ब्लॉग: नीतीश कुमार विपक्षी एकता की बात कर रहे हैं पर उन पर भरोसा कौन करे?
By राजेश बादल | Published: February 21, 2023 10:27 AM2023-02-21T10:27:07+5:302023-02-21T10:28:07+5:30
राजनीतिक दल और नेता जब तक सिद्धांतों की खातिर सत्ता छोड़ना नहीं सीखते और स्वार्थों के कारण सत्ता से चिपकना नहीं छोड़ते, तब तक कोई भी एकता अमिट और स्थायी नहीं रह सकती.
बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू के नेता नीतीश कुमार ने दो दिन पहले एक महत्वपूर्ण बात कही. उन्होंने कहा कि यदि भारतीय जनता पार्टी को आगामी लोकसभा चुनाव में सौ सीटों के भीतर समेटना हो तो विपक्ष को एकजुट होना आवश्यक है और कांग्रेस को इसमें आगे आना होगा. जिस कार्यक्रम में नीतीश कुमार ने यह बात कही, उसमें कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद भी थे.
उन्होंने वादा किया कि कांग्रेस आलाकमान तक नीतीश कुमार की भावना पहुंचा देंगे. पर उन्होंने जोड़ा कि देखने वाली बात यह है कि आई लव यू कहने की पहल किसकी ओर से होगी.
कांग्रेसी वोट बैंक के बिखरने से अपने दल का वोट बैंक बनाने वाले दल भी अब उसी कांग्रेस पर विपक्षियों को एकजुट करने की जिम्मेदारी डालना चाहते हैं. यानी वे मानने लगे हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में कांग्रेस ही ऐसा दल है, जिसके बैनर तले विपक्षी एकता फल-फूल सकती है.
जहां तक प्रतिपक्ष की एकजुटता का प्रश्न है तो सैद्धांतिक और वैचारिक आधार पर किसी भी ध्रुवीकरण का संसदीय लोकतंत्र में विरोध क्यों कर होना चाहिए? समान विचार वाले राजनीतिक दलों का एक मंच पर आना एकदम स्वाभाविक माना जा सकता है. लेकिन अफसोस यह है कि ऐसा होता नहीं है. भारतीय लोकतंत्र में विपक्ष के एकजुट होने का अर्थ सत्ताधारी दल या उसके नेता को पटखनी देना ही माना जाता रहा है.
1977 में धुर विरोधी वैचारिक आधार वाले राजनीतिक दल जनता पार्टी के झंडे तले एक हुए थे तो उनका एकमात्र उद्देश्य इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर करना था. इसके बाद वह एकता तीन साल में ही बिखर गई. विपक्ष के एक होने का उदाहरण तब देखने को मिला, जब राजीव गांधी को हटाने के लिए आंदोलन छेड़ा गया था. इस मामले में भी सैद्धांतिक धरातल पर परस्पर विरोधी पार्टियों ने विश्वनाथ प्रताप सिंह को समर्थन दिया था. क्या कोई भरोसा कर सकता है कि भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टियां राजीव विरोध के कारण ही वीपी सिंह सरकार को समर्थन दे रही थीं.
कांग्रेस के विरोध में बनी यह एकता भी दो वर्ष में छिन्न-भिन्न हो गई. इसके बाद मुल्क ने सियासी अस्थिरता का दौर देखा और एनडीए तथा यूपीए गठबंधनों का युग आया. एकाध अपवाद छोड़ दें तो अधिकतर छोटी मंझोली पार्टियां अपने-अपने हितों के आधार पर एकजुट होती रहीं या तमाम खेमों में आती जाती रहीं. स्वस्थ लोकतंत्र के सरोकार हाशिये पर जाते रहे. जब तक किसी पार्टी का स्वार्थ सधता, वह गठबंधन का पल्लू पकड़कर रखती. जब उसकी बात नहीं सुनी जाती तो लोकतंत्र की दुहाई दे वह गठबंधन को ठेंगा दिखाते बाहर चली जाती.
