज्ञ होना ही कहा जाएगा क्योंकि दो दिन पहले ही उन्होंने इसकी सफलता के लिए अपनी शुभकामनाएं दी थीं. भारत का शक्तिशाली मित्न देश जापान भी भारत से शामिल होने का आग्रह कर रहा था ताकि चीन का वर्चस्व न रहे. इस ताजा समझौते में भारत के शामिल न होने पर अब इसमें आसियान के दस देशों सहित चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और दक्षिण कोरिया रहेंगे.
भारत का संकट यह है कि हम अगर यह समझौता करते तो खतरा यह था कि चीनी मैन्युफैक्चरिंग उत्पादों के भारतीय बाजार में बेरोकटोक आने से संकटग्रस्त भारतीय लघु व मध्यम उद्योग हमेशा के लिए खत्म हो जाते और बेरोजगारी अपनी चरम-स्थिति पर पहुंच जाती. साथ ही ऑस्ट्रेलिया अपने सस्ते कृषि उत्पादों से और न्यूजीलैंड दुग्ध उत्पादों से भारतीय किसानों की कमर तोड़ देता.
भारत के न रहने पर चीन अब इस 15 देशों के संगठन का और खासकर क्षेत्न के दस देशों वाले संगठन आसियान का नेता बन जाएगा. दरअसल सभी गैर-आसियान देशों की लालची नजर भारत के बड़े उपभोक्ता बाजार पर है लेकिन वे इस बात पर राजी नहीं हैं कि वे भारत के व्यापार घाटे (आयात-निर्यात संतुलन) को कम करें.
दूसरा, चीन से यह भी डर था कि वह सीधे नहीं तो अन्य देशों के रास्ते भी अपना उत्पाद भारत में डंप करने लगता. लेकिन हमें इस समझौते से बाहर होने की मूल मजबूरी भी समझनी होगी. आखिर क्यों हमारे उत्पाद विश्व बाजार में खड़े नहीं हो पा रहे हैं? चीन हमारे देवी-देवताओं की मूर्तियां भारत के घर-घर में स्थापित कर चुका है. क्यों हजारों साल से भारत के कृषि -प्रधान होने के बावजूद कोई हजारों कोस दूर बैठा ऑस्ट्रेलिया हमें सस्ता गेहूं मुहैया करता है और क्यों गाय हमारी माता होने के बावजूद न्यूजीलैंड चौथाई दर पर हमें दूध उपलब्ध कराने में सक्षम है?
हमारे देश में इफरात अनाज और दूध पैदा हो रहा है लेकिन अधिक लागत के कारण वैश्विक बाजार में बेचने लायक नहीं है. जितनी जल्द हम अपनी लागत कम करेंगे उतनी ही तेजी से हम अपना माल दुनिया में बेच सकेंगे.