असल में यह लोकतंत्र के विद्रूप उपहास का दौर चल रहा है. जो नीतीश कुमार आज कांग्रेस के छाते के नीचे एकजुट होने की बात कर रहे हैं और भाजपा को लोकतंत्र के लिए खतरा बता रहे हैं, वे एक-दो बार नहीं, तीन बार उसी भाजपा के साथ गलबहियां डालकर सरकार बना चुके हैं. पिछली बार तो उन्हें जनादेश ही कांग्रेस और आरजेडी के साथ मिलकर सरकार चलाने का मिला था. उसका अपमान कर नीतीश कुमार सरकार बनाने के लिए भाजपा के साथ जाकर मिल गए थे. जब भाजपा ने साथ होते हुए भी नीतीश की पार्टी को कमजोर बनाने का काम किया और विधानसभा चुनाव में उनकी अपनी पार्टी अत्यंत दुबली हो गई तो उनकी आंखें खुलीं. उन्होंने गठबंधन छोड़ दिया.
जाहिर था कि यह सिद्धांतों के आधार पर नहीं, स्वार्थों के आधार पर बना गठबंधन था. टिकाऊ विपक्षी एकता के लिए लोकतांत्रिक और नैतिक उसूलों की जरूरत होती है, निजी हितों की नहीं. यह बात उन राजनेताओं को अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए जो स्वार्थ के कारण गठबंधन करते हैं और जम्हूरियत की दुहाई भी देने लगते हैं.
मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेसी संस्कारों में पले-बढ़े. जब मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया, तो उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया, जिसे वे घनघोर सांप्रदायिक पार्टी बताते रहे हैं. आज उनका गुट भाजपा में तेल-पानी के संगम जैसा है, जो कभी नहीं मिलते.
स्पष्ट है कि जब तक राजनीतिक दल और नेता सिद्धांतों की खातिर सत्ता छोड़ना नहीं सीखते और स्वार्थों के कारण सत्ता से चिपकना नहीं छोड़ते , तब तक कोई भी एकता अमिट और स्थायी नहीं रह सकती. यह नकारात्मक राजनीति है कि किसी राजनेता को हटाने के लिए गठबंधन बनाए जाएं. अतीत के उदाहरण गवाह हैं कि ऐसे गठजोड़ कम आयु के होते हैं. अगर यह जारी रहते हैं तो लोकतंत्र के लिए घातक हैं. आने वाले समय में चेतावनी के रूप में प्रस्तुत रहेंगे.
चेतावनी से अर्थ यह है कि नीतीश कुमार और उनकी आयु वर्ग के वर्तमान नेताओं की यह आखिरी पीढ़ी है. जब यह पीढ़ी सिद्धांतों और सरोकारों को ताक में रखती है और मूल्यविहीन राजनीति करती है तो वह देश का मखौल उड़ाती दिखाई देती है. यही नहीं, वह आने वाली नस्लों को भी बिगाड़ने का काम कर रही है. नौजवान खून इसी को सियासत समझता है. इस तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी विकृत सियासी संस्कारों की फसल उपजती रहती है. देश की लोकतांत्रिक सेहत को नुकसान पहुंचता रहता है. विपक्षी एकता इससे अछूती नहीं रह सकती.
प्रतिपक्षी पार्टियों के एक मंच पर आने का कारण वैचारिक हो तो वह उचित कहा जाएगा, मगर केवल सत्ता से किसी पार्टी को हटाने तथा गठबंधन को सत्ता में बिठाने के मकसद से हो तो वह जायज नहीं माना जाएगा. उसके बिखरने में भी देर नहीं लगेगी,क्योंकि गठबंधन में शामिल पार्टियों के स्वार्थ खरीद लिए जाएंगे. जब पराजित पार्टी गठबंधन के दलों को उनके हित साधने की गारंटी देगी तो उन्हें पाला बदलने में देर नहीं लगेगी. नीतीश कुमार स्वयं इसका उदाहरण हैं. ऐसे में उन पर भरोसा कौन करेगा? भारतीय लोकतंत्र को इस नजरिये से परिपक्व होना होगा.